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अपने ताकतवर अतीत की छाया मात्र रह गई है बसपा

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दलित मेहनतकश समुदाय भाजपा राज में ग्रामीण दबंगों और राज्य मशीनरी के निशाने पर रहा है। उधर उनकी रोजी रोटी आरक्षण सम्मान सब कुछ दांव पर है। इसलिए दलित समुदाय हर हाल में मोदी योगी राज से मुक्ति चाहता है। बसपा के समर्पण के बाद दलितों के पास विपक्षी गठबंधन की ओर शिफ्टिंग के अलावा रास्ता ही क्या बचा है?आज अपनी स्थापना ( अप्रैल 1984 में ) के 40 साल बाद, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बसपा अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। इस संकट की जड़ें मूलतः उसकी राजनीतिक दिशा में मौजूद है।(

लाल बहादुर सिंह 

दलित समुदाय में आज जबर्दस्त सामाजिक मंथन है। दलित राजनीति आज एक चौराहे पर है और भारी संक्रमण से गुजर रही है। भारतीय समाज के आखिरी पायदान पर खड़े आबादी के लगभग 20% मेहनतकश तबकों की थोड़ी सी करवट का राजनीति के लिए कितना गहरा निहितार्थ है, यह हालिया चुनावों के नतीजों से साफ है। भाजपा अगर बहुमत से दूर रह गई, तो उसमे इकलौता सबसे बड़ा कारक यही है।

आज सबसे बड़ी और संगठित दलित पहचान वाली पार्टी बसपा इस चुनाव के बाद अपने ताकतवर अतीत की छाया मात्र रह गई है। जिस बसपा ने आज के महज 12साल पहले तक राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य यूपी में अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई थी, आज उसका देश में कोई सांसद नहीं है और यूपी में उसके इकलौते विधायक को स्वतंत्र अधिक, बसपा का कम माना जाता है।

इस चुनाव में बसपा को मात्र 2.04% वोट मिला है और 1997 से चली आ रही राष्ट्रीय पार्टी की उसकी मान्यता अब खत्म होने जा रही है। क्योंकि वह इसके लिए वांछित तीनों अर्हताओं में से कोई पूरा कर पाने की स्थिति में अब नहीं रह गई है, मसलन न तो उसके पास 4 राज्यों में 6%से अधिक वोट और 4 सांसद हैं, न 2% लोकसभा की सीटें 3 राज्यों से हैं, न ही कम से कम 4 राज्यों में वह मान्यता प्राप्त पार्टी है।

अब वह बमुश्किल यूपी की राज्यस्तरीय मान्यता प्राप्त पार्टी रह गई है। दरअसल इसके लिए 8% मत की जरूरत होती है और वह हाल में हुए लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 9.39%मत पाकर बाल-बाल बच गई। इसके पूर्व 2022 के विधानसभा चुनाव में उसे 12.88% मत मिला था।

यह वही बसपा है जिसने 2009 में लोकसभा में 21सीटें जीती थीं और उसे राष्ट्रीय स्तर पर 6.17% वोट हासिल हुआ था, 2014 में सीट तो नहीं मिली पर मत 4.19% मिला। मात्र 5साल पहले सपा के साथ गठबंधन में उसे 10 सीटें मिलीं और 3.66% मत मिला।

वाया बामसेफ, DS 4, बसपा मूलतः दलित अधिकारियों कर्मचारियों तथा युवाओं के संगठन के आधार पर एक सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन के गर्भ से उभरी थी। यद्यपि बहुजन समाज की पार्टी के बतौर इसका गठन सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दृष्टि से शुरू से ही गहरे अंतर्विरोधों से भरा हुआ था, यह व्यवहारतः एक दलित जनाधार वाली पार्टी के बतौर उभरती गई।

क्योंकि 80 के दशक का वह काल खंड दलितों के कांग्रेस से मोहभंग का दौर था और ओबीसी राजनीति में भी एक मंथन और संक्रमण का काल था, बसपा को इन तबकों में अच्छा समर्थन मिला। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुस्लिम समुदाय कांग्रेस से अलग होकर सपा-बसपा के नजदीक आया और दोनों ने मिलकर 1993 में भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया। राजनीतिक दृष्टि से लोगों को लगा कि यह एक स्वाभाविक और स्थाई गठबंधन बन गया है। लेकिन दोनों दलों के नेताओं की महत्वाकांक्षा के टकराव और उधर जमीनी स्तर पर उनके सामाजिक आधार के टकराव ने जल्द ही उनके रिश्तों को दुश्मनी में बदल दिया।

उसके बाद कांशीराम ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने का जो फैसला किया वह दूरगामी दृष्टि से बसपा के लिए और पूरे देश के लिए आत्मघाती साबित हुआ। दरअसल सरकार तो बनती रही, लेकिन ग्रामीण दबंगों की ब्राह्मणवादी हिंदुत्व की पार्टी भाजपा पर निर्भर होने के कारण बसपा की मूल पहचान और छवि का क्षरण होता गया, वह उन ताकतवर हितों और उनकी सोच से टकराने वाले कोई भी दलित बहुजन हितैषी कदम उठाने में असमर्थ हो गई। मायावती ने इसी दौर में भाजपा के दबाव में एससी-एसटी कानून को कमजोर किया और पेरियार की स्टेच्यू लगवाने की अपनी घोषणा से पीछे हट गईं।

भाजपा के आगे राजनीतिक विचारधारात्मक तौर पर समर्पण करके उन्होंने अपने जनाधार को वैचारिक रूप से पर भाजपा की वैचारिकी के आगे निरस्त्र कर दिया। उसी दौर में मायावती पोस्ट गोधरा चुनाव में मोदी के पक्ष में प्रचार करने गुजरात गई। इधर संघ भाजपा अपने अनगिनत संगठनों के माध्यम से इनके आधार को कुतरने लगे। बाल्मिकी, सोनकर जैसे शहरी कस्बाई दलितों के कुछ हिस्सों में तो भाजपा का पहले से असर था, अब अन्य हिस्सों में भी भाजपा प्रवेश करती गई। बसपा कोई पुनर्विचार या सुधार करने की बजाय बहुजन से एक कदम आगे सर्वजन के नारे के साथ आ गई और 2007 में ब्राह्मणवादी सामंती दबंग पावर ग्रुप्स की मदद से अकेले ही सत्ता में पहुंच गई। जाहिर है दलित हित में कुछ कर पाने में वह और भी पंगु होती गई।

नतीजा यह हुआ कि दलितों पिछड़ों का उससे मोहभंग और अलगाव तेज हो गया। 2012 के चुनाव में 25% से अधिक दलित आबादी वाली 30 सीटों पर बसपा का सफाया हो गया। 2012 के बाद से एक ट्रेंड के बतौर आरक्षित सीटों पर बसपा का मत घटने लगा। उस चुनाव में 4% से कम वोटों की बसपा से सपा की ओर शिफ्टिंग ने उसे भारी अंतर से सत्ता से बाहर कर दिया। इसके बाद बसपा का ढलान शुरू हुआ। दरअसल यह संदेश चला गया कि बसपा की सर्वजन की राजनीति में दलितों के मूलभूत प्रश्नों मान सम्मान सशक्तिकरण रोजी रोटी आरक्षण नौकरी आदि के लिए अब कोई जगह नहीं है।

2013-14 के बाद मोदी के उभार के साथ दलित पिछड़ों का भाजपा से जुड़ाव अपने चरम पर पहुंच गया। बसपा क्रमशः पराभव की ओर बढ़ती गई। 2019 में बेशक भाजपा के विरुद्ध सपा के साथ गठबंधन में लड़ने का उसे भारी लाभ मिला और उसके 10 सांसद जीत गए। दरअसल बसपा की राजनीति के लिए यह फिर turning point हो सकता था। बसपा अगर 2022 में मजबूती से भाजपा के विरुद्ध सपा के साथ मोर्चाबद्ध रहती और 2024 में इण्डिया गठबंधन का हिस्सा बनती तो आज कहानी ही कुछ और होती बसपा के लिए भी, और उससे बढ़कर देश के लिए! लेकिन यह न हो सका, मायावती जी की मजबूरियां चाहे जो रही हों।

-दरअसल दलित मेहनतकश समुदाय भाजपा राज में ग्रामीण दबंगों और राज्य मशीनरी के निशाने पर रहा है। उधर उनकी रोजी रोटी आरक्षण सम्मान सब कुछ दांव पर है। इसलिए दलित समुदाय हर हाल में मोदी योगी राज से मुक्ति चाहता है। बसपा के समर्पण के बाद दलितों के पास विपक्षी गठबंधन की ओर शिफ्टिंग के अलावा रास्ता ही क्या बचा है?आज अपनी स्थापना ( अप्रैल 1984 में ) के 40 साल बाद, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बसपा अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। इस संकट की जड़ें मूलतः उसकी राजनीतिक दिशा में मौजूद है।(

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