व्यंग- विवेक मेहता
अब तो बच्चे नौकरी से घर इसी शर्त पर आते हैं कि घर पर वाई-फाई हो। वाई-फाई में स्पीड हो,कनेक्टिविटी हो। ‘वर्क फ्रॉम होम’ हो सके। इस कारण उसे भी वाई-फाई की जरूरत पड़ी। लोगों ने सुझाया ‘पवनपुंछ’ अच्छा है। तो उसने लगवा लिया। उपयोग में लेते-लेते उसे भी अब आदत हो गई। उसके बिना काम नहीं चलता।
अक्सर नेटवर्क बंद हो जाता। शिकायत करते तो थोड़े समय में चालू हो जाता। इस बार ऐसा नहीं हुआ। सामान्य बात समझ कर उसने शिकायत दर्ज करा दी। दो दिन हो गए राउटर बिना लाईट ‘बिंल्क’ किये मरा सा पड़ा था। ‘डिजिटल इंडिया’ के कारण उसे अब एक कदम भी बिना नेट के आगे बढ़ना मुश्किल लगता। उसने ‘कस्टमर केयर’ में फोन लगाए। ‘आईवीआर’ का बटन 1, 2 से दबाता हुआ 9 नंबर तक पहुंचा। तब जाकर आदमी से बात करने की संभावना बनी। घंटी बजती रही, बीच-बीच में मशीन बोलती रही। वह सुनता रहा। फिर बात हुई, होल्ड पर भी रहा। आश्वासन मिला।
आश्वासन तो होते ही हैं देने के लिए। उसमें मेहनत नहीं लगती। उनसे हल भी निकले जरूरी नहीं। इसलिए हल निकला भी नहीं। फिर मैसेज आते रहे- ‘आपकी समस्या 11:02 am तक हल हो जाएगी।’ समय से पहले फिर अगला मैसेज समय बढ़ाने के लिए आने लगा। साथ में खेद प्रकाश भी- ‘खेद है कि समय से ज्यादा वक्त लग रहा है।’ और प्रशंसा भी कि- ‘आप धैर्य बनाये हुए हैं।’ ऐसा करते-करते तीसरा, चौथा, पांचवा दिन भी निकल गया। घर में ‘राउटर’ की मृत बॉडी पड़ी रही। उसका धैर्य भी अब साथ छोड़ने लगा। कस्टमर केयर में 10 -15 लाख के पैकेज वालों से उसे अपना काम बनता ना दिखा तो उसने ऊंचे पैकेज वालों से बात करनी चाही। 20 -30 लाख के पैकेज वालों से उसे जोड़ दिया गया।
इससे भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा। उसे तो कई बार भ्रम होता था कि आदमी से बात कर रहा है या आईवीआर मशीन के उन्नत संस्करण से! मशीनी अंदाज में उससे बात करेंगे। मेरी हुई भावनाओं के साथ। बीच में कहेंगे- ‘आप होल्ड पर रहिए। मैं डिटेल चेक कर लेता हूं।’ फिर आप कुछ कहेंगे तो कहेंगे- ‘आपकी परेशानी के लिए माफी चाहता हूं। आप धैर्य रखिए। जल्दी ही आपकी समस्या का समाधान हो जाएगा।’ जैसे ही उसने शिकायत/समस्या/समय के बारे में चर्चा की नहीं कि हायर पैकेज वाला फिर डिटेल देखने के बहाने उसे होल्ड पर डालकर उसका धैर्य चेक करने लगता। उसे लगने लगता कि आजकल उसकी नौकरी इसी काम की है।
अब तो वह भी उनकी बात करने के तरीकों का इतना जानकार हो गया था कि सपने में भी यदि कोई नेटवर्क कनेक्शन की समस्या लेकर आए तो वह कस्टमर केयर वालों की तरह जवाब दे सकता था। बिना समस्या को जाने। लटकाने की कला भी सीख गया था। उसका धैर्य उस वक्त उसका साथ छोड़ देता, जब वह बात समाप्त करने के मूड में होता और कस्टमर केयर वाला उससे कहता- ‘कंपनी में कॉल करने के लिए धन्यवाद। मैं आपकी और कुछ सहायता कर सकता हूं?’
इच्छा होती कि वह अपना सिर पीट लें। अरे भाई, अभी तक समस्या नहीं बता रहा था तो क्या घर के हाल-चाल ले रहा था? जो समस्या बताई है उसका तो हल निकल नहीं पा रहे हो और अब नई समस्या और चाहिए!
मुश्किल से कंट्रोल करता। धैर्य धरता। ज्यादा गुस्सा किया तो बीपी बढ़ जाएगा। नेटवर्क कनेक्शन चालू हो या नहीं हो उसके जीवन का नेटवर्क गायब न जाए। यमराज तो कस्टमर केयर की सुविधा भी नहीं देते। घर वाले कहां सम्पर्क करेंगे?
छठा दिन समाप्त हुआ। सातवां दिन आ गया। ना चाहते हुए भी तनाव बढ़ रहा था। बीपी बढ़ना ही था। सालों ने मूर्ख समझ रखा है। छोटा सा काम नहीं कर पा रहे हैं। अपने तार सरकारी बिजली के खंभे पर लटका देते हैं। कलेक्टर के आदेश -बिजली के खंभे पर इंटरनेट के वायर नहीं लगना चाहिए की अनदेखी करते हुए। जोड़-तोड़, लेन-देन हो जाती है। वायर लटक जाते हैं। कहीं बिजली बंद हुई होगी। विद्युत विभाग में कंप्लेंट गई होगी। शिकायतों से परेशान वायरमैन ने गुस्से में नेट का वायर काट दिया होगा। अब उसे जोड़ नहीं पा रहे हैं। और देश के प्रधान की तरह बातों के द्वारा सुनहरे सपने दिखा रहे हैं। धैर्य बढ़ा रहे हैं। इन पैकेज वालों के घर वालों के साथ यह होता तो अभी तक मशीन से आदमी बनकर आसमान सिर पे उठा लिया होता – वह मन ही मन बड़बड़ाता रहा।
वाई-फाई लगने के बाद ही उसे ज्ञान आया था कि सोशल मीडिया पर समस्याएं उठाओ तो हल जल्दी होता है। उसने भी वहां हथियार भांजना चालू किया। 10-15 लाख के पैकेज से बढ़कर 20-30 लाख के पैकेज वाले जहां धैर्य बांध रहे थे। अब 40-50 लाख के पैकेज वाले यही काम करने लगे। उसने ‘अपेलेट’ ऑफिसर को मेल किया। तो 50-70 लाख के महंगे पैकेज वाले ने शातिराना सस्ता सा हल निकाला। उसकी कंप्लेंट में निष्फलता के दिन लगातार बढ़ रहे थे इसलिए उसके पुराने टिकिट को बंद करवा दिया। नवें दिन से नया टिकिट नम्बर दे दिया। अब उसकी समस्या 9 दिन पुरानी ना होकर एक दिन भी पुरानी नहीं रही। अब अगले आठ दिनों तक कम्पनी ध्यान न दें तो भी फर्क नहीं पड़ता!
इस तरह षड्यंत्र पूर्वक सच्चाई छुपा कर मंहगे पैकेज वाले ने कंपनी का नाम खराब होने के खतरे को कम(?) कर दिया। इस चाल से उसकी ‘अपरेजल’ रिपोर्ट सुधरने और पैकेज बढ़ाने के चांस बढ़ गए। कस्टमर की समस्या जाए भाड़ में! सरकारी रेगुलेटरी अथरिटी को ‘ट्राई’ किया। वह तो खा-पी कर बिना डकारें विभीषण की तरह सोई थी।
नेटवर्क के धंधे में गौतम तो है नहीं इसलिए उसे लगता था कि ग्राहक को ‘पिद्दी का शोरबा’ नहीं समझा जायेगा। मगर जबसे उसने कंप्लेंट लिखाई और कस्टमर केयर से संपर्क किया तब से उसे लगने लगा कि कारपोरेट का कोई सुनील, अनिल; भी गौतम से कम नहीं। उनके लिए तो ग्राहक मुर्गा ही होता है। जिसे कटना ही होता है। फंसने के बाद उसे पुचकार कर काटे या गर्दन मरोड़ कर यह कारपोरेट की पालिसी पर निर्भर है।
उसने सोचा- उसके जैसों कि ट्रेजेडी पर कोई स्टैंड-अप कॉमेडियन अच्छा मजाक कर सकता है। लोग आनंद तो लेंगे! इन कस्टमर केयर वालों के मजाक पर तो केवल उसे रोना आता है।
अपनी बेबस स्थिति पर वह खुद हंस दिया।