अग्नि आलोक
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480 वर्षीय सिद्ध आत्मा से संपर्क 

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डॉ. विकास मानव
(निदेशक : चेतना विकास मिशन)

 *पूर्व कथन :* आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी.

अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. हमारा स्पस्ट उद्घोष है — “बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.“ विज्ञान द्वारा अस्वीकृति की स्थिति में नहीं आ पाने और तमाम फैक्टर पर सहमति जताने के बावजूद मूढ़ जन पैरासाइकॉलोजी को अविश्वसनीय मान लेते हैं. वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।

सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है — निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.

  _वास्तव में मेरे आध्यात्मिक जीवन का संक्रांति-काल था वह। इस दिशा में जो आत्मीयता, सहयोग और उचित मार्गदर्शन मुझे महात्मा दिव्यकैवल्य से प्राप्त हुआ, वह अपने-आप में महत्वपूर्ण और मूल्यवान था लेकिन मैं उससे सन्तुष्ट नहीं था।_
       इसके आगे कुछ और ही चाहता था मैं। क्या चाहता था ?--मेरी आत्मा भी परिचित नहीं थी उससे। कौन-सी आध्यात्मिक भूख थी वह जो बराबर विचलित किये रहती थी मुझे और कौन-सी ऐसी प्यास थी वह जो बराबर करती थी मुझे व्याकुल ?--परे थी मेरी समझ के।
  _यह अच्छी तरह जानता था, समझता भी था कि आध्यात्मिक भूमि में पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों का भारी महत्व है। कभी-कभी सोचता--आध्यात्मिक संस्कारों का शायद अभाव है मुझमें, तभी कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ मैं।_

  पूरी रात समाधि में रहने के बाद उस दिन भी नित्य की भांति प्रातः भ्रमण के लिए गंगातट की ओर निकल गया था मैं। संयोगवश अस्सीघाट पर मेरे एक परिचित मिल गए, नाम था--शिवशंकर तिवारी। न्याय मीमांसा और संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान थे तिवारीजी। काशी की किसी पाठशाला में अध्यापक थे महाशय। उनकी आयु मुझसे अधिक थी, इसलिए उनको पण्डितजी कहकर संबोधित करता था मैं।
  शिवशंकर तिवारीजी मुझे देखते ही बोले--
 _भाई मानवजी, कहाँ थे आप ? एक सन्यासी महाशय मिलना चाहते हैं आपसे। काफी उत्सुक हैं आपसे मिलने के लिए। अभी तो युवा हैं वह, लेकिन हैं सिद्ध और चमत्कारी जीव--इसमें सन्देह नहीं।_
  मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूँ। मुझको कैसे जानते हैं सन्यासी महाशय ?
   यह पूछने पर तिवारीजी ने उत्तर दिया--यह तो आपको बतला नहीं सकता मैं। आप स्वयं ही पूछ लीजिएगा महाशय से।

  दूसरे दिन उस युवा सन्यासी को साथ लिए आ गए मेरे स्थान पर शिवशंकर तिवारीजी। सन्यासी का नाम था--स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती। हरिद्वार में स्वामी केशवानंद सरस्वती से विधिवत सन्यास दीक्षा ली थी स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती ने। उनका पारिवारिक नाम था--अखिलेस्वर झा। स्वामी केशवानंद सरस्वती ने सन्यास दीक्षा प्रदान कर  अखिलेश्वर झा को अखिलेश्वरानंद सरस्वती बना दिया था।
वैसे वह बिहार के किसी गांव के निवासी थे लेकिन सन्यास ग्रहण करने के बाद पिछले दो साल से काशी के किसी मठ में रह रहे थे महाशय।
  स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती का व्यक्तित्व अत्यधिक आकर्षक था। लम्बी-चौड़ी काठी, सुगठित देह, गौर वर्ण, मुण्डित सिर, चौड़े ललाट पर भस्म की त्रिपुण्डी रेखाएं, झील जैसी गहरी आंखें और चेहरे पर साधना का तेज, शरीर पर रेशमी गैरिक वस्त् और हाथ में मिट्टी का कमंडल था उस युवा सन्यासी के--जिससे प्रभावित हुए बिना न रह सका मैं।
  _अखिलेस्वरानंद सरस्वती ने वार्तालाप के प्रसंग में बतलाया--काल का प्रवाह अक्षुण्ण और अनन्त है। जन्म और मृत्यु एक लौकिक घटना है। काल के प्रवाह में एक प्रकार से व्यवधान हैं ये दोनों। यदि कालविज्ञान की दृष्टि से उस व्यवधान को स्वीकार न किया जाय तो विकासजी, इस समय मेरी आयु लगभग 480 वर्ष होनी चाहिए।_
  यह सुनकर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था मेरा। हकलाते हुए बोला मैं--480 वर्ष ! समझा नहीं मैं।
  हाँ, 480 वर्ष बन्धु !--इसमें कोई संदेह नहीं और इस दीर्घ अन्तराल में चार बार जन्म लिया मैंने संसार में। जन्म और मृत्यु का अनुभव विरले ही किसी को होता है क्योंकि जन्म लेने और मरने की घटना बेहोशी में घटती है, लेकिन दोनों घटनाओं का अनुभव है मुझे।
     _मृत्यु के बाद और पुनर्जन्म से पहले सूक्ष्मशरीर में रहकर कभी किसी लोक में नहीं गया। बराबर इसी धरती पर भ्रमण करता रहा मैं। हाँ, एक बार जाना अवश्य हुआ था और वह भी यक्षलोक में। इस सम्बन्ध में मैं आपको आगे बतलाऊंगा। अभी तो आप इतना जान लें कि इस अंतराल में चार माताओं के गर्भ से जन्म लिया मैंने और चार स्त्रियों को मंगलसूत्र पहनाया और सिन्दूर से उनकी मांग भरी मैंने लेकिन बाद में चारों हो गईं सुहागिन से विधवा।_
 यह मेरा पांचवां जन्म है और  इस जन्म में भी मेरा विवाह हुआ। सुन्दर, सुशील पत्नी मिली। भरा-पूरा धन-वैभव-सम्पन्न मेरा परिवार था लेकिन पत्नी, सारे सुख-वैभव और संपन्नता को त्यागकर सन्यासी का बाना पहन लिया मैंने।फिर वापस परिवार में जाना नहीं हुआ। पत्नी जीवित है और मेरे एक पुत्र की माँ भी है।
 एकबारगी यह सब सुनकर स्तब्ध और अवाक रह गया मैं।
     वे बोले : आश्चर्य भी कम नहीं हुआ होगा आपको लेकिन मैंने जो कुछ कहा है, वह अपने-आप में पूर्णतया सत्य है और हैं पूर्णतया प्रमाणित।
    अपने मनोभावों को नियंत्रित करते हुए मैंने पूछा--आपको अपने विषय में ये सारी बातें कैसे ज्ञात हुयीं ? क्या कोई साधना-बल से या...?

  मैं अपना वाक्य पूरा कर पाता कि उसके पहले ही बोल पड़ा सन्यासी--न मुझे कोई सिद्धि प्राप्त है और न तो किसी भी प्रकार की साधना ही की है मैंने। सच पूछिए तो कैसे मुझे अपने 480 वर्ष का जीवन-वृत्तांत मालूम हो गया ? इसका कारण स्वयं नहीं जानता मैं। स्वयं आश्चर्यचकित हूँ, लेकिन जो सत्य है, वह सत्य है, उसे न अस्वीकार किया जा सकता है और न तो झुठलाया ही जा सकता है।
  _अपने विषय में सन्यासी ने जो कथा सुनाई थी, वह सत्य थी--यह समझते देर न लगी मुझे, इसलिए कि उसके रहस्य पर से पर्दा हट गया था अब। मैंने सिर घुमाकर स्वामी अखिलेस्वरानंद सरस्वती की ओर देखते हुए कहा--आपने अपने विषय में जो कुछ बतलाया है, वह निश्चय ही पूर्ण सत्य है, लेकिन उस रहस्यमय सत्य पर वही व्यक्ति विश्वास करेगा जिसने परामनोविज्ञान के साथ ही शरीर विज्ञान का भी अध्ययन किया होगा।_
  मेरी बात सुनकर सन्यासी कौतूहलभरे स्वर में बोला--मेरे विषय में परामनोविज्ञान और शरीर विज्ञान का क्या सम्बन्ध है ?
  _बहुत गहरा सम्बन्ध है--मैंने उत्तर दिया--उन्ही दोनों विज्ञानों में इसका उत्तर और समाधान निहित है। आपको थोड़े में समझाए देता हूँ--_

मानव मस्तिष्क अत्यन्त रहस्यमय है। मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान के द्वारा सतत प्रयत्न करने पर भी अभी तक उसके रहस्यों का भेदन पूर्णतया सम्भव नहीं हो पाया है।

 *मस्तिष्क विज्ञान :*      
  आपको ज्ञात होना चाहिए कि मानव इतिहास के प्राककाल में  मनुष्य के मस्तिष्क का आकार 620 से 650 घन सेंटीमीटर था। उसके बाद मस्तिष्क का आयतन 800 से 900 घन सेंटीमीटर हो गया। वर्तमान अवस्था में मनुष्य के मस्तिष्क का आयतन 1400 घन सेंटीमीटर है।
  _सम्भवतया यही क्रम-वृद्धि विकास के साथ-साथ आगे भी चलती रहेगी और भविष्य में आने वाली पीढियां अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत मस्तिष्क वाली होंगीं, पर यह आवश्यक नहीं कि खोपड़ी में भरे हुए भार की भी वृद्धि हो जाय। वह हल्का ही रहेगा किन्तु उसकी संवेदन कणिकाएं अधिक सूक्ष्म और जटिल हो जायेंगी।_
   भार की दृष्टि से संसार के महामनीषियों के मस्तिष्क का भार हाथी के बराबर अथवा थोड़ा कम था। फिर भी वे हाथी से कहीं अधिक बुद्धिमान थे। वायरन का मस्तिष्क 2239 ग्राम था, वर्गनेव का 2012 ग्राम, शिलर का 1871 और पावलोव का 1658 ग्राम, अनातोले फ्रांस का 1017 ग्राम जबकि हाथी का औसतन 2000 ग्राम होता है।
  _आपको मालूम होना चाहिए कि मानव मस्तिष्क बड़ा ही विचित्र और अनन्त रहस्यमय है जिसका भेदन भविष्य में भी सम्भव नहीं दिखाई देता। वास्तव में उसकी सूक्ष्म और जटिल संरचना अद्भुत है। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो वह संरचना एक प्रकार से प्रसुप्त अवस्था में पड़ी है। केवल उसका 4 %भाग ही काम करता है। 96 %मूर्च्छा की स्थिति में रहता है। उस प्रसुप्त भाग में से जो जितना अधिक भाग जाग्रत कर लेता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान, विवेकी और ज्ञानी बन जाता है।_
   आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि योग-तांत्रिक साधना के जितने उद्देश्य हैं, उनमें से एक है--उसी प्रसुप्त भाग के अधिक-से-अधिक अंशों को जाग्रत करना। मस्तिष्क विशेषज्ञ और परामनोविज्ञानी अब यह मानने लगे हैं कि संसार में चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं होती।
  _जिसे लोग चमत्कार कहते हैं, वह हमारी अल्पज्ञता समझी जाती है, वह अज्ञानता की ही द्योतक है। यह वही स्थल है जहां मस्तिष्क विज्ञान और परामनोविज्ञान के सिद्धान्त, योग-तन्त्र के सिद्धान्त और उसकी धारणा जहां आपस में मिलती है। योग-तन्त्र का  वैज्ञानिक पक्ष भी यही कहता है कि सिद्धि अथवा चमत्कार जैसा कुछ भी घटित नहीं होता।_
    दूरसम्प्रेषण (टेलीपैथी), किसी के विचारों को पढ़ना (थॉट रीडिंग), पूर्वाभास (प्रि आग्नीशन), भविष्यदर्शन और क्लोर वॉयस जैसे अन्य असम्भव दिखने वाले विलक्षण कार्यों का सीधा सम्बन्ध पराचेतना से है--जो मस्तिष्क कोशिकाएं न्यूरॉन में निहित है।
 _योग-तन्त्र के अनुसार इसी पराचेतना को परामानसिक शक्ति और आत्मशक्ति कहते हैं।_
  _मस्तिष्क कोशिकाओं (न्यूरॉन्) में बराबर विद्युत चुम्बकीय तरंगें उठती हैं जो विचार-तरंगों में स्वतः परिवर्तित होती रहती हैं। वे विद्युत चुम्बकीय तरंगें दूसरी स्मृतियों को भी जो उन कोशिकाओं में भी विद्यमान रहती हैं, जागृत किये रहती हैं।_
  योग-तन्त्र विज्ञान न्यूरॉन् को अभौतिक कण मानता है जिसे अब वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार कर लिया है। उनका कहना है कि न्यूरॉन् मैटीरियल पार्टिकिल्स हैं जो विद्युत चुम्बकीय बल के द्वारा मस्तिष्क में मंडराते रहते हैं। जब मस्तिष्क-कोशिकाओं की सक्रियता बढ़ जाती है तब मनुष्य विलक्षण या असाधारण-से दिखने वाले कार्यों को परिणाम दे सकता है। अमेरिकी वैज्ञानिक डॉक्टर इरविन कैमरॉन मानव की कोशिकाओं में पाए जाने वाले न्यूक्लिक एसिड को और मस्तिष्क की कोशिका न्यूरॉन को अभौतिक और स्वतः स्फूर्त चेतना-सम्पन्न मानते हैं।
   _यहां यह कहना अनावश्यक न होगा कि भारतीय योग-दर्शन की मान्यता है कि मानव मस्तिष्क असीम असाधारण शक्तियों का स्वामी है। तन्त्र के अनुसार उन असीम असाधारण शक्तियों के केंद्र हैं--आज्ञाचक्र और सहस्त्रार चक्र। सहस्त्रार चक्र सूक्ष्म अभौतिक और विलक्षण अतीन्द्रिय शक्तियों का एकमात्र केंद्र है--इसमें सन्देह नहीं।_

