अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

राजस्थान में कांग्रेस सरकार ने कैबिनेट बदली, क्या पार्टी के लिए भी कुछ बदला

Share

त्रिभुवन


राजस्थान में तीन साल से कांग्रेस सत्ता में है। इस बीच, पार्टी में जबर्दस्त खेमेबंदी दिखी है। एक खेमा दूसरे पर हावी होने के पैंतरे आजमाता आया है। ताजा मंत्रिमंडल विस्तार को इसी से जोड़कर देखा जाना चाहिए। आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि मंत्रिमंडल विस्तार से एक दिन पहले तक पार्टी के प्रदेश कार्यालय के बाहर मुख्यमंत्री का कोई पोस्टर या बैनर तक नहीं था। यह तब है, जब संगठन का नेतृत्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत खेमे के ही पास है। खैर, पोस्टर-बैनर भले न लगा हो, लेकिन यहां कोई चेहरा है तो मुख्यमंत्री का ही है।

तकदीर का खेल
प्रदेश से बाहर पार्टी के युवा चेहरे सचिन पायलट का एक आकर्षण है। माना जा रहा है कि ताजा मंत्रिमंडल विस्तार उनकी वजह से ही हुआ है और यह उनकी कामयाबी है। यह सही भी है और नहीं भी। उनके विद्रोह से पहले के हिसाब से देखें तो उन्होंने काफी कुछ खोया है। लेकिन जिस तरह का कदम उन्होंने उठाया था, उसे देखते हुए वह खुद को संभालने में कामयाब रहे। इसे भी पायलट की उपलब्धि मान सकते हैं। तीन साल पहले उनके हाथों में दूध का कटोरा था। पार्टी को राज्य की 200 में से 100 सीटों पर जीत मिली थी। पायलट उस जीत के हीरो थे। उनके राजनीतिक कौशल का गुण गाने वालों की कमी न थी।

तब रेगिस्तानी सरजमीं पर जो खूबसूरत फूल अभी खिले नहीं थे, वे खुशबू का हिसाब करने लगे थे। इस प्रदेश में अगेती और पछेती फसलें तो होती हैं, लेकिन जल्दबाजी में बोई गई फसलें लहलहा नहीं पातीं। सियासी सपनों की लहर का हाल भी कुछ ऐसा ही है। ताजा मंत्रिमंडल विस्तार की कहानी काफी कुछ पायलट और गहलोत के अप्रिय रिश्तों से जुड़ी है। आप परिदृश्य देखेंगे तो एक समूह पायलट को इस विस्तार के बाद विजेता की तरह प्रस्तुत कर रहा है। दूसरा कह रहा है कि गहलोत ही सब कुछ हैं। इस सरकार के बनने से पहले हवाओं में यही था कि पायलट को मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। लेकिन गहलोत ने बाजी उलट दी। तो यह मंत्रिमंडल विस्तार भी बदन झुलसा देने वाली राजस्थानी लू की कहानी को अपने में समेटे है। यहां बहुत नेता आए हैं, जिन्हें रेत में सोना नजर आया, लेकिन उनकी जमीन इनकार के नशे में गुम हो गई।

राजस्थान में आठ साल पहले पायलट को इस अभियान के तहत कमान सौंप कर भेजा गया था कि वह प्रदेश को एक नया नेतृत्व देंगे। उस समय हाईकमान और अशोक गहलोत के रिश्ते बिलकुल अच्छे नहीं थे। यह वह दौर था, जब अभी के विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी पार्टी नेताओं के लिए जलन की वजह बने हुए थे और गहलोत आंख की किरकिरी। इसकी वजह भी थी। उस समय उनकी सरकार बीजेपी के हाथों बुरी तरह से हारी। 200 सीटों में से कांग्रेस को मिलीं महज 21 सीटें।

उस हार के बाद सचिन पायलट के दिन बदले। उनके सिर से सहसा हुमा पक्षी उड़कर निकल गया था यानी आगे चलकर उनके लिए सत्तासीन होने में कोई शकोशुबह न था। पुराने समय में बादशाहत का भी यही शगुन माना जाता था। इतना ही नहीं, यह परिंदा उनके लश्कर के आगे आवाजें लगाता हुआ चल रहा था। पांच साल बीते। चुनाव हुए। नतीजे आए, लेकिन पायलट मुख्यमंत्री नहीं बन पाए। उनके लिए तब वह शहर जला हुआ सा मिला, जहां उन्हें सत्तासीन होना था।

नए मंत्रिमंडल विस्तार को समझने के लिए राजस्थान की सियासी इबारतों को पढ़ने से पहले कुछ चीजों को देखना-समझना जरूरी है। सार इतना सा है कि एक नया चेहरा लगातार वाचाल रहा और खुले में खेलता रहा। सियासत के पुराने खिलाड़ी चुप रहे और उनकी सियासत ने भी होंठ सिए रखे। इसका नतीजा यह निकला कि प्रदेश की सियासत का न पैरहन बदला और न लिबास। सरकार बदली, लेकिन मंजर वही रहा। आज हालात ऐसे हैं कि पायलट न उपमुख्यमंत्री हैं और न प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष। लेकिन उनके साथ उम्र है और अभी वह महज 44 साल के हैं। वह राहुल गांधी से सात साल छोटे हैं और अशोक गहलोत से 26 साल। यह बहुत बड़ी बात है। उम्र के इसी आंकड़े में उनके भविष्य की संभावनाएं छिपी और सिमटी हैं।

राजनीति के खिलाड़ी
अशोक गहलोत पॉलिटिकल एम्ब्रॉइडरी में निष्णात हैं। वह सर्द शाम में ठिठुरते हुए लू लगने का बोध करवा सकते हैं और बदन झुलसाती लू के बारे में एहसास करवा सकते हैं कि शीतलहर कैसे कंपा रही है। वह हाईकमान की इच्छाओं का बहुत खयाल रखते हैं और प्रतिद्वंद्वियों को अपने से दोयम दर्जे के नेताओं से तू तू मैं मैं में उलझाए रखते हैं। लेकिन इस बार पहला मौका था, जब पायलट के कारण तनाव में उनसे भाषा संबंधी मर्यादा टूटी और संयम जवाब दे गया। इन परिस्थितियों के बाद अब हुए मंत्रिमंडल विस्तार में दोनों खेमे प्रसन्न हैं, लेकिन एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि जहां आजादी के बाद कांग्रेस के शुरुआती चार मंत्रिमंडलों में एक भी एससी-एसटी या महिला प्रतिनिधि नहीं था, वहीं इस बार पांच एसटी, चार एससी और तीन महिला मंत्री हैं।

यह पहला मौका है जब अगड़ी जातियों के नेताओं को मिलने वाले विभाग एसटी-एससी और महिलाओं को मिले हैं। उद्योग विभाग की कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि यह एक गुर्जर महिला और चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदिवासी को जाएगा। लेकिन कांग्रेस अपने लिए बेहतर भविष्य तलाश करना चाहती है तो उसे अपने वर्तमान और भविष्य के बीच संतुलन और सहजता कायम करनी होगी। वह इन दोनों को आपस में लड़ते रहने देगी तो कहीं की नहीं रहेगी। कांग्रेस नेतृत्व के लिए जरूरी है कि वह अपने बेचैन और जल्दबाज युवाओं की धड़कनों को भी सुने और उन्हें संयमित रखे।

(लेखक हरिदेव जोशी विश्वविद्यालय में एडजंक्ट प्रोफेसर हैं)

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें