-राजीव खंडेलवाल
मुख्य न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति के पूर्व विवाद! अप्रिय स्थिति!क्यों?
भारत के 50 वें मुख्य न्यायाधीश माननीय डॉ. धनजय यशवंत चंद्रचूड़ का जैसे-जैसे सेवानिवृति का समय (10 नवम्बर) नजदीक आ रहा है, दिन-प्रतिदिन उनके बयानों, कथनों, कार्यो और निर्णयों से खुलासे पर खुलासे व परद-दार-परत जो स्थिति सामने आ रही है, उससे भारत के न्यायिक क्षेत्र से जुड़े समस्त व्यक्ति ही नहीं, बल्कि हर कोई एक सामान्य पढ़े-लिखे व्यक्ति द्वारा भी माननीय को ‘‘जज’’ करने की स्थिति बन रही है। मतलब जहां न्यायालय आरोपियों को ‘‘कटघरे’’ में खड़ा करता है, वहां माननीय न्यायाधीश स्वयं ‘‘जनता की अदालत’’ के कटघरे में आते/लाते दिख रहे हैं। प्रश्न यह है कि देश के इतिहास में शायद ऐसी स्थिति पहली बार बन रही है। ऐसा क्यों? वे ऐसे पहले माननीय मुख्य न्यायाधीश है, जिनके पिताश्री वाय.वी. चंद्रचूड़ भी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं, जिनके 41 वर्ष पूर्व के ‘‘निजता के अधिकार’’ पर निर्णय के विपरीत जाकर अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उसे ‘‘मौलिक अधिकार’’ घोषित कर अपनी निष्पक्षता, निर्भीकता व साहस का भी परिचय दिया है।
*कुछ महत्वपूर्ण निर्णय।
याद कीजिए! जब माननीय डी.वाई. चंद्रचूड़ ने मुख्य न्यायाधीश पद की शपथ ली। तब देश के न्यायिक प्रशासन व क्षेत्र में कई सुधारों की आशा उनके पूर्व के कई न्यायिक निर्णयों, कार्यो व बार-बेंच के प्रति व्यवहार से बनी थी। कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों जैसे ‘‘निजता का अधिकार’’, ‘‘विवाह का अधिकार’’, ‘‘अविवाहित महिलाओं का गर्भपात का अधिकार’’, ‘‘समलैंगिता अपराध नहीं’’, ‘‘टू फिंगर टेस्ट पर प्रतिबंध’’, सीएए, एनआरसी, बुलडोजर न्याय, सबरीमाला, भीमा कोरेगांव मामले इत्यादि से उक्त ‘‘परसेप्शन’’ बना। तथापि कुछ निर्णय ऐसे भी आये, जहां वे सरकार को बचाते हुए भी दिखे। वे तीन प्रमुख निर्णय चंडीगढ़ महापौर का चुनाव, (जहां चुनाव अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई) महाराष्ट्र की शिंदे सरकार को अवैध घोषित करने का निर्णय और चुनावी बांड को अवैध घोषित कर अवैध धन राशि के विरूद्ध कोई कार्रवाई न करने के निर्णयों के साथ कुछ हद तक संविधान की (धारा) अनुच्छेद 370 (2) एवं (3) का खात्मा ऐसे मामले हैं, जिनके अंतिम परिणाम ठीक उसी तरह के हैं, जिस प्रकार किसी भवन निर्माण को सक्षम अथॉरिटी द्वारा समग्र जांच के बाद अवैध निर्माण और अतिक्रमित घोषित किया जाता है, परंतु परिणाम स्वरूप न तो उसे तोड़ा जाता है और न ही सरकार जनहित में अधिग्रहण करती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संबंध में आज ही आया निर्णय को भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। जहां एक तरफ 1967 के उच्चतम न्यायालय के अजीज बाशा के फैसले को पलट दिया। परन्तु वहीं दूसरी तरफ मुख्य मिथ्य वस्तु ‘‘अल्पसंख्यक दर्जे’’ पर निर्णय न देकर तीन सदस्यीय पीठ पर बाद में निर्णय लेने के लिए छोड़ दिया। जस्टिस लोया की मृत्यु की जांच का मामला भी कुछ ऐसा ही है।
*स्थापित आचार संहिता का उल्लंघन?
याद कीजिए! जब भगवान श्री गणेश उत्सव की पारिवारिक पूजा में निमंत्रण पर देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनके घर गये। वहां परिवार के साथ भगवान श्री गणेश की पूजा करते हुए एक वीडियो प्रधानमंत्री के सोशल मीडिया ‘‘एक्स’’ पर हिंदी एवं मराठी भाषा में जारी करने के बाद से ‘‘माननीय’’ मुख्य न्यायाधीश लगातार विवाद के शिकार होते गये। वैसे प्रधानमंत्री द्वारा एक व्यक्तिगत निमंत्रित धार्मिक कार्यक्रम का वीडियो सार्वजनिक करना, बिलकुल गलत था। यदि यह सार्वजनिक नहीं होता तो ‘‘जंगल में मोर नाचा किसने देखा’’, और तब अनावश्यक विवाद पैदा ही नहीं होता। जब मुख्य न्यायाधीश एक प्रश्न के जवाब में यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री की मेरे घर की यात्रा पूर्णतः नितांत निजी आयोजन था, तब फिर इसे ‘‘सार्वजनिक’’ करने के लिए क्या मुख्य न्यायाधीश की सहमति ली गई? तथापि बाद में भी अवसर मिलने के बावजूद भी मुख्य न्यायाधीश ने उक्त वीडियो जारी करने पर कोई आपत्ति नहीं की। तब फिर वह ‘‘शुद्ध निजी आयोजन’’ कैसे हो सकता है? जब वह सोशल प्लेटफार्म ‘‘एक्स’’ के माध्यम से ‘‘विश्वव्यापी’’ हो गया। एक के बाद एक बयान जैसे भगवान श्री राम जन्मभूमि विवाद मामले में उनके बयान ने आलोचना के क्षेत्र को और ‘‘विस्तार’’ दे दिया। यद्यपि इस संबंध में उन्होंने एक प्रश्न के संबंध में स्पष्ट किया कि ‘‘मैं एक आस्थावान व्यक्ति हूं; यह मेरा जीवन मंत्र है’’। इंडियन एक्सप्रेस की ‘‘अड्डा कांफ्रेस’’ में प्रधानमंत्री के साथ गणेश पूजा के संबंध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में देश ‘‘हैरान’’ हो जाता है, जब बकौल माननीय मुख्य न्यायाधीश, “मामले की सच्चाई यह है, जैसा कि मैंने कहा, सौदे इस तरह (ऐसी बातचीत के दौरान) कभी नहीं काटे जाते हैं। तो कृपया, हम पर भरोसा करें, हम सौदे में कटौती करने के लिए नहीं हैं’’। राजनीति में परिपक्वता होनी चाहिए। जजों पर संदेह करना व्यवस्था को बदनाम करना है। माननीय न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के उक्त कथन का एक मतलब देश के नेताओं के साथ न्यायाधीशों का सौदा होता है, यह बात सिद्धांत, स्वीकार करते हुए ‘‘तरीका दूसरा’’ हो सकता है, एक अर्थ यह भी निकलता है। इसी कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब हमेशा सरकार के खिलाफ फैसले देना नहीं है। जमानत के मुद्दे पर उन्होंने ‘‘ए टू जेड’’ (अर्नव टू जूबेर) तक को जमानत देने का हवाला दिया। परन्तु यहाँ ‘‘एस’’ शरजील इमाम व ‘यू’ उमर खालिद का समावेश शायद संभव नहीं था।
*माननीय मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता के परसेप्शन पर दरार।
वास्तव में न्यायपालिका के संबंध में एक स्वीकृत विश्वव्यापी सिद्धांत यह है कि ‘‘न्याय सिर्फ मिलना ही नहीं चाहिए, बल्कि न्याय मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। यह तभी संभव है, जब न्यायाधीश कार्यावधि के दौरान कार्यपालन के संबंध में आचार संहिता का पूर्णतः पालन करे। निश्चित रूप से मुख्य न्यायाधीश के साथ प्रधानमंत्री की ‘‘गणेश पूजा’’ बकौल वकील प्रशांत भूषण ने हैरानी जाहिर करते हुए इसे आचार संहिता का उल्लंघन बतलाया। न्यायपालिका-कार्यपालिका के बीच एक सीमा तक दूरी बरतनी चाहिए। दूसरे, इससे न्याय के उक्त परसेप्शन पर कहीं न कहीं धक्का पहुंचा है। क्योंकि अधिकतर मामलों में केंद्र सरकार जिसके मुखिया प्रधानमंत्री होते है, एक पक्षकार होती है। यदि मुख्य न्यायाधीश अपने सहकर्मी एक-दो जजों या राजनेताओं को अपने साथ उक्त निजी आयोजन में रख लेते तो, ‘‘एकल भेट’’ होने से बनी उक्त शंका निश्चित रूप से नहीं उठती। आज के युग में ‘‘एक्शन’’ से ज्यादा ‘‘परसेप्शन’’ का महत्व होता है। न्यायाधीश निष्पक्ष हैं, कहीं न कहीं एक्शन के साथ इस परसेप्शन पर उक्त कृत्य से कुछ चोट पहुंची है।
