~ डॉ. विकास मानव
यह राम (किसी राजा दसरथ का पूत नहीं) सीतापति है। सीता (घड़े मेँ मिली किन्ही की फेकी गई संतान नहीं) कहते हैं, त्रिगुणात्मक प्रकृति को.
कैसे ?
सि धातु (स्वादि क्रयादि, उभ. सिनोति, सिनुते, सिनाति, सिनीते) का अर्थ है- बाँधना / जकड़ना / फँसाना/उलझाना/कसना।
सि + त पृषो. दीर्घः = सीता जो अपने गुणों द्वारा जीव को बांधती है, जकड़ती है, फँसाती है, उलझाती है, कसती है; उसे सीता कहते हैं।
अतः सीता = प्रकृति। गुणों के बन्धन से छूटने के लिये प्रकृति को उपासना करनी चाहिये।
वेद का कथन है :
सीते वन्दामहे त्वार्वाची सुभगे भव।
यथा नः सुमनाअसोयथा नः सुफला भुवः॥
~अथर्ववेद (३ /१८/८)
अन्वय :
सुभगे सीते त्वा (त्वाम्) वन्दामहे। अर्वाची भव। यथा नः सुमनाः असः यथा नः सुफलाः भुवः।
मूल प्रकृति को सुभगा कहते हैं। यह शब्द प्रकृति/ सीता का विशेषण है। भज् धातु विभक्त करना/बॉटना/ अनेकों भाग करना अर्थ वाली है। भजू घ भग जिससे अनेक रूपों की उत्पत्ति होती है, उसे भग कहते हैं।
सृष्टि कारक सूर्य को भग कहते हैं। स्त्री की योनि से अनेक सन्तान जन्मती हैं। इसलिये भग नाम योनि का भी हुआ। प्रकृति द्वारा पंचभूतों की सृष्टि और उससे नाना रूपाकारों वाले चराचर की उत्पत्ति होती है।
इसलिये प्रकृति भगवती/भगा (भग + टाप) है सु प्राचुर्य बोधक सौन्दर्य बोधक अव्यय है। अतः सुभगा का अर्थ हुआ- विशालयोनिवाली / सुन्दर भगवाली ८४ लाख योनियों की जन्मदात्री होने से यह सुभगा है। यह स्वयं योनि स्वरूप है।
प्रकृति एक है। एक से अनेक रूपों में यह विकृत हो कर अपने को अभिव्यक्त करती है। एक के अनेक भाग करके यह नानाविध संसार रचती है। इसकी उत्पादन क्षमता का हास नहीं होता। इसकी योनि वा इसका भग नित्यनवीन एवं अमित है।
इसलिये इसे सुभगा कहते हैं। सुभगे, सीते दोनों पद सम्बोधन एक वचन स्त्रीलिंग है। सुभगे सीवे सामर्थ्ययुक्ते प्रकृति। भ्वादि. आत्मने वन्द धातु वन्दते से वन्दामहे पद बना है। प्रणाम करना सादर नमस्कार = अमित करना, स्तुति प्रशंसा करना, पूजा आदर करना अर्थ में इसका प्रयोग होता है।
लट् लकार उ. पु. बहुवचन का रूप है- वन्दामहे। त्वा वन्दामहे = त्वाम् स्तुमहे । अर्वाच् विशेषण शब्द है। अभिमुख होने वाला/प्रत्यक्ष होने वाला सामने / उपस्थित होने वाला, अर्वाच् कहलाता है।
अर्वाची का अर्थ है, प्रत्यक्ष अर्वाची भव प्रत्यक्ष एधि [भव = भू लोट् म. पु. ए.व.] सुमनाः सुमनस् युक्तः (निर्मलमन वाला)। सुफला: = सुफलवान् (पुरुषार्थ युक्त)। फल चार ही हैं धर्म अर्थ काम मोक्ष।
एक-एक कर/क्रमशः इनका आस्वादन करना ही मानव का उद्देश्य है। जिसने इन चारों को प्राप्त कर लिया उसका जीवन सफल है।
न =अस्माकम् सप्तमी ब. व. (हम में हमारे भीतर)।
यथा= समुचित ढंग से / भलीभांति/पूर्णतः।
अस (असू धातु) = भुवः (भू धातु) = हो, सत्तामयता विद्यमानता अर्थ में यह आप प्रयोग है।
यथा नः सुमनाः असः= हम पूरी तरह निर्मल मनवाले हो।
यथा नः सुफलाः भुवः =हम सम्पूर्ण फलों (धर्म अर्थ काम मोक्ष) से भलीभांति युक्त हो/ को प्राप्त.
मन्त्रार्थ :
हे सामर्थ्यशालिनी अमितशक्तिमती प्रकृते! मैं तेरी स्तुति करता हूँ. तेरे सम्मुख नत हूँ. तू मेरे सम्मुख प्रकट हो. अपने स्वरूप से मुझे अवगत करा. हमारे मन के विकारों को पूरी तरह दूर कर उसे अमल कर दे। मैं सुमना होऊ. मुझे धर्मार्थकाममोक्ष की प्राप्ति करा कर मेरा जीवन सुफल/सफल कर।
घृतेन सीता मधुना समक्ता विश्वैर्देवैरनुमता मरुद्भिः।
सा नः सीते पयसाभ्याववृत्स्वोर्जस्वती घृतवत् पिन्वमाना॥
~अथर्ववेद (३ । १८ । ९)
यह बड़ा गूढ़ मंत्र है। इसमें प्रकृति देवी से प्रार्थना की गई है।
मन्त्रान्वय- घृतेन मधुना पयसा समक्ता,
विश्वैः देवैः मरुद्भिः अनुमता,
ऊर्जस्वती पिन्वमाना (च) सा सीता।
घृतवत् सीते ! नः आववृत्स्व।
इस मंत्र में पहले प्रकृति के स्वरूप का का वर्णन किया गया है। पश्चात् उससे निवेदन किया गया.
