प्रफुल्ल कोलख्यान
यह सच है कि भिन्न-भिन्न कारणों भारत के आम लोगों को बजट का इंतजार था। एक बड़ा कारण तो यह था कि इस समय नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार संवेदनशील अ-स्थिरता के दौर में है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों में संख्यात्मक अ-संतुलन है। सरकार अपने अस्तित्व के लिए तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के समर्थन पर निर्भर है। इतना होता तो भी कोई बात नहीं थी। गठबंधन की सरकार का अनुभव भारत के लोगों को है। बिना किसी हिचक के यह भी कहा जा सकता है कि गठबंधन की सरकार का अनुभव बहुत बुरा नहीं रहा है। यह ठीक है कि गठबंधन की राजनीति की अपनी सीमाएं होती है। इन सीमाओं में रहते हुए भी सरकारें काम करती रही है।
अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार और डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लगातार दस तक चली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकारों ने गठबंधन की सीमाओं के बावजूद काम किया। एक समय तो यह तक कहा जाने लगा कि भारत में एक दल के पूर्ण बहुमत की सरकार का जमाना समाप्त हो गया और गठबंधन की सरकार का जमाना आ गया। गठबंधन सरकार की मजबूरियों की बात उठने पर माननीय कांशीराम ने मजबूत सरकार से बेहतर मजबूर सरकार के होने की बात कही थी।
2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 और 2019 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सबसे बड़े घटक दल भारतीय जनता पार्टी अकेले दम बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रही। ‘अच्छे दिन’ के वायदे के बावजूद दस साल तक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जिस तौर-तरीका से सरकार चली वह भारत के लोकतंत्र का सुखद अनुभव नहीं रहा। इस बीच माननीय कांशीराम की बात लोगों को याद आती रही। 2024 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार बनाने के बहुमत तक किसी प्रकार पहुंच तो गई, लेकिन भारतीय जनता पार्टी अकेले दम बहुमत का आंकड़ा हासिल नहीं कर पाई। नतीजा तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल यूनाइटेड के अनिवार्य समर्थन के भरोसे ही नरेंद्र मोदी की सरकार बन पाई है। बहुमत के आराम का दौर समाप्त हुआ और बहुदलीय समर्थन के संकट का दौर शुरू है।
राजनीतिक मुश्किल यह भी है कि गठबंधन में रहकर सरकार चलाने की तमीज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) भूल गई! एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार दोनों संसदीय राजनीति के अनुभवी हैं। ये दोनों ही तोल-मोल और तोड़-ममोड़ में भी माहिर हैं। वैसे भी नरेंद्र मोदी के दस साल के शासन-काल की राजनीतिक शैली के कारण मेल-जोल का वातावरण नष्ट होने लगा था। बिना किसी लाज-लिहाज के तोल-मोल और तोड़-ममोड़ की प्रवृत्ति के बेकाबू बनने में दस साल तक सक्रिय राजनीतिक शैली का योगदान कम नहीं, बहुत है। अब 2024-25 के लिए जो बजट-प्रकाश में आया है, उसमें अ-संतोष और असंख्य छोटे-छोटे अ-संतुलन बिंदु हैं।
बजट में बिहार और आंध्र का कुछ ‘अधिक खयाल’ रखा गया है, ऐसा मौन-मुखर आरोप अन्य प्रदेश के नेताओं और राजनीतिक दलों की तरफ से लगाया जा रहा है। शीघ्र ही कोई असरदार पहल नहीं हुई तो विभिन्न प्रदेशों के लोगों के बीच वैमनस्य की धारणा बन जायेगी। ऐसे में अपने प्रदेश के बाहर रोजगार के लिए जाने-रहनेवाले लोगों को भिन्न तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। इस कुर्सी बचाओ बजट का राजनीतिक और नैतिक असर बहुत नकारात्मक हो सकता है। नागरिक समाज को सावधान रहना चाहिए कि नकारा कौतूहल को कहीं से हवा-पानी न मिले। बजट में निहित राजनीतिक-आर्थिक असंतुलन और असंतोष पर विचार-विमर्श होगा ही, होना भी चाहिए। लेकिन इस के चलते पैदा हुए लोकतांत्रिक और नैतिक संकट पर बात करना भी कहीं अधिक जरूरी है। कुर्सी बचाओ की राजनीति के चलते केंद्र या केंद्र के माध्यम से किसी प्रदेश के दबाव में भारत के संघात्मक ढांचा की सह-संबद्धता में पड़नेवाली नकारात्मकता अपूर्णीय क्षति कर बैठेगी।
लोकतांत्रिक-अनुकूलता से अधिक राजनीतिक-अग्रता का ध्यान रखना आराम-दायक राजनीति को बहुत लुभाता है। राजनीतिक-अग्रता को बनाये रखने के लिए राजनीति, कॉरपोरेट और आर्थिक अपराधियों, भ्रष्टाचारियों और पेशेवर सामाजिक लंपटों के बीच सांठ-गांठ बनता-बिगड़ता रहता है। राजनीतिक-अग्रता की लालसा के बेकाबू होने से सत्ताधारी दल में संवैधानिक सम्मान, लोकतांत्रिक शिष्टाचार, संसदीय गरिमा ‘सब कुछ’ को महत्व-हीन और बेमतलब का बनाकर रख दिया है। गरीब महिला युवा अन्नदाता की चिंता राजनीतिक विमर्श में प्रवक्ताओं के बल पर बना रहता है। लेकिन गरीब महिला युवा अन्नदाता, दलित आदिवासी पिछड़ा के मुद्दों पर सरकार की नीतियां वास्तविक अर्थ में खामोश ही बनी रहती हैं।
ऐसा लगता है जैसे सरकार निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के मुताबिक नहीं प्रवक्ताओं और मीडिया एंकरों के माध्यम से चल रही हो। जनता के प्रति न सरकार की कोई जवाबदेही है, न सरकार के अधिकारियों की कोई जवाबदेही है! अद्भुत स्थिति है! सरकारी अधिकारियों का दायित्व आत्म-मुग्धता की मुद्रा में ‘आज्ञापालन’ मात्र नहीं होता है। बल्कि, मूल दायित्व है संसद से पारित कानूनों और सरकारी की घोषित नीतियों की मूल भावना का कार्यकारी सम्मान करना है। भारत के संविधान में ‘शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत’ को इसीलिए तो अपनाया गया है न कि चुनाव जीतने के चक्कर में, राजनीतिक-अग्रता के लिए, आकुल-व्याकुल राजनीतिक नेता और दल सत्ता की हवस में, भ्रष्ट राजनीति, मुनाफाखोर कॉरपोरेट और आर्थिक अपराधियों और पेशेवर सामाजिक लंपटों के बीच सांठ-गांठ करने में कामयाब न हो पायें। हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लक्ष्य को सामने रखकर जांच और संतुलन (Check and Balance) एवं शक्ति के पृथक्करण की व्यवस्था की थी, वर्तमान दौर में उस लक्ष्य को हासिल करने का ध्यान सत्ता-संरचना और सत्ता-संचालकों को कितना है, कहना मुश्किल ही है!
माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2047 में सच होनेवाले सपनों का जिक्र करते रहते हैं। सपना तो सपना तो, सपना होता है! अपने-अपने साइज का सपना कोई भी देख सकता है। अपने साइज का ही क्यों? किसी भी साइज का सपना देख सकता है! यह तो इस बार के बजट से भी निश्चित हो गया है कि सपनों पर कोई टैक्स नहीं लगता है। 2047 में हममें से कौन रहेगा? 2047 को कौन देखेगा? क्या पता! ‘समझदार लोग’ तो 2047 के अलावा कुछ देखना ही नहीं चाहते हैं! बहुस्तरीय होता है सपनों का आकाश, सपनों की कोई जमीन! वह तो खैर होती ही नहीं है। विडंबना है कि जिनके पास जमीन होती है, वे भविष्य के सपनों में सच नहीं देखते। जिनके पास जमीन होती है, वे वर्तमान के सपनों में अपने सच का जुगाड़ कर लेते हैं। आज-कल जो भी होता है, जुगाड़ से होता है। खैर सच और सपना का खेल तो चलता ही रहता है। प्रभु कृपा से, बड़े ‘सेठ महाजनों’ को सपना और सच का सब रहस्य मालूम है, सच-सच!
महत्त्वपूर्ण है कि भारत की संसद में माननीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2024-25 पूर्ण बजट पेश कर दिया। वित्त मंत्री का बजट भाषण चलता रहा और प्रधानमंत्री, पूरी तन्मयता से, मेज थपथपाते रहे। टीवी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पूरी तन्मयता से मेज थपथपाते देखना तो एक ऐतिहासिक और अलौकिक अनुभव होता ही है। मेज थपथपाते हुए प्रधानमंत्री की अलौकिक तन्मयता का जबरदस्त गांभीर्य कोई लौकिक प्राणी भी आसानी लक्षित कर सकता है। साधनारत साधु पर छाये गांभीर्य की तरह। वैसे भी, गंभीरता में अ-प्रसन्नता या प्रसन्नता के भाव-प्रकाश के लिए कोई जगह नहीं होती है, सो बिल्कुल नहीं थी। कुल मिलाकर यह कि बजट-प्रकाश का संसदीय दृश्य अवसर की गरिमा के अनुकूल था। अब नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अन्य सांसद बजट पर क्या रुख और रवैया दिखलाते हैं, यह अलग बात है। उम्मीद है कि उनकी भी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक स्वाभाविकता के अनुकूल ही होंगी। रही बात जन-साधारण की ना-उम्मीदी की, तो उसका क्या! विश्व तो ‘कर्म प्रधान’ बनाकर रखा है प्रभु ने, सो जो जस करहिं सो तस फल चाखा। साधारण लोगों का क्या! हर कोई ‘प्रधान’ तो हो नहीं सकता सो, ‘इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो करते रहेंगे’।
आज-कल हमारे आस-पास आस्था और विश्वास से उत्पन्न श्रद्धा का वातावरण सक्रिय दिख रहा है। सवाल यह है कि श्रद्धा के इस वातावरण में कितना नैतिक-तत्व शामिल रहता है! किसी की श्रद्धा, समान श्रद्धा रखनेवालों के किसी कार्य की समीक्षा तथा जरूरी होने पर भर्त्सना करने से रोकती है क्या? श्रद्धा व्यक्ति के प्रति नहीं विश्वास के प्रति होनी चाहिए, होती भी है। समान श्रद्धा रखने का दिखावा करनेवाला, अकसर किसी-न-किसी बहाने अपनी करतूत की रक्षा में स्वस्थ आस्था और विश्वास के साथ जिंदगी बितानेवालों को खड़ा कर लेता है। स्वस्थ आस्था और विश्वास के साथ जिंदगी बितानेवालों को अपनी श्रद्धा के लिए इस स्थिति से सावधान रहने की जरूरत की अन-देखी नहीं करनी चाहिए। हरिशंकर परसाई ने तो उस दौर को ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ कहा था। बाबा नागार्जुन ने श्रद्धा से तिकड़म के नाता की बात कही थी। वे बातें अपनी जगह! कहना जरूरी है कि निश्चित रूप से श्रद्धा में नैतिक-तत्व शामिल होता है। जितनी अधिक श्रद्धा उतना ही अधिक सुदृढ़ नैतिक-तत्व श्रद्धा में शामिल होता है। ‘निम्न नैतिकता’ कभी भी ‘उच्च श्रद्धा’ का आधार नहीं बन सकती है। आज-कल श्रद्धा के इतने गहन वातावरण में नैतिकता का अभाव बहुत चौंकाता है। नहीं क्या!