मेरी विज्ञान सम्बन्धी बातें सुनकर स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती का आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था। उत्सुकतावश आखिर पूछ ही बैठे, मानव महाशय! आप तो योग-तन्त्र के ज्ञाता हैं। विज्ञान से आपका क्या और कैसे सम्बन्ध है ?
मैं हंस पड़ा। बोला–योग और तन्त्र ऐसे शास्त्र हैं कि बिना सभी शास्त्रों, उपनिषदों, ब्राह्मण-ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य सभी ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन एवं चिन्तन-मनन किये उनके गूढ गोपनीय रहस्यों का उद्घाटन सम्भव नहीं।
यहां यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि सभी शास्त्रों के अतिरिक्त भौतिक विज्ञान, शरीर विज्ञान, मस्तिष्क विज्ञान, नाड़ी विज्ञान, आयुर्विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान, आयुर्वेद रस-रसायन आदि का खूब अध्ययन व चिन्तन-मनन किया है मैंने।
स्वामीजी मेरी बातों को बड़े मनोयोग से सुन रहे थे। थोड़ा ठहर कर मैंने आगे कहा–
आपको ज्ञात होना चाहिए कि पूरे मस्तिष्क के चारों ओर एक प्रकार का घूसर पदार्थ जिसे मस्तिष्क विज्ञान की भाषा में ‘ग्रेमैटर’ कहते हैं, जिसमें लगभग 17 अरब मस्तिष्क कोशिकाएं विद्यमान हैं और जिनमें बराबर विद्युत चुम्बकीय तरंगें विकीर्ण होती रहती हैं जो ब्रह्माण्डीय विद्युत तरंगों में मिलकर मानव मस्तिष्क का सम्बन्ध अगोचर रूप से अन्य लोक-लोकान्तरों से बराबर बनाये रखती हैं। इसी के आधार पर योगीगण लोक-लोकान्तरों से समाधि की अवस्था में सम्बन्ध स्थापित करते हैं।
लघु मस्तिष्क में 120 अरब कोशिकाएं। जिस परिधि या जिस सीमा में वे कोशिकाएं हैं, उसी को ‘सहस्त्रार चक्र’ कहते हैं जिसे परामानसिक जगत कहते हैं और जिसमें सूक्ष्म अभौतिक और विलक्षण अतीन्द्रिय शक्तियां विद्यमान हैं, योग की भाषा में यह एक ऐसा विलक्षण रहस्यमय केंद्र है जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड से है। उच्चकोटि के योगीगण इस संसार में अपने स्थूल शरीर को किसी सुरक्षित स्थान पर रखकर इसी केंद्र से अपने आत्म शरीर द्वारा बाहर निकल कर विश्वब्रह्माण्ड की यात्रा करते हैं। उनकी यह यात्रा सैकड़ो-हज़ारों वर्ष की होती है। उनका एकमात्र उद्देश्य होता है–विश्वब्रह्मांडीय ज्ञान को उपलब्ध होना।

  स्थूल शरीर तो मर्यादित है। क्या वह नष्ट नहीं होता ?--स्वामी जी ने मुझ से प्रश्न किया।
  नहीं, यात्रा-काल में योगी की आत्मा का सूक्ष्म ब्रह्माण्डीय प्राण द्वारा उसके पार्थिव शरीर से संबन्ध बराबर बना रहता है, इसलिये वह नष्ट नहीं होता। हाँ, जर-जर या जीर्ण-शीर्ण हो सकता है लेकिन पूर्णतया नष्ट नहीं। एक अविश्वसनीय बात यह है कि कुछ काल के बाद वह पार्थिव शरीर चतुर्थ आयाम में अपने आप चला जाता है जिसके कारण तीसरे आयाम वाले इस संसार के प्राणी उसे देख नहीं पाते। मतलब यह कि वह अदृश्य हो जाता है।
_हिमालय के रहस्यमय स्थानों में बहुत-से ऐसे परमयोगियों के पार्थिव शरीर विद्यमान हैं जो हज़ारों वर्षों से अदृश्य हैं लेकिन उनका अस्तित्व चतुर्थ आयाम में बराबर बना हुआ है।_
       प्रश्न यह है कि ब्रह्माण्ड-भ्रमण करने वाला योगी पुनः अपनी जीर्ण पार्थिव काया में कभी वापस लौटेगा या नहीं ? यदि लौटेगा भी तो उस समय शरीर की स्थिति क्या होगी ? क्या वह तीसरे आयाम के हमारे इस संसार में लौट आएगा ? यह उनका मुझ से अगला प्रश्न था.
  _इस सम्बन्ध में कुछ निश्चित कहा नहीं जा सकता। यह योग का गूढ़ विषय है। इस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी. अब आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि 120 अरब कोशिकाओं के अतिरिक्त एक करोड़ 35 लाख कोशिकाएं मेरुदण्ड में हैं और उनकी सहायिका के रूप में लगभग एक खरब लघु कोशिकाएं अलग हैं। ये सभी कोशिकाएं जिस स्थान में आपस मे मिलती हैं, उस स्थान को 'तंत्रिका-बन्ध (न्यूरोगलाया) कहते हैं।_
     तंत्रिका-बन्ध में उनके मिलन से जो चेतना उत्पन्न होती है, उसी को 'मस्तिष्कीय चेतना' कहते हैं। इसी मस्तिष्कीय चेतना के रहस्यमय गर्भ में मनुष्य के विचार, संस्कार आदि विद्यमान रहते हैं। इतना ही नहीं--मनुष्य के सूक्ष्म शरीर की रचना के मूल में यही चेतना है। सच पूछा जाय तो मस्तिष्कीय चेतना का वाहक है--सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर सूक्ष्मतम प्राण-कणों का बना होता है और उन्हीं सूक्ष्म प्राण-कणों में मस्तिष्कीय चेतना विद्यमान रहती है।

यहां यह बतला देना आवश्यक है कि मस्तिष्कीय चेतना ही पूनर्जन्म का कारण है। उसी के अनुसार नवीन गर्भ मिलता है, नए शरीर की रचना होती है और मनुष्य को पुनर्जीवन प्राप्त होता है।
मस्तिष्क विज्ञान पर थोड़ी और चर्चा कर लेना आवश्यक समझता हूँ. मस्तिष्क का जो भी भीतरी हिस्सा है, उसके चारों ओर दो काले रंग की पट्टियां लिपटी हुई हैं जिनको ‘टेम्पल कोरटेक्स’ कहते हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग 25 वर्ग इंच और मोटाई एक इंच का दसवां भाग है। इनका स्थान दोनों कनपटियों के ठीक नीचे है और उनमें से बराबर एक विशेष प्रकार की ध्वनि निकलती रहती है जिसे योगीगण ब्रह्माण्डीय ध्वनि कहते हैं। इस ब्रह्माण्डीय ध्वनि पर मन को एकाग्र करने पर अंतर्जगत में प्रवेश किया जा सकता है।
टेम्पल कोरटेक्स की कुछ विशेषताएं हैं। पहली यह कि वर्तमान जन्म से लेकर पिछले सैकड़ों जन्मों की मुख्य-मुख्य स्मृतियां उसमें संगृहीत रहती हैं। दूसरी विशेषता यह कि स्मृतियों का संचयन और नियमन उन्हीं के द्वारा होता है। आज्ञाचक्र के जिस बिन्दु पर दोनों पट्टियां मिलती हैं, यदि उस बिंदु का विशेष यौगिक क्रिया द्वारा स्पर्श किया जाय तो इच्छानुसार पिछले किसी भी जन्म की स्मृतियों को जगाया जा सकता है।

इस प्रसंग में आपको एक महत्वपूर्ण बात बतला दूँ कि मनुष्य का जन्म और उसकी मृत्यु–दोनों गहरी बेहोशी की स्थिति में होती है। इसीलिये मनुष्य को न जन्म होने के समय का ज्ञान रहता है और न तो रहता है अपनी मृत्यु की स्थिति का ज्ञान क्योंकि स्मृति-शास्त्र के अनुसार स्मृति चैतन्य अवस्था अथवा जागृत अवस्था में घटित होने वाली घटनाओं की ही बनती है। इसी कारण ‘टेम्पल कोरटेक्स’ में जन्म के क्षण की और मृत्यु की कोई स्मृति संचित नहीं हो पाती। जब उनकी स्मृति ही नहीं होगी तो संचित कहाँ से होगी ?
लेकिन एक बात अवश्य है कि किसी कारणवश यदि मृत्यु के क्षण का ज्ञान हो गया तो पुनर्जन्म होने पर पिछले दो-तीन या अधिक-से-अधिक चार जन्मों की संचित स्मृतियां सजीव हो उठती हैं और इस अवस्था में जन्म और मृत्यु का कोई मूल्य नहीं रह जाता। जन्म और मृत्यु तब घटना मात्र प्रतीत होती हैं और जीवन एक निर्बाध सतत प्रवाह जैसा अनुभव होता है।
परन्तु ऐसा कारण बहुत कम ही उपस्थित होता है। यदि कोई परमयोगी चाहे तो आज्ञाचक्र का स्पर्श कर पिछले और यहां तक कि अगले किसी भी जन्म की स्मृतियों को जागृत कर सकता। इतना ही नहीं–जन्म और मृत्यु के समय का अनुभव करा सकता है। लेकिन बड़े सौभाग्य से ऐसे परमयोगी के दर्शन हो पाते हैं।

  मैंने उन से कहा--संस्कारवश मेरा साक्षात्कार एक ऐसे ही परम उच्चावस्था प्राप्त योगी से काशी में हुआ था। उन्होंने मेरे आज्ञाचक्र का स्पर्श कर मुझे मेरे पिछले और अगले दोनों जन्मों का अनुभव कराया था। आश्चर्य की बात तो यह है कि मेरा पिछला जन्म काशी में हुआ था और वर्तमान जन्म तो हुआ ही है काशी में, लेकिन अगला जन्म भी काशी में ही होगा। कब_ कहाँ होगा--इस रहस्य से  परिचित हूँ मैं।

आपको यह भी बतला दूँ कि मृत्यु के पश्चात और पुनर्जन्म के पूर्व कुछ समय यक्षलोक में व्यतीत करूँगा।
मेरी बात सुनकर एकबारगी चौंक पड़े स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती और उसी के साथ चमक उठा उनका चेहरा भी। उस चमक का रहस्य क्या था–यह समझ नहीं सका उस समय मैं। कुछ समय तक मेरी ओर देखता रहा वह सन्यासी और फिर सिर झुकाकर कुछ सोचने लगा। उसके बाद थोड़ा आगे बढ़कर मेरी आँखों में झांकते हुए गम्भीर किन्तु सहज स्वर में बोला–
आपको मालूम होना चाहिए की 480 वर्ष पूर्व इसी काशी में पहली बार मैंने भी जन्म लिया था एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में। उसके पहले मेरा कहाँ जन्म हुआ था और कैसा था मेरा जीवन–यह नहीं जानता मैं।
ऐं ! क्या कहा आपने ? इसी काशी में ?–आश्चर्य और कौतूहल भरे स्वर में बोला मैं।
हाँ बन्धु ! आपकी इसी काशी में और फिर थोड़ा रुककर उस रहस्यमय सन्यासी ने आगे कहना शुरू किया–
लेकिन विकासजी, उस समय ‘काशी’ शब्द केवल ब्राह्मणों के मुख से ही निकलता था और वह भी पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा आदि के समय। सर्वाधिक लोग तो बनारस के ही नाम से जानते थे अध्यात्म की इस महानगरी को। जनसंख्या तो बहुत ही कम थी। विभिन्न वर्गों के ब्राह्मण और वैश्यों की संख्या सर्वाधिक थी। छोटी जाति के लोग शहर के बाहर रहते थे। बाजार कम थे, मगर दुकानें काफी थीं मगर वे सड़कों पर कम, गलियों में अधिक। सभी प्रकार का व्यापार गलियों में होता था।
सांझ होते ही सड़कें प्रायः सूनी हो जाती थीं पर गलियां आधी रात तक गुलज़ार रहती थीं। सड़कें सकरी थीं और थीं अधिकतर कच्ची। सड़कों पर इक्के, तांगे और बग्गियां होती थीं सवारी के लिए और गलियों में होते थे सवारी के लिए खटोले।
पालकियों पर काशी की प्रसिद्ध वेश्याएं, काशी के बड़े-बड़े रईस और काशी के व्यापारियों के अतिरिक्त काशी के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान, भट्ट ब्राह्मण अथवा कुल पुरोहित बैठते थे। लेकिन पद-प्रतिष्ठा के अनुसार सभी की पालकियों के रूप-रंग, आकार-प्रकार, साज-सज्जा भिन्न-भिन्न होती थी। इन सब के बाद एक और सवारी होती जिसे ताम-झाम कहते थे। ताम-झाम पर केवल राजकुल के लोग और सरकारी हुक्मरान ही बैठते थे या बैठते थे ओहदेदार।
उस समय काशी में तालाबों, पोखरों और कुंडों की संख्या बहुत अधिक थी, मंदिरों की भी संख्या कम न थी। जिधर जाइये, उधर मन्दिर-ही-मन्दिर चाहे छोटे हों या बड़े। भोर होते सभी मंदिरों में पूजा-आरती होने लगती थी और गूँजने लगती थी काशी के आध्यात्मिक वातावरण में शंख घण्टों की ध्वनि.
लेकिन अब बन्धु ! वैसा कुछ भी नहीं रह गया है। तालाब, पोखरों, कुंडों की संख्या उंगली पर गिनने लायक रह गयी है और मंदिरों की भी यही स्थिति है। पूजा-पाठ, देवार्चन आदि का भाव पहले जैसा अब नहीं रहा है काशी के जन-मानस में।
काशी के मठों और आश्रमों के विषय में तो पूछिये ही मत। कौन-सी ऐसी गली न होगी और कौन-सा ऐसा स्थान न होगा जहां चार-पांच मठ और उतने ही आश्रम न होंगे। मठ और आश्रम सदैव भरे रहते थे साधू-सन्यासियों से। नित्य मठों में भंडारा होता रहता था और आश्रमों में होता था नित्य भजन, कीर्तन और प्रवचन। सैकड़ों क्षेत्र ऐसे भी थे जहां विद्यार्थियों को रहने, पढ़ने और भोजन की सुविधा थी।
संस्कृत पाठशालाओं की संख्या तो बतलाई ही नहीं जा सकती थी। पाठशालाओं में निःशुल्क पुस्तकें और निःशुल्क विद्यादान तो दिया ही जाता था, इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों को पाठशाला की ओर से दोनों समय दिया जाता था भोजन भी। पाठशालाओं में विद्यार्थियों के लिए शिक्षा-काल तक रहने की व्यवस्था थी।
अब गंगा नदी को ही देखिये। आज की गंगा में और 480 वर्ष पूर्व की गंगा में जमीन और आसमान का अन्तर है। उस समय गंगा की धारा बहुत चौड़ी थी। धारा भी प्रखर थी और पानी भी अत्यधिक स्वछ और निर्मल था। गन्दगी तो नाममात्र की भी नहीं थी गंगाजल में। लेकिन पहले इतने घाट नहीं थे और न तो थी उनकी ऐसी मनोहारिणी श्रृंखला ही।
ब्रह्माघाट, पंचगंगा घाट, मणिकर्णिका घाट और दशाश्वमेध घाट–बस इतने ही घाट मुख्य थे। मणिकर्णिका घाट पर आज की तरह चिताएं नहीं जलती थीं। श्मशान का रूप तो अब मिला है उसे। लगभग सौ-सवा सौ वर्ष पहले काशी का ऐतिहासिक और पौराणिक महाश्मशान राजा हरिश्चन्द्र घाट था और आज भी है। आदि महाश्मशान समझिए आप उसे। दशाश्वमेध घाट के बाद सभी घाट कच्चे थे। केदार घाट और हरिश्चंद्र घाट भी कच्चे थे। केदार घाट के ऊपर एक काफी ऊंचा स्तूप के आकार का विशाल शिवलिंग था जिसे लोग केदारेश्वर लिंग कहते थे। उसके बगल में ही था काफी दूर तक फैला हुआ और काफी लम्बा-चौड़ा हरिश्चन्द्र घाट का महाश्मशान जहाँ रात-दिन जलती रहती थीं चिताएं धू-धू कर। सगे संबंधियों और परिजनों का विलाप गूंजता रहता था वहां के उदास वातावरण में।
पक्के घाटों पर प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक पूजा-पाठ करने वाले भट्ट ब्राह्मणों तथा दान-दाक्षिणा लेने वाले गंगापुत्रों और महापात्रों के अतिरिक्त स्नानार्थियों की भीड़ बराबर लगी रहती थी और इस भीड़ के अतिरिक्त एक और भीड़ थी तीर्थयात्रियों की जो सामूहिक रूप से क्षौर-कर्म के लिए आते थे काशी।
पिण्ड-दान के लिए भी बाहर से आने वाले लोगों का भी अभाव नहीं होता था घाटों पर। बुर्जियों पर बैठे ध्यानस्थ गैरिक वस्त्रधारी साधू-सन्यासियों और सीढ़ियों पर आसन लगाए बैठी जप करती श्वेत वस्त्रधारिणी विधवा महिलाओं को देखकर अपूर्व आध्यात्मिक सुख का बोध होता था।
लेकिन अब वैसी बात नहीं है, बहुत कुछ बदल गया है।
जैसा कि मैंने कहा–काशी के कुछ महत्वपूर्ण घाटों को छोड़कर सभी घाट कच्चे थे और उस कच्चे रेतीले घाटों पर सैकड़ों की संख्या में घास-फूस की झोपड़ियां बनी हुई थीं।
विभिन्न और मध्यम वर्ग के लोग अपने परिवार के मरणासन्न व्यक्ति को झोपड़ी में रख चले जाते थे मरने के लिए। इसलिए की शरीर-त्याग के बाद व्यक्ति मिल जाये हमेशा-हमेशा के लिए जीवन-मरण से। सगे संबंधियों के चले जाने के बाद असहाय पड़ा रहता था वह मुमुर्ष व्यक्ति। इसके अतिरिक्त साधारण लोग भी वृद्धावस्था में काशीवास और मोक्ष की कामना से भी उन झोपड़ियों में आश्रय लेते थे। सबसे दुःखद बात तो यह थी कि ऐसे लोगों के परिवार वाले उन्हें झोपड़ी में रखकर चले जाने के बाद फिर उनकी कोई खोज-खबर नहीं लेते थे।
उनकी देख-भाल और अंतिम क्रिया-कर्म गंगापुत्र करते थे। उन्हीं की दया-कृपा पर वे असहाय प्राणी निर्भर रहते थे। हाँ, यह बात अवश्य थी कि परिवार के लोग यथाशक्ति उन्हें दान-दाक्षिणा दे जाते थे, लेकिन उससे भला ही क्या होता था ? झोपड़ियों में रहने वाले ऐसे दीन-हीन और दुःखियों का करुण प्रलाप और करुण क्रन्दन सुनने वालों को काफी कष्टदायी प्रतीत होता था कभी-कभी।
लेकिन इस प्रसंग में एक बात अवश्य कहूँगा कि उस काल में काशी का जो आध्यात्मिक वातावरण था और जो आत्मिक शान्ति थी, वह अब नहीं है।
प्रथम बार काशी के एक परिवार में जन्म लिया था मैंने. पिता का नाम था शंकर भट्ट। माता थी और चार भाई-बहन थे। सबसे बड़ा मैं ही था। गायघाट के ऊपर एक गली में मेरा अपना मकान था। मकान में ही पाठशाला खोल रखी थी पिताजी ने।
मैं भी पढ़ता था उसी पाठशाला में। थोड़े ही समय में अमरकोष, अष्टाध्यायी, लघुकौमुदी और संस्कृत के कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ कण्ठस्थ हो गए मुझे, लेकिन बाद में मेरा मन उचाट हो गया पढ़ने-लिखने से। साधू-सन्यासियों और सन्त-महात्माओं के निकट रहकर उनकी धर्म और अध्यात्म सम्बन्धी बातें सुनना अच्छा लगता था मुझे।
प्रायः उच्चकोटि के सिद्ध-साधकों और सन्त-महात्माओं की खोज में भटकता रहता था मैं काशी के घाटों पर। घण्टों घाटों की सीढ़ियों पर मौन साधे बैठा रहता था चिन्तन-मनन में डूबा हुआ। किसी भी प्रकार की सांसारिक प्रवृत्ति नहीं रह गयी थी मुझमें। लीन होता जा रहा था मैं अपने- आप में।
मेरी यह प्रवृत्ति देखकर माता-पिता ने मेरा विवाह कर दिया, इसलिए कि मैं कहीं साधू-सन्यासी न हो जाऊं।
पत्नी का नाम शीला था। सचमुच शीलता, विनम्रता और सज्जनता की साकार देवी थी वह–इसमें संदेह नहीं। चार-पांच साल तक पत्नी-धर्म का निर्वाह किया उसने। उसके बाद सदैव के लिए मेरा साथ छोड़कर चली गयी।
पहले से ही विरक्त था मैं संसार से, पत्नी की असामयिक मृत्यु ने और अधिक विरक्त बना दिया मुझे। माया-मोह अथवा किसी प्रकार का आकर्षण नहीं रह गया था मेरे मन में संसार की किसी वस्तु के प्रति। वास्तव में वैराग्य की चरम सीमा पर पहुँच गयी थी मेरी आत्मा–इसमें सन्देह नहीं।
गम्भीरता से स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती की बातें सुनता रहा मैं. फिर मैंने कहा–अब जो कुछ वे कह रहे थे, उसमें कौतूहल का भाव नहीं था, जिज्ञासा का भाव था। मैं जिज्ञासु हो उठा हूँ अब एकबारगी। और बताईये.
वे बोले : कार्तिक मास का आरम्भ हो गया था। घाटों पर आकाश-दीप जलने लगे थे। स्नानार्थियों की भीड़ स्नान और धर्मानुष्ठान के लिए उमड़ने लगी थी। काशी के मन्दिरों में पूजन, अर्चन, कथा, प्रवचन, विभिन्न स्थानों पर साधुओं के यज्ञ और गंगा पर मोक्षार्थियों के और साधकों के कल्पवास का मनोरम धार्मिक परिदृश्य आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा था।
कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक काशी में विभिन्न प्रकार के साधकों की गतिविधियां जनसाधारण के लिए अनूठी, कौतूहलपूर्ण और आश्चर्यजनक होती थीं। यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि तांत्रिक साधना के लिए हजारों सालों से काशी की अपनी विशेषता रही है।
प्रायः सभी साधकों ने काशी में रहकर साधना की है। सम्पूर्ण भारत में तीन शक्तिपीठों में नेपाल, काशी और कामरूप (कामाख्या) को त्रिकोण माना गया है।
त्रिकोण का अर्थ है–इच्छा, ज्ञान और क्रिया। इन तीन शक्तियों द्वारा महाशक्ति का सानिध्य प्राप्त करना। यही कारण है कि प्रायः सभी साधना-पथ के साधक कार्तिक मास में अमावस्या तक यहां आकर गुरु द्वारा निर्धारित स्थानों पर दीपावली पर्यन्त साधना करते थे उस समय। इन साधकों में वैष्णव, शाक्त, शैव–सभी होते थे। इसके अलावा ‘पंचमकार’ के प्रेमी कापालिकों की भी अपार संख्या देखी जाती थी। वे श्मशान और उसके चारों ओर अपना डेरा डाल लेते थे। उनकी साधना-उपासना बहुत डरावनी होती थी।

  काफी समय हो गया था बातचीत करते हुए हम लोगों को। दोपहर हो चुकी थी। स्वामीजी शायद मेरा आशय समझ गए थे। बगल में अपने लटकाए सर्वोदयी थैले में से केले और अन्य कुछ फल निकाले। उन्होंने भी खाए और मुझे भी दिए। फिर बात आगे शुरू हुई।
   सामान्यतया जन-मानस के लिए साधू, भिक्षुकों, पागलों एवं साधकों के बीच भेद करना सरल नहीं है। पर सूक्ष्म दृष्टि जिनके पास है, उनसे वे छिपे नहीं रह पाते। प्रायः दिनभर वे साधक सामान्य यात्रियों की तरह नगर में भ्रमण करते रहते थे। सायंकाल होते ही उनके क्रिया-कलाप बदलने लगते थे और अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर साधना-क्रम में जुट जाते थे।
   अभी तक ऐसे साधकों में मुझे एक कापालिक साधक मिला था। सचमुच वह एक सिद्ध कापालिक था। नाम था उसका--शिवानन्द कापालिक। काशी में साधना-स्थल था उसका गंगा-वरुणा संगम पर स्थित एक छोटा-सा श्मशान।
  वहां उस श्मशान में कभी-कदा ही कोई चिता जलती थी। वैसे वह प्रायः सुनसान ही रहता था। शिवानन्द कापालिक ने उसी सुनसान श्मशान में बना रखी थी अपनी छोटी-सी झोपड़ी।
  काशी को 'आनन्दवन महाश्मशान' कहा गया है। अर्धचंद्राकार गंगातट पर बसा यह महाश्मशान सिद्धों और साधकों को सर्वाधिक प्रिय रहा है आरम्भ से ही। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बनारस या वाराणसी काशी नहीं है।
  साधक भली-भाँति यह जानते थे कि वाराणसी में अन्तर्निहित सूक्ष्म सिद्ध स्थल कहाँ है और वे अपने गुरु के साथ वहीं साधना करते थे। अघोर मार्गीय साधकों यानी अघोरियों का सर्वाधिक प्रिय क्षेत्र अस्सीघाट से हरिश्चन्द्र घाट तक था।
    शाक्त और वैष्णव साधक मणिकर्णिका घाट से पंचगंगा घाट तक साधना करते थे। दीपावली में जपानुष्ठान पूर्ण करने के बाद अन्नकूट का दर्शन कर वापस लौट जाते थे सभी वर्गों के साधक।

  स्वामी अखिलेश्वरानंद  सरस्वती ने थोड़ा रुककर आगे कहा--सर्वसाधारण के लिए तन्त्र या तांत्रिक कौतूहल या चमत्कार है। तांत्रिकों से वे विभिन्न प्रकार के चमत्कारों की अपेक्षा करते हैं। पर वस्तुतः तन्त्र का अभीष्ट चमत्कार-प्रदर्शन नही है। तन्त्र प्रकृति की पराशक्ति के उद्घाटन का कंटकाकीर्ण मार्ग है।
   _प्रायः प्रारंभिक अवस्था में ही साधक सामान्य सिद्धियों के जाल में फंसकर पथभ्रष्ट हो जाता है। अभी भी काशी में आपको ऐसे बहुत-से पथभ्रष्ट साधक विक्षिप्त अवस्था में भटकते हुए मिल जाएंगे जिन्होंने सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने में अपनी अमूल्य सिद्धियां गवां दीं।_
     शिवानन्द कापालिक को ही लीजिए--स्वामी अखिलेश्वरानंद सरस्वती बोले--जैसा कि मैंने कहा कि वह वास्तव में एक सिद्ध साधक था। कई दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त थीं उस कापालिक को--इसमें सन्देह नहीं।
    दीपावली की रात के समय बुलाया था मुझे शराब की बोतल लेकर। उस समय गायघाट के आगे गंगा-वरुणा संगम और उसके भी आगे खेत और जंगल-ही-जंगल थे। सांझ होते ही उधर जाना बन्द कर देते थे लोग भय के कारण लेकिन मैं निडर होकर थैले में बोतल लटकाये गया कापालिक की झोपड़ी पर। चारों तरफ गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था।
   किसी प्रकार वरुणा नदी पार की मैंने और जब थोड़ा आगे बढ़ा तो सामने का दृश्य देखकर आश्चर्य और कौतूहल के मिले-जुले भाव से भर उठा मैं। उस छोटे-से श्मशान में दर्जनों चिताएँ एक साथ 'धू-धू' कर जल रही थीं। उनमें से निकलने वाली लाल-पीली लपटें आकाश को छूने की कोशिश कर रही थीं।
    खड़ा-खड़ा काफी देर तक देखता रहा उन चिताओं को जलते हुये। लगा--जैसे वे चिताएँ कभी बुझेगी नहीं। सोचने लगा--उस छोटे-से उपेक्षित श्मशान  में कभी-कदा किसी गरीब की लाश जलती थी, लेकिन आज इतनी लाशें कहाँ से आ गयीं इस मरघट पर और तभी कापालिक शिवानन्द की आवाज़ सुनाई दी।
     वह बुला रहा था मुझे। उसकी झोपड़ी के सामने ही तमाम चिताएँ जल रही थीं। किसी प्रकार गया मैं उसके पास। वातावरण में दुर्गन्ध-ही-दुर्गन्ध, त्रिशूल जमीन में धँसाये धूनी रमाये अपने मृग-चर्म पर बैठा था कापालिक शिवानन्द मदिरा-पान कर रहा था। उसके सामने एक नंग-धड़ंग व्यक्ति बैठा हुआ था। उसके पीले हो रहे कंकाल जैसे  शरीर पर एक लंगोटी थी बस।
    वह भी शराब पी रहा था कापालिक के साथ। अब पहले से ज्यादा हवा में लहरा रही थीं चिताओं की लाल-पीली लपटें। बड़ा ही विचित्र और भयानक था वातावरण। कापालिक ने मेरे हाथ से शराब वाला थैला ले लिया और उसमें से एक बोतल निकालकर खोली, फिर "जय भैरवनाथ की" कहकर गट-गट कर पीने लगा शराब।
  हे भगवान ! यह क्या ! कापालिक के शराब पीते ही अब तक जलती हुई सारी चिताएँ अचानक गायब हो गयीं और सूना हो गया एकबारगी श्मशान। बड़ा ही विलक्षण चमत्कार था वह। मेरे आश्चर्य और कौतूहल की सीमा नहीं रही। कापालिक मुस्करा रहा था मन्द-मन्द उस समय।
   नशे के कारण उसकी आंखें लाल हो रही थीं। मेरे चेहरे पर भय, कौतूहल और आश्चर्य के मिले-जुले भाव देखकर वह रहस्यमय कापालिक बोला--तुमको आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। मैंने तो केवल अपनी साधना के लिए अतीत को वर्तमान में ला दिया था। केवल एक हज़ार वर्ष पूर्व इस श्मशान में इसी प्रकार प्रायः नित्य चिताएँ जला करती थीं।
   उस समय काशी का विस्तार उत्तर पश्चिम की ओर अधिक था। यह सुनकर अवाक रह गया मैं। कुछ बोला न गया मुझसे। मौन साधे उस रहस्यमय कापालिक की ओर देखता रहा।
  अपने स्थान से उठते हुए वह कापालिक बोला--आज कार्तिक शुक्लपक्ष की चतुर्थी है। अब मेरा काशी में रहना उचित नहीं। तुमको तो काशी में अभी कई बार जन्म लेना है। कभी किसी जन्म में अवश्य तुमसे फिर भेंट होगी--इतना कहकर उसने "अलखनिरंजन" का उद्घोष किया और पश्चिम की ओर बढ़ गया। उसे जाते हुए अपलक देखता रहा मैं।

  क्या आपकी किसी जन्म में कापालिक से फिर भेंट हुई ?-- मैंने स्वामी अखिलेस्वरानंद सरस्वती से प्रश्न किया।
  अखिलेस्वरानंद सरस्वती ने कहा--नहीं विकास, अभी तो नहीं, लेकिन मुझे आशा और विश्वास दोनों हैं कि इस जन्म में अवश्य दर्शन होगा उस रहस्यमय कापालिक का और इसी काशी में।
  अच्छा।
  हाँ, इसमें सन्देह नहीं।

अष्टवसु-मण्डल :
अष्टवसु-मण्डल किसे कहते हैं ?
मेरे इस प्रश्न के उत्तर में महात्माजी ने बतलाया–
सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड अठारह महाभागों में विभक्त है। श्रीमदभगवद्गीता के अठारह अध्यायों से उनका आध्यात्मिक सम्बन्ध समझना चाहिए। प्रथम छः महाभागों के अधिपति ‘ब्रह्मा’ हैं, दूसरे छः महाभागों के अधिपति विष्णु हैं और अन्तिम छः महाभागों के अधिपति महेश हैं।
ब्रह्मा से सम्बंधित महाभागों को ‘ब्रह्मक्षेत्र’,विष्णु से सम्बंधित महाभागों को ‘विष्णुक्षेत्र’ शिव से सम्बंधित महाभागों को ‘शिवक्षेत्र’ कहते हैं। वैदिक विज्ञान के अनुसार इन तीनों क्षेत्रों को ऋकमण्डल, यजुर्मण्डल और साममण्डल कहते हैं। इन तीनों मण्डलों के जो सीमावृत्त हैं, उन्हें ‘छन्द’ कहते हैं। पहले मण्डल के सीमावृत्त को ‘गायत्री छन्द’, दूसरे मण्डल के सीमावृत्त को ‘अनुष्टुप छन्द’ कहते हैं। इसी प्रकार तीसरे मण्डल के सीमावृत्त को कहते हैं–‘वृहती छन्द’।
तीन छंदों में बंधे हुए तीनों मण्डल परमज्ञान स्वरूप हैं जिनकी अभिव्यक्ति ‘ऋग्वेद’, ‘यजुर्वेद और ‘सामवेद’ के रूप में हुई है। इन तीनों मण्डलों के अपने-अपने उपमंडल हैं जिनको क्रमशः कहते हैं–सप्तर्षि मण्डल, ध्रुवमण्डल और ऋषिमण्डल। उपर्युक्त सभी मण्डलों और उपमण्डलों का सम्वन्ध ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के माध्यम से मानव मस्तिष्क के तीनों भागों से है।
मानव मस्तिष्क कितना रहस्यमय है ?–इसी से समझा जा सकता है। इसीलिए कहा गया है कि मानव मस्तिष्क विश्वब्रह्माण्ड का लघु संस्करण है.
विश्वब्रह्माण्ड का अन्तिम जो भाग है, वह आठ खण्डों में विभाजित है। वैदिक विज्ञान के अनुसार उन आठ खण्डों को ‘अष्टवसु-मण्डल’ कहते हैं। प्रत्येक मण्डल का एक अधिपति होता है जिसे ‘वसु’ कहते हैं। अष्टवसु आठों दिशाओं के रक्षक और देवस्वरूप हैं। इसके अतिरिक्त भगवान विष्णु के सहचर और गणेश के गण हैं। इसीलिए गणेश का नाम ‘गणपति’ है।
द्वापर युग में प्रथम वसुमण्डल के अधिपति ‘वसु’ ने अपने-वासुदेव (कृष्ण) के रूप में पृथ्वी पर अवतार लिया था। जब इनके माध्यम से भगवान विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया था तो उनकी सहायता के लिए सातों वसुओं ने इनके भाई के रूप में देवकी के गर्भ से जन्म लिया था जिनका वध कंस के द्वारा हुआ था।
मण्डलों में प्रथम मण्डल है–भू-मण्डल जिसे पृथ्वी, धरती या भूलोक कहते हैं। इसमें ‘कर्मयोग’ प्रधान है, विशेषरूप से कर्म की प्रधानता है और यही कारण है कि अन्य वसु-मण्डलों से अधिक इस भू-मण्डल का महत्व है। यह कर्म-क्षेत्र है।
अन्य वसु-मण्डल तप-क्षेत्र, साधना-क्षेत्र और भोग-क्षेत्र हैं। भू-मण्डल ही एकमात्र ‘पृथ्वीतत्व’ प्रधान है और इसलिए ही दृश्यमान है। इसके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण तत्व ‘मनस्तत्व’ भी केवल भू-मण्डल में ही है, अन्यत्र नहीं। महत्वपूर्ण ‘मनस्तत्व’ को ग्रहण करने वाला एकमात्र मनुष्य है और कोई नहीं है इस भू-मण्डल में। ‘मन’ जिसके पास है, वही मनुष्य है।
मनुष्य का शरीर ही एकमात्र ऐसा शरीर है जो कर्म-शरीर भी है और भोग-शरीर भी। यही कारण है कि विश्वब्रह्माण्ड के अन्तर्गत जितने भी लोक-लोकांतर में निवास करने वाले प्राणी हैं, वे सभी मानव शरीर को उपलब्ध होना चाहते हैं। यहां तक ‘परब्रह्म परमात्मा’ को भी नर-देह धारण कर जगत-कल्याण के लिए अपनी लीला करनी पड़ी।
कर्म-क्षेत्र होने के कारण और कर्म की प्रधानता के होने के कारण इस संसार में जन्म-मृत्यु और आवागमन के अतिरिक्त दुःख-सुख, कष्ट, क्लेश और मानसिक व शारीरिक रोग आदि हैं। मैथुनी सृष्टि भी इसी भू-मण्डल में है, अन्यत्र नहीं।

मैंने पूछा–जन्म, मरण और मैथुनी सृष्टि भू-मण्डल से अन्यत्र नहीं है तो प्रकृति के नियमों का पालन कैसे होता है ?
महात्माजी ने बतलाया–भू-मण्डल जैसी प्रकृति सब जगह नहीं है। जितने भी लोक-लोकान्तर हैं और जितने भी जगत हैं, उन सबकी प्रकृति भिन्न है, उनके स्तर और आयाम भी भिन्न हैं। तुमको पहले यह जान लेना चाहिये कि ‘आत्मा’ क्या है ? ‘आत्मतत्व’ क्या है ?

  वास्तव में 'आत्मा' परब्रह्म से आविर्भूत एक 'परमतत्व' है जो प्रकाश-स्वरूप है। वह आत्मा का प्रकाश परमात्मा का प्रकाश है। तात्पर्य यह है कि आत्मा किसी अन्य से प्रकाशित नहीं, स्वप्रकाशित है जैसे सूर्य। सूर्य स्वप्रकाशित है। इसके प्रकाश से अन्य बहुत सारे ग्रह-नक्षत्र और चराचर जगत प्रकाशित होते हैं।
  आत्मा वास्तव में एक ऐसा प्रकाश-पुंज रूप है जो स्थूल दृष्टि से दिखलायी नहीं दे सकता, उसी प्रकार जैसे की 'गामारेज'। एक लोक से दूसरे लोक अथवा एक जगत से दूसरे जगत में प्रकाश-पुंज के रूप में प्रवेश करती हैं और प्रवेश करने के बाद वहां के प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप वहां के तत्व का आश्रय लेकर उस लोक अथवा जगत के शरीर का निर्माण स्वयं कर लेती हैं।
  यथासमय प्रकाश-पुंज में परिवर्तित होकर संस्कारानुसार अन्य किसी लोक में चली जाती हैं। यही लोक-लोकान्तरों का जन्म-मृत्यु अथवा आवागमन है।

💦भू-मण्डल के अन्तर्गत तीन जगत :
स्थूल जगत, वासना जगत (प्रेत जगत) और सूक्ष्म जगत–इन तीनों जगतों से सम्बंधित तीन शरीर भी हैं–1- स्थूल शरीर या भौतिक शरीर या पार्थिव शरीर, 2- वासना शरीर (प्रेत शरीर) और 3- सूक्ष्म शरीर। मरण-काल में स्थूल शरीर से सर्वप्रथम एक-के-बाद-एक प्राण बाहर निकलते हैं और स्थूल शरीर जैसा वासना शरीर की रचना कर लेते हैं।
रचना कर लेने के बाद प्रकाश-पुंज के रूप में आत्मा तत्काल स्थूल शरीर को छोड़कर वासना शरीर को उपलब्ध हो जाती है।
यहां यह बतला देना आवश्यक है कि जीवन-काल में स्थूल शरीर के साथ वासना शरीर और सूक्ष्म शरीर–दोनों दूध और पानी की तरह घुले-मिले रहते हैं। ‘प्राणतत्व’ ही एक ऐसा तत्व है जिसके सूत्र में तीनों शरीर जीवन-काल में एक-दूसरे से बंधे रहते हैं।
समयानुसार स्थूल शरीर की तरह वासना शरीर को भी आत्मा छोड़ देती है और सूक्ष्म शरीर को हो जाती है उपलब्ध। इसी अवस्था को कहते हैं–‘प्रेत-मुक्ति’। सूक्ष्म शरीर द्वारा आत्मा भू-मण्डल में तब तक भटकती है जब तक उसे पुनर्जन्म के लिए अपने संस्कारों के अनुरूप गर्भ उपलब्ध नहीं हो जाता है।

  यह निश्चित है कि सूक्ष्म शरीर में आत्मा की शक्ति काफी प्रबल हो उठती है। सूक्ष्म शरीर के माध्यम से प्रकाश की गति से  वह कहीं भी आ-जा सकती है। अपने अनुकूल किसी भी जीवित व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर अपने प्रयोजन या अपनी कामना को पूर्ण कर सकती है। वैसे सूक्ष्म शरीर की भी अपनी एक सीमा है और वह सीमा भू-मण्डल तक ही है। उसके बाहर वह कहीं नहीं जा सकती। इससे स्पष्ट है कि मृत्यु के बाद आत्मा पृथ्वी (भू-मण्डल) पर ही रहती है, अन्य किसी लोक-लोकांतर मेँ नहीं जाती।
    वासना और सूक्ष्म शरीरों द्वारा उसका अस्तित्व भू-मण्डल के किसी-न-किसी क्षेत्र में बना रहता है। साधारण आत्मा के लिये भू-मण्डल की सीमा पार कर पाना कठिन ही है। इसके लिए मनोबल, तपोबल और आत्मबल चाहिए।
  सूक्ष्मदेही आत्मा सूक्ष्म जगत में अपने मनोनुकूल सृष्टि कर लेती है। जैसे वातावरण की इच्छा उसे होती है, वैसा वातावरण भी वह बना लेती है और उसमें ही वह रहती है। वह सृष्टि अथवा वह वातावरण बिल्कुल वैसा ही होता है जैसा कि उसके जीवन-काल में रहता है। सृष्टि और वातावरण आत्मा के स्वभाव, संस्कार और चरित्र पर निर्भर करता है।

जीवन-काल में मनुष्य जैसे अपनी कल्पना के आधार पर सुख-सुविधा की व्यवस्था कर लेता है, वैसे ही मरने के बाद भी अपने लिए सारी व्यवस्था कर लेता है वह। सच तो यह है कि मनुष्य भीतर जैसा है, वैसा ही वातावरण भी अपने-आप सृजित हो जाता है उसके लिए।
निश्चित ही मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच भी एक जीवन है–एक ऐसा जीवन जो भौतिक जीवन के समान ही होता है–इसमें सन्देह नहीं।

अन्यलोक गमन में बाधक एकमात्र सूक्ष्म शरीर :
तीन शरीर (स्थूल, वासना और सूक्ष्म) के अतिरिक्त दो और शरीर हैं जो अपने-आप में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये दो शरीर हैं–मनोमय शरीर और आत्म शरीर। योग-विज्ञान के अनुसार–वसना शरीर, सूक्ष्म शरीर, मनोमय शरीर और आत्म शरीर बीज रूप में स्थूल शरीर में विद्यमान रहते हैं। इन शरीरों को ‘कोष’ कहते हैं। पहला है–‘अन्नमय कोष’। इसी कोष का संस्कार रूप है अन्न के तत्वों से निर्मित स्थूल शरीर।
जैसे स्थूल शरीर का निर्माण अणुओं के समूहों से होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर की रचना होती है परमाणुओं के सूक्ष्मतम वैद्युतिक कणों से और उन्हीं वैद्युतिक कणों के प्रभावों में विद्यमान रहते हैं पिछले कई जन्मों के हमारे अच्छे-बुरे कर्मों के संस्कार हमारा ज्ञान, विद्वता, हमारे अनुभव, हमारे अच्छे-बुरे भाव और इन सबके अतिरिक्त रहती हैं–हमारी वासनाएं, हमारी कामनाएं, हमारी इच्छाएं, हमारी, आशाएं, हमारी आकांक्षाए, हमारी अभिलाषाएं और हम अपने जीवन-काल में जो कुछ रहे हैं, उन
सबका ‘सार-तत्व’।

अब प्रश्न यह है कि सूक्ष्म शरीर होता कैसा है ?
जैसे स्थूल शरीर चमड़ी का है और उसके भीतर नस-नाड़ियां, रक्त, मांस और हड्डियां आदि भरे होते हैं, उसी प्रकार प्राण-ऊर्जा के भीतर वैद्युतिक कण समाये रहते हैं। प्राण-ऊर्जा से निर्मित सूक्ष्म शरीर का आकार-प्रकार और रूप-रंग वर्तमान में उसके द्वारा छोड़े गए मृत स्थूल शरीर जैसा ही होता है। किंचित मात्र दोनों में अंतर नहीं होता और वही सूक्ष्म शरीर समयानुसार जब अगले जन्म में नवीन स्थूल शरीर धारण करता है तो उसका आकार-प्रकार, रूप-रंग उसी नए स्थूल शरीर के अनुरूप हो जाता है।
आत्मा एक स्वतंत्र सत्ता है। शरीर परतंत्र है। वह कभी स्वतंत्र नहीं हो सकता। मन भी परतंत्र है, लेकिन प्रयास करने पर वह स्वतंत्र हो सकता है। आत्मा सदैव स्वतंत्र है। वह कभी भी और किसी भी अवस्था में परतंत्र नहीं हो सकती–चाहे शरीर कोई भी हो, अवस्था के अनुसार वह स्वरूप और शरीर बदलती रहती है बराबर।
वैसे आत्मा के वाहक रूप में सात शरीर हैं जिनमें प्रथम दो शरीर (स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर) आत्मा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, इसलिये कि स्थूल शरीर कर्म-शरीर है और सूक्ष्म शरीर है–भोग-शरीर। जीवन भर कर्म तो करता है स्थूल शरीर, लेकिन उसका भोग करता है स्थूल शरीर के साथ उसके भीतर दूध-पानी की तरह मिला हुआ सूक्ष्म शरीर भी। मृत अवस्था में जब वह स्थूल शरीर से अलग हो जाता है तो कर्म-फलों का शेष अंश भोगता है। शेष कर्म-फल वही होते हैं जिनको भोगने का अवसर जीवन-काल में नहीं हो पाता है।
जन्म-मृत्यु के मूल में अथवा आवागमन के मूल में कर्म और उसके फल तथा उसके परिणाम का भोग ही समझना चाहिए। स्थूल शरीर माता-पिता से प्राप्त होता है और जन्म लेता है। उसकी अपनी एक सीमा है, अपनी सामर्थ्य है, उतने ही दिन वह एक यन्त्र की तरह चलता और फिर रक दिन समाप्त हो जाता है। जिसे हम जीवन कहते हैं–वह स्थूल शरीर की अपनी यात्रा है जो जन्म से शुरू होती है और समाप्त होती है मृत्यु के तट पर।
दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर पिछले जन्म से आता है और वही यात्रा भी करता है इस संसार में और लोक-लोकान्तरों में और वही शेष कर्मो के फलों को भी भोगता है–अच्छे फलों को भोगता है सुख के रूप में और बुरे फलों के रूप में भोगता है दुःख, कष्ट और यातना के रूप में।
इन्ही दोनों स्थितियों को हमारे धर्म-ग्रन्थों में ‘स्वर्ग’ और ‘नर्क’ की संज्ञा दी गयी है। स्वर्ग और नर्क कोई विशेष स्थान नहीं है। अच्छे-बुरे कर्म-फल ही स्वयं को भोगने के लिए उसी प्रकार के वातावरण की सृष्टि कर लेते हैं।
भोग-काल में यदि सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीर उपलब्ध हो गया तो वह स्थूल शरीर के माध्यम से कर्म-फलों को भोगता है जीवन-काल में। इसी को कहते हैं–‘नियति’ अथवा ‘प्रारब्ध’।
गर्भ में स्थित स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर का प्रवेश एक अपूर्व प्राकृतिक घटना है जो अपने-आप में स्वचालित है। जैसे जल अपने स्वभाव के अनुसार अपने-आप नीचे की ओर प्रवाहित हो जाता है, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर भी अपने योग्य और अनुकूल स्थूल शरीर को हो जाता है उपलब्ध।
आत्मा को स्थूल शरीर की प्राप्ति तथा भौतिक जीवन जीने के लिये सूक्ष्म शरीर आवश्यक है। सूक्ष्म शरीर के अभाव में आत्मा न स्थूल शरीर को प्राप्त कर सकती है और न तो भौतिक जीवन जीने के अवसर को ही हो सकती है उपलब्ध। यदि किसी प्रकार सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व समाप्त हो जाये तो आत्मा के लिए स्थूल शरीर प्राप्त कर पाना पूर्णतया असंभव हो जाता है। सूक्ष्म शरीर का विसर्जन होने पर दो अपूर्व आध्यात्मिक घटनाएं घटतीं हैं।
पहली यह कि आत्मा सदैव के लिए आवागमन से मुक्त हो जाती है। जन्म और मृत्यु उसके लिए कोई महत्व नहीं रखते। दोनों का अभाव हो जाता है। सदैव के लिए स्थूल शरीर से मुक्त हो जाती है और उपलब्ध हो जाती सदैव के लिए अपने कारण शरीर को।

कारण शरीर :
कारण शरीर को ‘लिंग शरीर’ भी कहते हैं। कारण शरीर एक ऐसे केन्द्रबिन्दु पर है जिसके एक ओर सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर है और दूसरी ओर है–मनोमय शरीर और आत्म शरीर। कारण शरीर को उपलब्ध होने पर आत्मा का किसी भी प्रकार से सम्बन्ध नहीं रह जाता है न स्थूल शरीर से और न तो सूक्ष्म शरीर से।
सूक्ष्म शरीर ही जन्म, जीवन और पुनर्जन्म का कारण है। जब वह भी स्थूल शरीर की तरह नष्ट हो जाता है तो आत्मा के लिए फिर मानव शरीर में जन्म लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरी आध्यात्मिक घटना यह घटती है कि आत्मा और परमात्मा के बीच जो दूरी थी, जो सीमा थी, वह सदैव के लिए हो जाती है समाप्त।
कारण शरीर को उपलब्ध आत्मा के लिए अधोगामी मार्ग बन्द हो जाता है। उसका अपना कारण शरीर तो होता ही है, उसके साथ संलग्न रहता है मनोमय शरीर और आत्म शरीर भी उसी प्रकार जैसे स्थूल शरीर के साथ दूध-पानी की तरह मिला रहता है वासना शरीर और सूक्ष्म शरीर।
जैसा कि तुमको बतला चुका हूँ कि ब्रह्माण्ड का छः महाभाग ‘शिवक्षेत्र’ है। कारण शरीर की ऊर्ध्वगामी यात्रा शिवक्षेत्र की यात्रा है। उस यात्रा की सीमा पर पहुँच कर आत्मा कारण शरीर को त्यागकर मनोमय शरीर धारण करती है और उसके द्वारा यात्रा करती है विष्णुक्षेत्र की और जब विष्णुक्षेत्र की भी सीमा समाप्त हो जाती है तो उस अवस्था में आत्मा अपने निज शरीर यानी आत्मशरीर द्वारा ब्रह्मक्षेत्र की करती है यात्रा। इस यात्रा के पूर्ण हो जाने पर आत्मा को जो शरीर प्राप्त होता है, वह है–ब्रह्माण्डीय शरीर यानी (ब्रह्म शरीर) कॉस्मिक बॉडी।
यहां यह बतला देना आवश्यक है कि सूक्ष्म शरीर तक आत्मा की अधोगामी यात्रा है और सूक्ष्म शरीर के नष्ट होने के बाद जब शरीर को कारण शरीर उपलब्ध होता है तो उसकी ऊर्ध्वगामी यात्रा आरम्भ होती है। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जितनी भी योग-तन्त्र की साधनाएं हैं, उन सभी का उद्देश्य है–सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व का नाश।
न सूक्ष्म शरीर रहेगा और न तो फिर फँसना पड़ेगा भव-चक्र के माया-जाल में आत्मा को। न जन्म होगा और न तो फिर होगी मृत्यु ही। हमेशा के लिए छूट जाएगा स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर का बन्धन भी। समस्त साधनाओं की सबसे बड़ी प्रथम उपलब्धि है–सूक्ष्म शरीर से मुक्ति। सूक्ष्म शरीर से छुटकारा होने का मतलब है–आवागमन से मुक्ति या जन्म-मरण और पुनर्जन्म से मुक्ति।
इस संसार में जितने भी सिद्ध, महात्मा, योगी और सन्त, साधक हुए हैं, उन सभी के जीवन का एकमात्र लक्ष्य रहा है–सदैव के लिए सूक्ष्म शरीर का विसर्जन।

पितर लोक :
स्वामीजी थोड़ा ठहर कर आगे बोले–
एक दूसरे प्रसंग में मैं यह भी बतला देना आवश्यक समझता हूं कि कारण शरीर में तीन भाग ‘प्राणतत्व’ और एक भाग ‘मनस्तत्व’ रहता है। उसमें किसी भी प्रकार की भौतिक वासना नहीं रहती। केवल रहता है ‘मैं’ का भाव, ‘मैं’ का बोध और उस भाव में पिछले कई जन्म-जन्मान्तर के रहते हैं आध्यात्मिक संस्कारों के ‘मूलतत्व’ जिनसे आत्मा के ऊर्ध्वलोक में जाने के लिये प्राप्त होती है गति।
भू-मण्डल पहला वसुमण्डल है। पहले और दूसरे वसुमण्डल की सीमा पर भू-लोक जैसे प्राकृतिक वातावरण का एक सूक्ष्मलोक है जिसे ‘पितरलोक’ कहते हैं। पितरलोक दो भागों में विभक्त है जिनको ऊर्ध्वभाग और अधोभाग कहते हैं। ऊर्ध्वभाग में नित्य पितरगण निवास करते हैं और अधोभाग में निवास करते हैं नैमित्तिक पितरगण। ऊर्ध्वभाग में सदैव सूर्योदय रहता है लेकिन अधोभाग में केवल रहता है सूर्योदय मात्र पन्द्रह दिन। उन्हीं पन्द्रह दिनों को ‘पितर-पक्ष’ की संज्ञा दी गयी है।
पितर-पक्ष के अतिरिक्त दिनों में वहां रात्रि रहती है। सम्पूर्ण अधोभाग रात्रि के अंधकार में लीन रहता है।
नित्य पितरगण पितर-लोक के मूल निवासी हैं। वे सदैव अपने लोक में बने रहते हैं, न ऊपर के लोकों में जाते हैं और न तो नीचे के लोकों में आते हैं। वे अपने स्थान पर स्थिर रहते हैं। उनका शरीर अग्नितत्व प्रधान होता है। उनके शरीर का रंग तांबे जैसा होता है और आकार-प्रकार मनुष्य जैसा ही होता है।
वे श्वेत वस्त्रधारी होते हैं। कुण्डली रूप में और फन उठाये सर्प के रूप का रत्नजड़ित मुकुट धारण करते हैं वे। सौम्य, शान्त, गम्भीर और आकर्षक व्यक्तित्व होता है उनका। शास्त्रों में उन्हें गोत्र की संज्ञा दी गयी है। गोत्रों की वंशावली में ही पृथ्वी पर फैला हुआ भिन्न-भिन्न मानव समाज और भिन्न-भिन्न मानव जातियाँ हैं। नित्य पितर-गण वास्तव में समस्त मानव जाति के लिए सदैव कल्याणकारी भावना ही रखते हैं।
स्वामीजी ने कहा–जैसा कि बतला चुका हूं–पितर-लोक का अधोभाग अनित्य पितरों का निवास स्थान है।
कौन हैं अनित्य पितर ?
स्वामी अखिलेस्वरानंद के इस प्रश्न के उत्तर में महात्माजी ने बतलाया–
मृत्योपरांत आत्मा कुछ समय के लिए वासना-लोक अथवा प्रेत-लोक में निवास करती है भले ही वह आत्मा किसी भी कोटि की क्यों न हो। वासना-क्षय होने के पश्चात सूक्ष्मलोक में प्रवेश करती है और तब तक वहां निवास करती है जब तक उसे भौतिक जगत में गर्भ उपलब्ध नहीं हो जाता।
गर्भ कब उपलब्ध होता है ?–यह निश्चित नहीं है। यदि दीर्घकाल तक वह आत्मा जन्म न ले सकी तो वह पितर बन जाती है और पितर-लोक में रहने के लिए चली जाती है। उसे ही ‘पित्रात्मा’ कहते हैं। पित्रात्मा कब पितर-लोक से भू-लोक में आकर मानव शरीर धारण करेगी–यह निश्चित नहीं है।

  यह कहना आतिशयोक्ति न होगी कि देवता से अधिक पितर मनुष्य के अधिक नजदीक हैं, देवता से अधिक सहायता भी करते हैं अपने परिवार की। अपने परिवार के सदस्यों की रक्षा करना, रोग-शोक से उनको दूर रखना, वंश-परंपरा को बनाये रखना, शुभ और मांगलिक कार्यों में आने वाले विघ्न-बाधायों का निवारण करना पित्रात्मा के कर्तव्य होते हैं।
   अपने परिवार से केवल यही आशा रखती है पित्रात्मा कि परिवार के लोग उसे बराबर याद रखें। उसके निमित्त ब्राह्मण भोजन, दान-पुण्य आदि कार्य उसकी पुण्यतिथि पर करें। परिवार वाले जब ऐसा नहीं करते तो पित्रात्मा अपने परिवार को तरह-तरह से कष्ट पहुंचाती है, दुःख देती है। इसी को 'पितर-बाधा' कहते हैं। जिस परिवार में पितर-बाधा रहती है, वह परिवार किसी-न-किसी प्रकार का कष्ट, दुःख, क्लेश भोगता ही रहता है.
    _मतभेद व तनाव आदि कोई-न-कोई व्याधि बराबर बनी रहती है परिवार में। अपने पराए हो जाते हैं, मित्र भी शत्रु हो जाते हैं, आदि-आदि._

द्वितीय वसुमंडल :
महात्माजी बोले–दूसरे वसु-मण्डल के विषय में बतला ही चुका हूँ मैं। इस मण्डल में दो प्रकार के लोग हैं। पहले तो वे हैं जो यहां के मूल निवासी हैं और दूसरे वे जो भू-मण्डल से अपनी साधना पूर्ण करने के लिए यहां आते हैं। जिस साधक की किसी कारणवश साधना अधूरी रह जाती है, वह उसे पूर्ण करने के लिए यहां आ जाता है। पूर्ण हो जाने पर योग्यता के अनुसार ऊपर के किसी वसु-मण्डल अथवा उससे सम्बन्धित किसी लोक-लोकांतर में चला जाता है या फिर वापस पृथ्वी पर चला जाता है और योग्य गर्भ को उपलब्ध हो जाता है।
ऐसे साधकों को योग्य गर्भ की उपलब्धि शीघ्र नहीं होती। उसके आध्यात्मिक संस्कार के अनुसार योग्य माता-पिता और अनुकूल वातावरण का होना आवश्यक है। ऐसे साधक मानव शरीर ग्रहण कर धर्म और अध्यात्म की दृष्टि से समाज का बड़ा कल्याण करते हैं। स्वभाव से एकांत-प्रेमी, निःस्पृह, निरपेक्ष और विरक्त होते हैं वे।
प्रायः वे अंतर्मुखी जीवन व्यतीत करते हैं। उनको जानना-समझना सबके वश की बात नहीं।
जो द्वितीय वसु-मण्डल के स्थायी निवासी हैं, वे भी आवश्यकतानुसार धरती पर मानव शरीर धारण करते हैं। विशेषकर उनका एकमात्र उद्देश्य होता है–मानव कल्याण। जैसा कि संकेत किया जा चुका है कि पंचतत्वों से निर्मित स्थूल शरीर केवल मनुष्य को ही प्राप्त है और सबसे महत्वपूर्ण तत्व ‘मनस्तत्व’ है जो अन्य प्राणियों को दुर्लभ है, उसे उपलब्ध है।
इन महत्वपूर्ण कारणों से लोक-लोकान्तरों की तमोगुणी नीच प्रवृत्ति की दुष्ट आत्माएं मानव शरीर द्वारा नाना प्रकार के विध्वंसक कार्य करती हैं, नाना प्रकार से उपद्रव करती हैं। देश और समाज के क्षेत्रों में ऐसा कुत्सित वातावरण तैयार करती हैं कि देश और समाज में हा-हाकार मच जाता है और चारों ओर अशांति फैल जाती है।
नाना प्रकार के जघन्य अपराधों और हत्याओं से एकबारगी त्रस्त हो उठती है मानव जाति। कहने की आवश्यकता नहीं–ऐसी विषम अवस्था में उनका अवतरण किसी-न-किसी रूप में होता है पृथ्वी पर।
अब तक सूर्य अस्त हो चुका था और पूरब में होने जा रहा था चन्द्रोदय। वहां के 24 घण्टे पूरे हो चुके थे और पृथ्वी का पूरा एक वर्ष।
थोड़ा रुककर महात्माजी ने बतलाया कि मैं दो जन्म पूर्व तपस्वी था किन्तु जागतिक कारणों से मेरा तप पूर्ण न हो सका। तीसरे जन्म में तप का संस्कार लुप्त हो चुका था लेकिन वैराग्य फिर भी शेष था। उसी के प्रभाव से सर्वस्व त्यागकर काशी चला आया था।
मरणोपरांत अपूर्ण तप को पूर्ण करने के लिए मुझे यहाँ इस लोक में आना पड़ा।
कुछ समय पश्चात ज्ञात हुआ कि तुम मुमुुर्षु अवस्था में हो तो तुम्हारे प्रति न जाने क्यों मोह जागृत हो उठा मेरे मन में जिसके फलस्वरूप यहां लाना पड़ा मुझे तुम्हें वास्तव में।
यह द्वितीय वसु-मण्डल अध्यात्म-प्रधान है। यहां स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार के लोग दिव्य पुरुष हैं और अपने अनुकूल आध्यात्मिक वातावरण का निर्माण कर अपनी आध्यात्मिक अवस्था में लीन रहते हैं सदैव।
महात्माजी ने आगे कहा–आओ चलें एक ऐसे ही दिव्य पुरुष के यहां। निश्चित ही उनसे सत्संग-लाभ होगा तुमको। महात्माजी के साथ चल पड़ा मैं।
थोड़ी दूर जाने पर एक सुन्दर उद्यान दिखलायी दिया और जिसके बगल में एक काफी लम्बा-चौड़ा सरोवर था। सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल था जिसमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल के फूल खिले हुए थे। उस रमणीक सरोवर के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे जिन पर पक्षी कलरव कर रहे थे।
उन्हीं वृक्षों के नीचे सरोवर के तट पर उस दिव्य पुरुष का निवास था। वे उस समय ध्यानस्थ थे। पूर्ण युवा शरीर उस शरीर से पीतवर्ण की रश्मियां प्रस्फुटित हो रही थीं। एक विचित्र-सा आकर्षण था उस दिव्य पुरुष के व्यक्तित्व में। महात्माजी ने बतलाया कि लगभग सात सौ वर्ष पूर्व पृथ्वी से यहां आए थे यह महाशय और अभी कुछ वर्ष और रहेंगे।
परन्तु यह दिव्य पुरुष तो पूर्ण युवा हैं।
हाँ, युवा हैं और बराबर युवा ही रहेंगे। इस मण्डल में केवल युवावस्था ही है। न बाल्यावस्था और न तो है–वृद्धावस्था ही। जो कुछ है, वह वर्तमान है। जब मैंने शरीर-त्याग किया था–महात्माजी ने कहा–उस समय मैं 70 वर्ष का था। इस समय मेरी ओर देखो।
मैंने सिर घुमाकर उनकी ओर देखा–हे भगवान !मेरा तो ध्यान ही नहीं गया था अभी तक उनकी ओर। महात्माजी तो सचमुच युवक थे। कहाँ गाय घाट की सीढ़ियों पर अर्धमृत अवस्था में पड़ा हुआ वृद्ध और कहां यह युवक ? कितना भारी अन्तर था।
जरा अपनी ओर तो देखो !–महात्माजी मुस्कराते हुए बोले।
ऐं ! यह क्या ? अपने-आप को टटोलकर देखा मैंने–25 वर्ष की अवस्था में जैसा था, वैसा ही था मैं उस समय। घोर आश्चर्य से भर उठा मैं।
कुछ पल बाद उस दिव्य पुरुष ने नेत्र खोलकर जिज्ञासु भाव से देखा मेरी ओर। फिर बैठने का संकेत किया। बाद में पता चला–उस दिव्य पुरुष का नाम था–गजानन भैषज्य। उनके पिता आयुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान और महावैद्य थे। पिता का ज्ञान और गुण दोनों यथासमय पुत्र को भी प्राप्त हुए। अल्प समय में ही गजानन भैषज्य ‘भैषज्य विद्या’ के निष्णात विद्वान हो गए।
चमत्कारी औषधियों का उन्हें गुह्य ज्ञान था। उसकी सहायता से उन्होंने दो बार अपना कायाकल्प किया। उसके बाद सन्यास ग्रहण कर हिमालय की यात्रा पर निकल पड़े और एक हिम-कन्दरा में रहकर साधना करने लगे।
साधना-बल पर उन्हें शरीरांत के बाद दूसरे वसुमण्डल में स्थान मिला और तब से वे यहीं हैं।
वे दिव्य महापुरुष मुझे देखकर प्रसन्न हुए। उनका कहना था कि मानसिक चेतना प्रबुद्ध और विकसित है, इसीलिये मेरा प्रवेश हो सका वसु-मण्डल में।
साधारणतया केवल धर्म-कर्म आदि के बल पर मृत्योपरांत किसी वसु-मण्डल में किसी आत्मा का प्रवेश करना कठिन है। योग की उच्चावस्था प्राप्त साधक ही इच्छानुसार किसी वसु-मण्डल में प्रवेश कर सकने में समर्थ हो सकता है–इसमें सन्देह नहीं।
थोड़ा रुककर दिव्य पुरुष आगे बोले–
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इस विश्वब्रह्माण्ड में जितने जगत हैं और जितने भी लोक-लोकांतर हैं और उनमें रहने वाले जितने सद-असद प्राणी हैं, उन सभी का केंद्र-बिन्दु पृथ्वी यानी भू-मण्डल है। वे सभी किसी-न-किसी प्रकार मानव योनि प्राप्त करने का प्रयास बराबर करते ही रहते हैं और उन्हें सफलता भी मिलती है अपने प्रयास में।
यदि सद आत्माओं को मानव योनि किसी प्रकार उपलब्ध हो गयी तो मानव शरीर का महत्व और मूल्य समझते हुए उसका उचित उपयोग करेगी और उसके द्वारा ऐसा सत्कर्म करेगी जिससे उसकी और आत्मोन्नति हो और हो उसका आध्यात्मिक कल्याण भी।
इसी प्रकार यदि असद आत्माओं को मानव योनि में आने का अवसर किसी प्रकार प्राप्त हो गया तो उनको अपने असद उद्देश्यों को साकार करने में फिर कोई रोक नहीं सकता।
धर्म-संस्कृति के नियमों और सिद्धांतों पर तो पहले ही कुठाराघात करती हैं वे। ऐसा उपद्रव, ऐसा अत्याचार, ऐसा अनाचार और दुराचार उनके द्वारा फैलता है जिससे देश, समाज और मानव जाति त्राहि-त्राहि कर उठती है। सत्य, दया, प्रेम, करुणा आदि के तो दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, कपट, स्वार्थपरता आदि पहुंच जाती है अपनी चरम सीमा पर। महान पुरुषों का अपमान, विद्वदवर्ग की उपेक्षा और सन्त-महात्माओं की दुर्दशा जो होती है, सो अलग।
दिव्य पुरुष कुछ सोचते हुए आगे बोले–युग की गति जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, वैसे-ही-वैसे असद आत्माओं की मनुष्य योनि में संख्या बढ़ती जाएगी और साथ ही नगण्य होती जाएगी संख्या सद आत्माओं की भी मानव योनि में। कालान्तर में ऐसा भी समय आएगा जब पृथ्वी के वास्तविक निवासी पुरुषों का सर्वथा अभाव हो जाएगा। शून्य हो जाएगी मानव आत्माओं से पृथ्वी।
सम्भवतया ऐसी ही स्थिति में परब्रह्म परमात्मा का मानव रूप में धरती पर होता है अवतरण जिनका अन्य अवतारों की तरह होगा एकमात्र उद्देश्य–असद आत्माओं का विनाश और सद आत्माओं का कल्याण और अभ्युदय।
दिव्य पुरुष की बातें सुनकर आश्चर्यचकित हो उठा मैं। बहुत बड़ा रहस्य अनावृत हो चुका था मेरे सामने। आज संसार और समाज की जो दयनीय स्थिति है, उसे देखकर दिव्य पुरुष की बातों को नकारा नहीं जा सकता।
दिव्य पुरुष ने अब मौन साध लिया था। थोड़ी देर रुककर महात्माजी मुझे साथ लेकर अपने स्थान पर आ गए। बड़ा ही रमणीक स्थान था उनका। मन मुग्ध हो उठा मेरा। चारों ओर धुन्ध-सी छायी हुई थी, जैसे हल्के बादलों की गोद में उनका स्थान, उनकी छोटी-सी कुटिया थी। कुटिया के सामने एक विशेष प्रकार के ऊंचे-ऊँचे घने वृक्षों का कुंज था।
विभिन्न प्रकार के फूलों की क्यारियां थीं। एक विचित्र प्रकार की शान्ति बिखरी हुई थी वातावरण में। वह सारी सृष्टि महात्माजी की मानसिक शक्ति की उपज थी–यह समझते देर न लगी मुझे।