*साथी जज द्वारा आलोचना।
अभी हाल में ही निजी संपत्ति के संबंध में आये निर्णय जिसमें 46 वर्ष पुराने 1978 के निर्णय को उलट करने वाले निर्णय में आंशिक रूप से सहमत होने वाले जस्टिस बी.वी. नागरत्ना एवं सुधांशु धूलिया ने इस बात की आलोचना की है कि, उन्होंने 1978 के निर्णय देने वाले जस्टिस कृष्णा अय्यर पर अनावश्यक टिप्पणी की। देश के इतिहास में ऐसा पहली बार ऐसा हुआ था, जब जनवरी 2018 में चार वरिष्ठ जजों जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन भीमराव लोकुर और कुरियन जोसेफ ने (जिनमें से बाद में रंजन गोगोई मुख्य न्यायाधीश बने) मुख्य न्यायाधीश से कुछ अनियमितताओं पर बात करने के बाद संयुक्त पत्र लिखने के बाद कोई आशाजनक परिणाम न आने पर ‘‘लोकतंत्र को बचाने के नाम’’ पर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश के कार्य पद्धति की आलोचना की थी। वर्तमान समय में जब देश की अनेक संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता व संप्रभुता तथा संवैधानिक मूल्यों पर आंच आ रही हो, जैसे चुनाव आयोग, नियंत्रक और महालेखा कार, तब इन आंचों पर रोक लगाने वाला तंत्र उच्चतम न्यायालय ही इस आंच से झुलसने लग जाये, तो इस देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं का क्या होगा? यह एक बड़ा प्रश्न है? जिस पर इस क्षेत्र से जुड़े समस्त बुद्धिजीवियों को गहनता से विचार करना होगा।
*इतिहास कैसे याद रखेगा? माननीय मुख्य न्यायाधीश की चिंता।
माननीय मुख्य न्यायाधीश की यह चिंता जायज है कि इतिहास उन्हें कैसे याद रखेगा? क्योंकि व्यक्ति जब अपने कार्यों का सिंहावलोकन करता है, तब उसका अपने किये गए कार्यों के गुण-दोषों पर ध्यान जाता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए माननीय चंद्रचूड़ के कुछ प्रशासनिक निणयों पर भी ध्यान डालिये! ब्रिटिश इंडिया जमाने की ‘‘न्याय की देवी की मूर्ति’’ में बदलाव, ‘‘संग्रहालय’’ के निर्माण का निर्णय (जिसके बहिष्कार करने का निर्णय उच्चतम न्यायालय बार संघ ने लिया) ग्रीष्मावकाश का नाम बदलकर ‘‘आंशिक न्यायालय का कार्य दिवस’’ व ‘‘अवकाश जज’’ को ‘‘जज’’, जजों के बैठने की ‘‘कुर्सी’’ बदली, ऐसे ही कुछ निर्णयों के द्वारा शायद ‘‘माननीय’’ स्वयं को इतिहास में दर्ज कराना चाहते हैं, जिसका मूल्यांकन भविष्य ही करेगा। कोर्ट पास, ‘‘ई-फाइलिंग’’ में सुधार, ‘‘लाइवस्ट्रीमिंग’’, डिजीटलीकरण, ‘‘पेपर लेस सबमिशन’’, ‘‘ए आई’’का प्रयोग जैसे कुछ तकनीकि सुधार की ओर कदम बढ़ाया। वरिष्ठ वकील एवं सर्वोच्च न्यायालय बार संघ के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे की ‘नजर’ में तो मुख्य न्यायाधीश की विरासत को ‘‘नजर अंदाज’’ करना ही उचित है।
अंतिम कार्य दिवस पर भी 45 केस सुने। इस अवसर पर आने वाले सुनहरे भविष्य के लिए माननीय को शुभकामनाएं।
(लेखक, कर सलाहकार एवं पूर्व बैतूल सुधार न्यास अध्यक्ष हैं)
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