क्या भारत राजनीतिक संकट और आर्थिक अभाव से अधिक नैतिकता के अभाव के संकट से गुजर रहा है? सीधा, सरल और सुनिश्चित जवाब है, हां। राजनीतिक और आर्थिक संकट अपनी जगह हैं ही, लेकिन नैतिक संकट अधिक विकट है। नैतिकता का मुख्य सरोकार उत्तरदायित्व की चेतना से होता है। उत्तरदायित्व की चेतना में निहित कारण-कार्य का चाक्रिक संबंध व्यक्ति के सांसारिक रूप से सफल होने, बेहतर नागरिक बनने और समाज में निर्विशिष्ट लोगों के भाव-कर्म सहयोगी होने की निश्छल भावना से है। उत्तरदायित्व की चेतना में निहित कारण-कार्य का चाक्रिक क्रम समाज में सक्रिय दुश्चक्र को निष्क्रिय बनाकर शुभ-चक्र को सक्रिय करता है।
मुश्किल यह है कि उत्तरदायित्व की भावना और नैतिकता की चेतना को बाहरी प्रेरणा के माध्यम से विकसित नहीं किया जा सकता है। बाहरी प्रेरणा के माध्यम से नैतिकता की उपयोगिता को समझना-समझाना मुश्किल होता है। मनुष्य का अचेतन मन सामाजिक वातावरण में सक्रिय सूक्ष्म नैतिक-तत्व को, व्यक्तिगत स्तर पर अपनी ही प्रेरणा के आधार पर, बिना किसी अन्य माध्यम का सहारा लिये, सीधे और स्वतः चयनित और आत्मसात करता रहता है। यह प्रक्रिया सतत चलती रहती है। व्यक्ति सामाजिक वातावरण से नैतिक चेतना ग्रहण करता रहता है। कहना न होगा कि इस समय भारत का सामाजिक वातावरण नैतिकता के अभाव के गहरे संकट से जूझ रहा है। इसे सिर्फ राजनीतिक संकट के रूप में समझना बुरी तरह से भटकाव में डाल सकता है। इस का मतलब यह नहीं है कि राजनीति से इस नैतिक संकट का कुछ भी लेना-देना नहीं है। लेना-देना है, लेकिन सिर्फ राजनीति से ही लेना-देना नहीं है। निश्चित तौर पर नैतिकता के अभाव का गहरा संबंध सत्ताधारी दल के राजनीतिक व्यवहार के कारण पैदा हुए वास्तविक और समावेशी लोकतांत्रिक चेतना के खालीपन से है।
सतत युद्ध की मुद्रा में रहनेवाले पता नहीं किस मुंह से वसुधैव कुटुंबकम की बात करते हैं। संकुचित मन से ‘तेरा-मेरा’ का हिसाब लगानेवालों और सतत युद्ध की मुद्रा में रहनेवाले के लिए वसुधैव कुटुंबकम नहीं होता है। उदार मन से सबको अपना माननेवालों के लिए धरती परिवार है, वसुधैव कुटुंब होता है। भारत के लोकतंत्र में मुश्किल यह है कि ‘संकुचित मन’ के लोग अकसर ‘उदार मन’ के साथ छल करने में कामयाब होते रहते हैं।
सच पूछा जाये तो सरकार को बजट-प्रकाश के पहले पिछले बजट के प्रभाव पर बात की जानी चाहिए। पिछले बजट-प्रकाश के दौरान तो इससे कुछ अधिक ही उत्साह था। एक समय और सीमा के बाद व्यक्ति हो, मीडिया एंकर हो या प्रवक्ता उसके लिए मिथ्या तत्व का इस्तेमाल कठिन होता है। बजट-प्रकाश के बाद इंडिया अलायंस के सवालों का जवाब देने में हकलाते हुए लोगों को देखा जा सकता है। बजट में किसको क्या मिला! किस कीमत पर मिला! यह तो आनेवाला दिन बतायेगा। फिलहाल तो यह कि नागरिक समाज के लोगों की नजर को उत्तरदायित्व की चेतना के लिए स्वस्थ हवा-पानी की व्यवस्था को परखते रहना जरूरी है। फिलहाल, राजनीतिक तेवर और तथ्य के बीच संविधान, शिष्टाचार, संसद और लोकतंत्र के नागरिक प्रसंग में जांच और संतुलन (Check and Balance) की व्यवस्था के कारगर बनने और सक्रिय रहने पर विचार करना चाहिए।(