अग्नि आलोक
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ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ की शास्त्रीय पड़ताल

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 डॉ. विकास मानव 

दुर्जनाः शिल्पिनो दासा दुष्टाश्च पटहाः स्त्रियः।

ताड़िता मार्दवं यान्ति न ते सत्कारभाजनम्॥३१॥

      नद्यश्च नार्यश्च समस्वभावाः

स्वतन्त्रभावे गमनादिके च।

तोयैश्च दोषैश्च निपातयन्ति

नद्यो हि कूलानि कुलानि नार्यः॥३८॥

नदी पातयते कूलं नारी पातयते कुलम्।

नारीणाञ्च नदीनाञ्च स्वच्छन्दा ललिता गतिः॥३९॥

(गरुड़पुराण आचारकाण्ड अध्याय १०९)

      जो शिल्पी और दास दुर्जन हैं, ढोल आदि वाद्ययन्त्र हैं और दुष्टा स्त्रियाँ हैं, ये ताड़ना से मृदुता को प्राप्त करते हैं, अतः ये सत्कार के अधिकारी नहीं हैं।

     यदि बिल्कुल स्वतन्त्र छोड़ दिया जाये तो गमन के सन्दर्भ में नदी और नारी का स्वभाव एक ही होता है।

        अनियन्त्रित स्वभाव वाली नदी अपने जल से किनारों को डुबा देती है तो अनियन्त्रित स्त्री अपने दोषों से कुल को डुबा देती है।

■ 

शास्यं शासनार्थं ताड़येत्॥८१॥

तं वेणुदलेन रज्ज्वा वा पृष्ठे॥८२॥

   (बृहद्विष्णुस्मृति अध्याय ७१)

     जो शासन करने योग्य हैं (आपके अधीनस्थ लोग), उनपर शासन करने हेतु उनकी ताड़ना करें। कैसे करें? पीठ पर बांस की छड़ी अथवा रस्सी से ताड़ित करें।

■ 

कर्मारम्भं तु यः कृत्वा सिद्धं नैव तु कारयेत्।

बलात्कारयितव्योऽसौ अकुर्वन्दण्डमर्हति॥६५७॥

ताड़नं बन्धनञ्चैव तथैव च विडम्बनम्।

एष दण्डो हि दासस्य नार्थदण्डो विधीयते॥९६३॥

       (बृहत्कात्यायनस्मृति)

   जो कारीगर एक बार कार्य प्रारम्भ करके उसे बिना पूरा किए छोड़ देता है, उससे वह कार्य बलपूर्वक पूरा करवाना चाहिए, न करने पर उसे दण्डित करना चाहिए।

     उसे ताड़ित करे अर्थात् मारे, बन्धन में अर्थात् कैद में डाल दे, उसे व्याकुल कर दे। दासों का यही सब दण्ड बताया गया है, उसके लिए अर्थदण्ड नहीं है।

    इस प्रकार सिद्ध होता है कि “ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारीII” में नारी का अर्थ स्त्री एवं ताड़ना का अर्थ मारना ही है.

    यह मर्यादा की रक्षा हेतु केवल दुष्ट आचरण करने वालों के सन्दर्भ में है. यह धर्म के लिए नितान्त आवश्यक है।

       इस चौपाई में सामान्य और सरल शासनधर्म का उपदेश है. इसकी अनावश्यक रूप से अनर्थकारिणी व्याख्या मूल शास्त्रीय आलोक को नष्ट करती है।

    सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है उस कर्म को शिल्प कहते हैं । ( उणादि० पाद०३, सू०२८ ).

       किंतु विशेष रूप निम्नवत है :

  १- जो प्रतिरूप है उसको शिल्प कहते हैं “यद् वै प्रतिरुपं तच्छिल्पम” 

    (शतपथ०- का०२/१/१५ ) 

२- अपने आप को शुद्ध करने वाले कर्म को शिल्प कहते हैं.

    (क)”आत्मा संस्कृतिर्वै शिल्पानि:” (गोपथ०-उ०/६/७)

(ख) “आत्मा संस्कृतिर्वी शिल्पानि:” (ऐतरेय०-६/२७) 

३- देवताओं के चातुर्य को शिल्प कहकर सीखने का निर्देश है.

 (यजुर्वेद ४ / ९, म० भा० )

 ४- शिल्प शब्द रूप तथा कर्म दोनों अर्थों में आया है –

(क)”कर्मनामसु च” (निघन्टु २ / १ )

(ख) शिल्पमिति रुप नाम सुपठितम्” (निरुक्त ३/७)

५ – शिल्प विद्या आजीविका का मुख्य साधन है। 

(मनुस्मृति १/६०, २/२४, व महाभारत १/६६/३३ )

६- शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म कहा गया है।

(वाल्मि०रा०, १/१३/१६, व संस्कार विधि, स्वा० द० सरस्वती व स्कंद म०पु० नागर६/१३-१४ )

   यजुर्वेद त्रिंशोऽध्याय ( अध्याय ३०) के मंत्र ६ में शिल्पी को बुद्धिमता पूर्ण कार्य करने वाला कहा है व अगले मंत्र में कुशलता के लिए कारीगर शब्द कहा है।

    यजुर्वेद के अध्याय २९ के मंत्र 58 के ऋषि जमदाग्नि है इसमे बार्हस्पत्य शिल्पो वैश्वदेव लिखा है। वैश्वदेव में सभी देव समाहित है।

      वैदिक साहित्य संस्कृत में था तो इन्होंने संस्कृत भाषा को भी अवरुद्ध कर दिया ताकि लोग वेदों को ना पढ़ सके और सत्य से दूर रहे।

      इसी क्रम में मनु स्मृति में में जाति व्यवस्था के अनुसार श्लोक बना कर ठूस दिए। इसका परिणाम ये हुआ कि लोग अपने पूर्वज मनु से व उनकी नायाब रचना मनु स्मृति से भी नफरत करने लगे। पुराणों व प्रक्षेपित मनु स्मृति ने जातिवाद व अवतार वाद को खूब बढ़ावा दिया।

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