घृत=घृ+क्त। घी, जल, सार। तृतीया एक. व. घृतेन. मधु=मन्+उ नस्य धः। शहद, जल, सुरा तृतीया एकव. मधुना।
पयस्= पय् + असुन्। पानी, दुग्ध, वीर्य तृतीया एक वचन पयसा.
समक्ता = सम् उपसर्ग + अ धातु (वक्रगती भ्यादि पर अकति) + क्त टाप् = सनी हुई, अभिषित, निमज्जित, गुँथी हुई, संयुक्त.
यहाँ घृत सत्वगुण है, मधु तमोगुण है, पयस् रजोगुण है।
इस प्रकार घृतेन मधुना पयसा समक्ता का अर्थ हुआ-सत्वेन तमसा रजसा समक्ता अर्थात् सत् रज तम से संयुक्त/ संप्रथित मूल प्रकृति।
विश्वेः देवैः मरुदभिः = सर्वव्यापी देव प्राण (चितत्व) द्वारा.
अनुमता= स्वीकृता, मान्या, आदरणीया, पूज्या।
यहाँ विश्वैः = देवेः = मरुदिभः तृतीया बहुवचन ये सभी चिद्वाचक हैं। चिद् शक्ति के तीन नाम हैं-विश्व, देव तथा मरुत् । यह शक्ति एक से अनेक है, अदृश्य प्रत्यक्ष नहीं) है। यह तीनों दिशाओं में है। प्रथम दिशा- विश्व है। द्वितीय दिशा देव है। तृतीय दिशा-मरुत् है।
त्रिककुब् धाम है। यह प्रकृति त्रिककुब्धाम द्वारा पूजा है। यही विश्वे देवे: मरुदिन अनुमता’ का तात्पर्य है।
ऊर्जस्वती ऊर्ज+ असुन मतुप् + डीप् = शक्तिशालिनी, सामर्थ्ययुक्ता, बलान्विता।
पिवमाना= पिन्व् (ध्वादि पर + पिन्वति आकार दाने सर्जने) + मतुप् + टाप् = अनेकानेक आकार देती हुई, विपुल सर्जन करती हुई।
सा सीता= वह प्रकृति सा सिनोति पुरुषम्। अतएव सा सौता किन्तु वह बाँधती है, किससे ? गुणों से गुण के अनेक अर्थ हैं। यथा- धर्म, प्रभाव, रस्सी, डोरी, धागा, सूत्र सत् रज तम ये तीन सूत्र हैं। इन्हीं से वह पुरुष को बाँधती है।
‘ऊर्जस्वती पिन्वमाना सा सीता’ का अर्थ हुआ वह मूला प्रकृति अत्यन्त शक्तिशाली है। वह प्रतिपल सृष्टि कर्म में लगी हुई अनेक प्रकार की योनियों का प्रदुर्भाव करती है। इस प्रकार वह सारे संसार को जन्म मृत्यु के सूत्र में बाँधती हुई, सीता है।
आववृत्स्व= आ + अव+ वृत् (दिवादि आत्मनेपदी लोट् मध्यमपुरुष एक वचन) + तिङ् स्व= आ + अब + वृत्स्व = मुक्त करो/मोक्ष दो/हमें स्वरूप से अवगत कराओ।
घृतवत् सीते!= सार रूप केवल एक, हे प्रकृति देवि सीते। घृतवत् का अर्थ सुगन्धित है।
नः = अस्मभ्यम् चतुर्थी बहुवचन। “हम लोगों के लिये, हमें।
सम्पूर्णमंत्र का तात्पर्य हुआ :
तीनों गुणों, सत् रज तम से लसित; त्रिदेवों, आदित्यगणों साध्यगणों रुद्रगणों द्वारा पूजित: अमितशक्ति से सम्पन्न, निरन्तर/ संतत परिवर्तनशील वह त्रिगुणात्मिका प्रधान प्रकृति है। हे सार रूप देवि ! मुझे / हम सब के लिये अपना बन्धन हटा ले। हमें मोक्ष दो।
वेद के उक्त मंत्रों में जिस सीता तत्व का वर्णन हुआ है, उस सीता तत्व का प्रतिपादन भगवान् कपिल ने अपने सांख्य शास्त्र में किया है। इसको जानना ही ज्ञान है। प्रकृति ज्ञेय है। पुरुष अज्ञेय है। यह जो राम तत्व है, त्रिदेवात्मक है। यह प्रकृति से परे है।
इसलिये मन-बुद्धि से अगोचर है। त्रिदेवात्मक राम एवं त्रिगुणात्मक सीता का विवेचन महर्षि बाल्मीकि ने सफलतापूर्वक किया है।
सीता प्रधान है। सीता द्वारा सभी बद्ध हैं। बन्धन से मुक्ति चाहने वाला सीता की स्तुति करता है, शक्ति की उपासना करता है। यह एक रहस्य है कि राम कहने मात्र से सीता जापक को मुक्त कर देती है।
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