अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

कॉमरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य का जाना, जैसे हो गया मन का एक कोना सूना!*

Share

*(टिप्पणी : संजय पराते)*

मन के इतिहास का एक कोना खाली हो गया और कविता की किताब का एक पन्ना फट गया। कॉमरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य का आज सुबह इस दुनिया को अलविदा कहना कुछ इसी तरह की बात है। उनका जाना केवल वामपंथ और माकपा के लिए ही क्षति नहीं है, उन सबके लिए क्षति है, जो मार्क्सबाद, सिनेमा और साहित्य को मानव सभ्यता की धरोहर समझते है और इसकी रोशनी से आलोकित होते हुए एक बेहतर और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के निर्माण की लड़ाई लड़ रहे हैं। जो विज्ञान को थोड़ा-बहुत समझते-बूझते हैं, वे जानते हैं कि जैसे ज्ञान-विज्ञान का कोई अंत नहीं है, वैसे ही मानव सभ्यता को गढ़ने और उसे और बेहतर बनाने का संघर्ष भी अंतहीन है। बुद्धदेव भट्टाचार्य का पांच दशकों तक फैला सार्वजनिक जीवन इसी संघर्ष का हिस्सा था। एक साधारण शिक्षक से मेहनतकश वर्ग के असाधारण राजनेता के रूप में उनका विकास हुआ, जिसमें उन्होंने चकाचौंध की जगह शीतल रोशनी ही बिखेरी थी। वे एक दीया थे, जिसका टिमटिमाते हुए लुप्त होना अनिवार्य था। अपनी पार्थिव देह को त्यागकर वे एक अनंत यात्रा पर आज सुबह चले गए।

बंगाल के सुप्रसिद्ध कवि, जिनका अल्प वय में ही निधन हो गया था, सुकांत भट्टाचार्य के वे चाचा थे। उनके दादा पुरोहिती से जुड़े थे और पिता प्रकाशन व्यवसाय से। इसलिए यह कहा जा सकता है कि वे साहित्य के समृद्ध विरासत से जुड़े थे। इसी विरासत ने उन्हें सिनेमा जैसी उस समय की आधुनिक विधा की और आकर्षित किया। बंगाली में वर्ष 2018 में “द राइज एंड फॉल ऑफ नाज़ी जर्मनी” तथा 2019 में “कैओस अंडर हेवन” जैसी किताबों का प्रकाशन करवाकर उन्होंने इसी समृद्ध परंपरा को आगे बढ़ाया था।

क्या कोई सोच सकता है कि आज की चकाचौंध भरी कॉरपोरेटी राजनीति में कोई ऐसा भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी होगा, जो एक सामान्य मनुष्य की तरह दो कमरों के फ्लैट में गुजारा कर रहा होगा? यदि कोई ऐसा था, तो वे बुद्धदेव भट्टाचार्य थे। यदि वे ऐसा कर सके, तो केवल इसलिए कि वे अपने जीवन को मेहनतकशों के जीवन का ही हिस्सा मानते थे, मेहनतकशों की जीवन संस्कृति ही उनकी संस्कृति थी।

आज जब व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए पुरस्कारों की चाहत इतनी तेज हो गई है कि इसे खरीदने और अपने मान-सम्मान को गिरवी रखने की होड़ लगी हो, क्या कोई सोच सकता है कि कोई ऐसा भूतपूर्व मुख्यमंत्री भी होगा, जो पद्मभूषण सम्मान लेने से इंकार कर दें? हां, यदि कोई ऐसा था, तो वे बुद्धदेव भट्टाचार्य थे। उन्होंने बताया कि किस तरह पुरस्कारों को ठुकराकर भी संघी गिरोह की जन विरोधी राजनीति को चुनौती दी जा सकती है। यदि वे ऐसा कर सके, तो केवल इसलिए कि वे अपने गुरु ज्योति बसु के सच्चे शिष्य और उत्तराधिकारी थे और उन्होंने भी पार्टी के निर्णय का पालन करते हुए तब प्रधानमंत्री बनने के विपक्ष के सर्वसम्मत अनुरोध को ठुकरा दिया था। यह अलग बात है कि आज भी राजनीति के कई खिलाड़ियों का सुचिंतित मत है कि उस समय यदि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बन गए होते, तो आज राजनीति की दिशा कुछ और होती और संघी गिरोह को एक बड़ी ताकत के रूप में उभरने का मौका नहीं मिलता।

पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार, जिसका नेतृत्व माकपा कर रही थी, पूरी दुनिया में सबसे लंबे समय तक चुनावों के जरिए लगातार निर्वाचित होने वाली एकमात्र कम्युनिस्ट सरकार थी, जिसका कार्यकाल 1977 से 2011 तक फैला हुआ था। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने इन सरकारों में कैबिनेट मंत्री के रूप में गृह और पर्वतीय मामलों के मंत्रालय, सूचना और संस्कृति और शहर विकास और नगरीय मामलों के मंत्रालय आदि का सफल नेतृत्व करते हुए 1999-2000 के बीच उप मुख्यमंत्री के दायित्व का पालन किया। वर्ष 2001 और 2006 में माकपा ने उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़कर वाम मोर्चा की सरकार गठित की।

बुद्धदेव भट्टाचार्य के सामने आगे की चुनौती आसान नहीं थी, और यह चुनौती थी — ज्योति बसु के शासन काल में भूमि सुधार के कदमों के जरिए और कृषि के क्षेत्र में अकल्पनीय उपलब्धियों के सहारे आम जनता की क्रय शक्ति में जो वृद्धि हुई थी, आम जनता के अंदर और बेहतर जीवन जीने की जो आकांक्षा पैदा हुई थी, उसे पूरा करना। इसके लिए अब पश्चिम बंगाल का औद्योगीकरण अनिवार्य था। एक कृषि समाज से औद्योगिक समाज में बंगाल को ढालने की चुनौती उनके सामने थी। यह चुनौती उन्होंने स्वीकार की। उनके कार्यकाल में ही राज्य में औद्योगिक विकास और आईटी सेवाओं को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियां बनाईं गई। 2001 से 2005 तक राज्य में आईटी उद्योग में 70 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। राज्य के औद्योगिक जगत में अभूतपूर्व निजी निवेश हुआ।

लेकिन बंगाल के औद्योगिक पुनरुत्थान का जो सपना बुद्धदेव ने देखा था, वह भूमि अधिग्रहण के बिना पूरा नहीं हो सकता था। यह एक कठिन प्रक्रिया थी, क्योंकि भूमि सुधार के बाद कृषि जगत में जो विकास हुआ था, उसके कारण बंगाल में बंजर और एक-फसली जमीन बहुत कम थी। बुद्धदेव यही चूक गए। सिंगुर में तब के सबसे बेहतरीन अधिग्रहण पैकेज को ग्रामीणों ने स्वीकार नहीं किया और नंदीग्राम में रसायन उद्योग की स्थापना के प्रस्ताव से ग्रामीणों में असंतोष और भड़का। विपक्षी तृणमूल ने इस आग में भरपूर घी डालने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। बुद्धदेव की लोकतांत्रिक उदारता के कारण इस भूमि अधिग्रहण के खिलाफ तृणमूल प्रायोजित आंदोलन और तेज हुआ और जन मानस वामपंथ के खिलाफ हुआ और वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में वामपंथ को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।

पश्चिम बंगाल में अपनी महत्वपूर्ण राजनैतिक भूमिका के कारण वे माकपा के शीर्ष निकाय, पोलित ब्यूरो के सदस्य भी चुने गए थे। वे कुछ वर्षों से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज से पीड़ित थे और वर्ष 2015 से लगभग राजनैतिक संन्यासी का जीवन जी रहे थे। लेकिन मार्क्सवाद और माकपा से उनका जुड़ाव आज अंतिम सांस तक बना रहा। कल उनकी इच्छानुसार, उनका देहदान कर दिया जाएगा और उनके शरीर के उपयोगी अंगों का जरूरतमंदों को ट्रांसप्लांट किया जाएगा। कोई व्यक्ति अपनी मृत देह का इससे बेहतर उपयोग और क्या कर सकता है! 

उनके निधन पर इंडिया समूह और एनडीए के नेताओं ने और पक्ष-विपक्ष के अन्य  राजनेताओं ने जो भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की है, वह राजनैतिक मतभेदों से ऊपर उठकर न केवल उनकी स्वीकार्यता को बताता है, बल्कि इस कठिन समय में मार्क्सवाद और वामपंथ की प्रासंगिकता और उसकी चमक-धमक को भी दर्शाता है। 

कॉमरेड बुद्धदेव भट्टाचार्य को लाल सलाम!

*(लेखक छत्तीसगढ़ माकपा के पूर्व सचिव हैं। संपर्क : 94242-31650)*

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें