ऑस्कर के लिए नामित हुई फिल्म ‘लापता लेडीज’ और कान में ग्रां प्रि पुरस्करार जीतने वाली फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’, दोनों के कलाकारों के चयन में शामिल रहे राम रावत को छोटे शहरों और कस्बों में छिपे हुनरमंद अभिनेताओं की खोज में महारत हासिल है। मुंबई में न रहने वाले देश भर के इन कलाकारों को वह एक छतरी के नीचे लाने के लिए भी प्रयासरत हैं। राम से पंकज शुक्ल की बातचीत।
काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारी परिवार का बालक मुंबई फिल्म नगरी कैसे आ गया?
ये बात साल 2012 की। प्रतीक बब्बर और अमायरा दस्तूर अभिनीत फिल्म ‘इसक’ की शूटिंग बनारस में हो रही थी और एक दिन लस्सी की दुकान पर फिल्म की शूटिंग के लिए मकरंद देशपांडे और फिल्म की कॉस्ट्यूम डिजाइन नम्रता जानी से हमारी भेंट हो गई। दोनों पूजापाठ वाली वेशभूषा की तलाश में थे और हमने उनकी मदद का प्रस्ताव रख दिया। फिल्म में मकरंद जो कपड़े पहने दिखते हैं, वे मेरे परिधान हैं। उसके बाद हम उनकी मदद करते रहे और नम्रता जानी के साथ बाकी काम भी करने लगे।
अच्छा! तो मुंबई आने के बाद मिले कभी मकरंद देशपांडे से?
मैंने संस्कृत माध्यम से स्नातक किया है। शास्त्री की उपाधि हासिल की है मैंने। लेकिन, फिल्मों का ऐसा चस्का लगा कि मैं बिना किसी को बताए वाराणसी से मुंबई चला आया। यहां आकर जब पहली बार मकरंदजी से पृथ्वी थियेटर पर मिला तो वह देखते ही पहचान गए। गले लगाकर बोले, यहां क्यों चले जाए, घर चले जाओ। ये काम बहुत कठिन है। यहां कैसे गुजारा कर पाओगे?
लेकिन, आप डटे रहे?
हां, मैं ये तो तय करके आया था कि फिल्में ही अब मेरा जीवन हैं तो वापसी का तो सवाल ही नहीं। बहुत धक्के खाए। बहुत खराब परिस्थितियों से भी गुजरा लेकिन चूंकि निश्चय पक्का था तो ईश्वर भी मददगार हो गया। कुछ दिनों बाद मैंने घर वालों को और वाराणसी निवासी अपने चाचा को अपने फैसले के बारे में बताया। घर वाले तो बहुत नाराज हुए लेकिन चाचा ओम प्रकाश रावत ने मेरे मन की बात समझी।
चाचा ने वापस नहीं बुलाया कि कहां मुंबई में धक्के खा रहे हो?
वह चार पांच दशकों से वाराणसी के काशी में हैं। विश्वनाथ मंदिर में शिव की पूजा आराधना करते हैं। वही मुझे मेरे पैतृक गांव मध्यप्रदेश में सागर जिले के लालोई से बाहर लेकर आए। उन्होंने ही शिक्षित भी किया और दीक्षित भी। मेरे जीवन को ढालने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।
मुंबई में कोई जान-पहचान थी या बस ऐसे ही तय किया और आ गए?
इसका भी दिलचस्प किस्सा है। मैं ट्रेन से यहां आया और लोकमान्य तिलक टर्मिनस पर उतरा। थकान इतनी थी कि वहां उतरकर जहां सुस्ताने बैठा, वहीं सो गया। वहां किसी ने मेरा फोन चोरी कर लिया। जेब में कुल दो हजार रुपये थे। पीसीओ से लोगों को फोन करना शुरू किया जिनके सहारे मुंबई आया था, उन्होंने फोन ही नहीं उठाया। यहां वहां धक्के खाने के बाद किसी तरह काम शुरू किया। नम्रता जानी से मुलाकात हुई, उन्होंने रहने की जगह दी। काम दिया। फिर अभिनेता अनुपम श्याम ने मेरी काफी मदद की।
लेकिन, सब तो यहां हीरो बनने आते हैं, आप कास्टिंग डायरेक्टर कैसे बन गए?
हां, मैंने मुंबई आने के बाद सबसे ज्यादा भीड़ एक्टिंग के लिए परेशान लोगों की देखी। और, यहीं पता चला कि ये सब कोऑर्डिनेटर और कास्टिंग डायरेक्टर के जरिये ही फिल्मों, वेब सीरीज व टीवी सीरियल में काम पाते हैं। तो बस मैंने इसी ‘मददगार’ वाली भूमिका को चुन लिया। शुरुआत विज्ञापन फिल्मों से हुई। फिर रोमिल मोदी से मिला, और अब तक उन्हीं के साथ हूं। जो कुछ हूं उन्हीं की वजह से हूं।
मुंबई से बाहर होने वाली शूटिंग में मुंबई के बाहर के ही कलाकार लेने का जो चलन शुरू हुआ है, उसके बारे में क्या कहना है आपका?
हां, ये कोरोना काल के बाद का नया प्रयोग है फिल्ममेकिंग में। पहले लोग घरों से भागकर सिनेमा तक आते थे, अब सिनेमा छोटे शहरों के कलाकार तलाशने उन तक पहुंच रहा है। आप यकीन नहीं करेंगे, तकरीबन सारे राज्यों और उन राज्यों के सारे शहरों के अलग अलग व्हाट्सएप ग्रुप इन कलाकारों के बने हुए। फिल्में, सीरीज बनाने वाले इन्हीं कलाकारों को अब सहायक भूमिकाओं में लेते हैं। स्थानीय कलाकारों को इससे काम मिलता है और साथ ही फिल्में, सीरीज बनाने वालों का काफी पैसा भी इससे बचता है।
दर्जनों फिल्में और सैकड़ों विज्ञापन फिल्में करने के बाद आपको क्या लगता है कि इस क्षेत्र में क्या नवाचार किया जाना चाहिए?
ये कास्टिंग निर्देशकों का ही कमाल है कि आज देश ‘लापता लेडीज’ के प्रांजल पटेरिया या ‘पंचायत’ के दुर्गेश कुमार को पहचानता है। नए कलाकारों को काम मांगने से पहले खुद को कैसे तैयार करना चाहिए, इसके बारे में मैं निमित वर्कशॉप लेता हूं। लेकिन, मुझे लगता है कि काम मिलने के बाद इन कलाकारों का जो पैसा बिचौलिये खा जाते हैं, उस खामी को दूर करने की जरूरत है और निर्माता कंपनी से मिलने वाला पैसा सीधे कलाकार के खाते में ही जाए, इसकी शुरूआत का समय आ गया है। अलग अलग शहरों में रहने वाले सहायक कलाकारों को एक ही छतरी के नीचे लाकर इनका एक संगठन खड़ा करने की मेरी इच्छा है।
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