महात्माजी के सान्निध्य में रहकर उनसे बहुत-से ऐसे विषयों का ज्ञान प्राप्त हुआ जो अपने-आप में दुर्लभ और महत्वपूर्ण थे। महात्माजी ने बतलाया–यह दूसरा वसु-मण्डल वास्तव में तपो-मण्डल है। भू-मण्डल से आये हुए लोगों को यहां के मूल निवासी आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान करते हैं, उनका साधना-मार्ग प्रशस्त करते हैं।
अन्त में उनकी योग्यता की परीक्षा होती है। यदि वे असफल हुए तो पुनः भू-मण्डल में स्वयं चले जाते हैं। यदि सफल हुए तो वसु-मण्डल के अधिपति तीसरे वसुमण्डल में आगे की शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें भेज देते हैं। तीसरा वसु-मण्डल ‘भैषज्य मण्डल’ है जहाँ दिव्य पुरुष से तुम मिलकर आये हो।
उनकी साधना जब पूर्ण हो जाएगी और परीक्षा में वे जब सफल हो गए तो भैषज्य मण्डल को उपलब्ध हो जाएंगे वे। वहां आयुर्वेद से सम्बंधित सोलह प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा प्रदान की जाती है।
चौथा वसु-मण्डल ‘ज्योतिष मण्डल’ है। वहां ज्योतिष से सम्बंधित चौबीस प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा-दीक्षा दी जाती है।
पांचवां वसु-मण्डल है जिसे ‘कला-मण्डल कहते हैं, वहां सोलह प्रकार की कलाओं की शिक्षा-दीक्षा प्रदान की जाती है।
छठा वसु-मण्डल चौंसठ प्रकार की विद्याओं का मण्डल है जहाँ चौंसठ प्रकार की विद्याओं का ज्ञान प्रदान किया जाता है वहां के मूल निवासियों के द्वारा।
सातवें वसु-मण्डल को ‘गुह्यविद्या-मण्डल’ कहते हैं। गुह्यविद्या को ही पराविद्या कहते हैं। वे सोलह प्रकार की योगपरक विद्याएं हैं। इसीलिए उन्हें ‘महाविद्या’ की भी संज्ञा दी गयी है। प्रत्येक विद्या का अपना-अपना अलग ज्ञान-विज्ञान है। वे सभी विद्याएं तन्त्र परक भी हैं और हैं अति गोपनीय।
आठवें वसुमण्डल को ‘वैदिक मण्डल’ कहते हैं। तीनों वेद और उनसे संबंधित तीनों विद्याओं की शिक्षा-दीक्षा वहां प्रदान की जाती है। सातवां और आठवां वसुमण्डल विश्वब्रह्माण्ड की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण हैं।

  योग के अनुसार विज्ञानमय कोष का सम्बन्ध सातवें वसु-मण्डल से और आनन्दमय कोष का सम्बन्ध आठवें वसु-मण्डल से समझना चाहिए। तुमको ज्ञान होना चाहिए कि भारतीय साधना और संस्कृति की दो धाराएं हैं--
 _वैदिक धारा और तांत्रिक धारा। वैदिक धारा का मूल स्रोत आठवां वसु-मण्डल है, जबकि तांत्रिक धारा का मूल स्रोत है-;सातवां वसु-मण्डल।_
   वैसे सभी वसु-मण्डलों के स्थायी और अस्थायी निवासी समयानुसार भू-मण्डल में मानव रूप में अवतरित होकर अपने-अपने मण्डल के विषयों के तिमिराच्छन्न स्वरूप को संसार और समाज  में प्रस्तुत तो करते ही हैं जिससे जन-मानस के ज्ञान-भण्डार की वृद्धि होती है, इसके अतिरिक्त ज्ञान के सभी क्षेत्रों में नई दिशा की भी होती है उपलब्धि।
   _लेकिन सातवें और आठवें यानी गुह्य मण्डल और वैदिक मण्डल का सभी दृष्टि से अपना-अलग महत्व है और अपनी अलग गरिमा है। वैदिक मण्डल में योग और वेद के विभिन्न अंगों की शिक्षा दी जाती है। शिक्षा वे लोग ग्रहण करते हैं जो भू-मण्डल में अपनी वेद और योग की शिक्षा किसी कारणवश पूर्ण न कर सके हों।_
    वे उस शिक्षा को पूर्ण कर जब मानव शरीर में जन्म लेते हैं तो उनके द्वारा वेदों के तिमिराच्छन्न विषय अनावृत होते हैं और उनके गूढ विषयों के नये-नये आयाम उपलब्ध होते हैं। ऐसे वैदिक विद्वानों का आचरण तो पवित्र होता ही है, साथ ही उनका व्यवहार भी अनुकरणीय होता है।
    उनकी वाणी से उच्चारित होने वाले वैदिक मंत्रों को सुनने के लिए अदृश्य रूप से वैदिक देवता स्वयं

उपस्थित होते हैं।

  इसी प्रकार गुह्य मण्डल में भी चौंसठ प्रकार के तन्त्रों और उनसे सम्बन्धित आंतर योग और बहिरयोग की क्रियाओं और साधनाओं-उपासनाओं की दी जाती है शिक्षा-दीक्षा।
  _यहां यह बतला देना आवश्यक है कि योग की साधना ग्यारह जन्मों में पूर्ण होती है जिसे 'सिद्धावस्था' कहते हैं, जिसका अर्थ है--'पूर्णत्व-लाभ'। जिस योगी को पूर्णत्व-लाभ हो चुका है, वही सिद्धावस्था को उपलब्ध होता है।_
  इसी प्रकार तन्त्र की साधना पूर्ण होती है सोलह जन्मों में। तन्त्र में पूर्णत्व-लाभ होने पर तन्त्र-साधक भी होता है सिद्धावस्था को उपलब्ध। 
  योग की सिद्धावस्था और तन्त्र की सिद्धावस्था में कोई विशेष अन्तर नहीं है। यदि कहीं कोई अन्तर है तो केवल मात्र इतना ही कि योग की सिद्धावस्था का आधार 'समष्टिरूप महाशक्ति' है जबकि तन्त्र की सिद्धावस्था का आधार है--'व्यष्टिरूप पराशक्ति'। महाशक्ति विश्वब्रह्माण्ड-वाहिनी है। इसी प्रकार पराशक्ति पिण्ड- वाहिनी है जो 'त्रिगुणमयी प्रकृतिरूपा' है।

थोड़ा विश्राम कर महात्माजी आगे कहने लगे–
प्रायः सभी मण्डलों के स्थायी और अस्थायी लोग ईश्वर-प्रेरित होकर अपने-अपने मण्डलों के विषयों को लेकर मानव शरीर में अवतरित होते हैं और उन विषयों के गूढ़ और गोपनीय पक्ष को संसार में किसी-न-किसी रूप में करते हैं प्रकट और प्रकाशित, किन्तु उनका संसार में प्रकटीकरण, व्यवहार, रहन-सहन और कार्य-कलाप मानव-स्तर से हटकर विलक्षण होता है।
इसी कारण उन्हें साधारण दृष्टि से जानना-समझना और पहचानना कठिन होता है।
जहां तक प्रश्न सिद्धावस्था प्राप्त योगियों और साधकों का है, वे वसु-मण्डलों को पार कर किसी अन्य मण्डल को हो जाते हैं उपलब्ध। वे पञ्चतत्वों के नियमों में बंधकर पुनः मानव योनि को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होतें।
वास्तव में लौकिक और पारलौकिक बन्धनों से मुक्त वे विशेष ‘दिव्यात्मा’ होते हैं। कभी-कदा ईश्वर की करुणा से प्रेरित होकर वे मानव शरीर तभी धारण करते हैं जब योग और तन्त्र तथा उनसे सम्बन्धित साधनाओं के वास्तविक स्वरूप पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर पहुंच रहा होता है।
लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसे सिद्धावस्था प्राप्त महापुरुषों को चर्म-चक्षु से देखकर पहचान पाना साधारण व्यक्ति के लिए दुष्कर है।

  क्या मरणोपरांत ही साधक के लिए वसु-मण्डलों और उनसे सम्बन्धित लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध स्थापित कर पाना अथवा उनकी आत्मा का उनमें प्रवेश कर पाना सम्भव है ?
  स्वामी अखिलेस्वरानंद सरस्वती की इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए महात्माजी बोले--
   सम्बन्ध स्थापित करना और वसु-मण्डलों में प्रवेश करना--दो अलग-अलग बातें हैं। योग-तांत्रिक साधना का एकमात्र उद्देश्य ही है कि उसकी विभिन्न क्रियाओं द्वारा लोक-लोकांतर से सम्बन्ध स्थापित करना। साधना-काल में जिस पारलौकिक स्थान से साधक का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, शरीर त्याग के बाद उसकी आत्मा सीधे उसी स्थान में प्रवेश करती है।
   सम्बन्ध- स्थापन से उस स्थान का ज्ञान जीते-जी साधक को हो जाता है। बाद में वही ज्ञान आत्मा के लिए उपयोगी सिद्ध होता है और उसकी उन्नति में होता है सहायक भी।
  महात्माजी बोले--मानव शरीर में नौ केंद्र हैं। तन्त्र की भाषा में उन्हें 'चक्र' कहते हैं। साधारणतया लोग छः चक्रों से ही परिचित हैं। सातवां चक्र 'गुह्यचक्र' है जो आज्ञाचक्र और सहस्त्रार चक्र के बीच स्थित है। आठवां चक्र 'सुमेरुचक्र' है जो ब्रह्मरंध्र से चार अंगुल ऊपर आकाश तत्व में स्थित है।
    _योगात्मा ब्रह्मरंध्र का भेदन कर सुमेरुचक्र में स्थित होती है। वह अवस्था उसकी विश्राम- काल की अवस्था होती है। उसके पश्चात वह निकल पड़ती है अनन्त ब्रह्माण्ड की अन्तहीन यात्रा पर। नौवां चक्र उदर के दाहिनी ओर उस स्थान पर स्थित है जहां स्त्री का गर्भाशय होता है। उस चक्र को अत्यन्त गोपनीय बतलाया गया है। सिद्ध व्यक्ति ही उसकी गोपनीयता को उद्घाटित करने में समर्थ होता है।_
  आठ चक्र तो अष्ट वसु-मण्डल के प्रवेश-द्वार हैं किन्तु नवमे चक्र से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।
   _वास्तव में यह गोपनीय और रहस्यमय चक्र ब्रह्माण्ड के असंख्य लोक-लोकान्तरों से सम्बंधित है जिसका भेदन कर योगात्मा सीधे 'विहंगम मार्ग' द्वारा इच्छानुसार किसी भी लोक-लोकांतर में प्रवेश कर सकती है।_
 *(चेतना विकास मिशन)*
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