प्रस्तुति : पुष्पा गुप्ता
भाजपा व संघ परिवार की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी व धार्मिक कट्टरपन्थी राजनीति का एक अहम पहलू गोरक्षा के नाम पर की जा रही गुण्डागर्दी है, जिसके ज़रिए व्यापक हिन्दू जनता में धार्मिक कट्टरपन्थ और उन्माद भड़काया जाता है ताकि वह अपनी असली समस्याओं पर न सोच सके।
मसलन, रसोई गैस का रु. 1200 के क़रीब पहुँचना, पेट्रोल-डीज़ल का रु. 100 के आँकड़े को पार कर जाना, नमक, चावल, दाल आदि बुनियादी खाने की सामग्री पर अन्यायपूर्ण जीएसटी को लगाया जाना, बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई और ग़रीबी आदि समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाने के लिए ही गोरक्षा जैसे धार्मिक मसलों को उकसाकर उन्माद पैदा किया जाता है।
यह गाय-प्रेम और गोरक्षा की नौटंकी मूलत: संघ परिवार ने 1960 के दशक में बड़े पैमाने पर शुरू की थी। माफ़ीवीर विनायक दामोदर सावरकर जिसे संघ परिवार वाले अपना विचारधारात्मक गुरू मानते हैं, वह तो गाय को पवित्र पशु नहीं मानता था और न ही माता मानता था।
उसने तो साफ़ कहा था कि गाय केवल एक जानवर है। फिर संघियों के लिए गाय यकायक माता कैसे बन गयी और गोरक्षा का भूत उनके ऊपर कैसे सवार हो गया? यह 1960 के दशक में भारतीय समाज में बढ़ती असुरक्षा और अनिश्चितता, बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी का नतीजा था कि संघी फ़ासीवादियों ने पूँजीवादी व्यवस्था के कुकर्मों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए गोरक्षा का मसला उछाला।
वास्तव में, 1960 के दशक में यह गोरक्षा का शोर क़ामयाब भी नहीं हो पाया था और अधिकांश लोगों ने उस पर ध्यान भी नहीं दिया था। लेकिन 1970 और 1980 के दशकों में संघ परिवार ने इस मसले को फिर से उठाया और उस समय तक व्यापक निम्नमध्यवर्गीय व मध्यवर्गीय जनता में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा के कारण गुस्सा और प्रतिक्रिया इतनी बढ़ चुकी थी, कि यह मसला गर्माने लगा।
क्योंकि अपनी समस्याओं के पीछे मौजूद सही कारणों की समझदारी न होने पर जनता को कोई नक़ली दुश्मन दिखाकर भरमाया जा सकता है। संघी फ़ासीवादियों ने यही किया। लेकिन वास्तव में इन्हें कोई गाय-प्रेम या गोरक्षा का भूत सवार नहीं है। यह तो केवल आम जनता को धर्म के नाम पर लड़ाने का इनका औज़ार है। आइए देखते हैं कैसे।
अगर भाजपा गाय को ‹माता’ मानती है, तो वह गोवा, केरल और उत्तर-पूर्व के राज्यों में ‘माता’ क्यों नहीं है?
क्या गाय केवल उत्तर भारत में भाजपा की माता है? अगर गाय माता है तब तो वह सारे देश में ही माता होनी चाहिए न! लेकिन इसको लेकर हिन्दू-मुसलमानों में सिर-फुटौव्वल करवाना और ग़रीब मुसलमानों की संघियों की गुण्डा-वाहिनियों द्वारा हत्याएँ करवाना मुख्यत: उत्तर व पूर्वी भारत तथा कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि में ही क्यों होता है?
ज़रा निम्न प्रश्नों पर धार्मिक पूर्वाग्रहों और कट्टरपन्थ व घृणा की सोच को किनारे रखकर ठण्डे दिमाग़ से विचार कीजिए मेहनतकश भाइयो और बहनो।
क्या गोरक्षा का ढोल बजाने वाला भाजपा का दंगाई नेता संगीत सोम अल दुआ नामक बूचड़खाने का एक निदेशक नहीं था?
क्या आपको पता है कि भाजपा के इसी नेता ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम दंगे फैलाने में एक अन्य दंगाई भाजपाई नेता सुरेश राणा के साथ मिलकर प्रमुख भूमिका निभायी थी? इसने ‘गाय-प्रेम’ और गोरक्षा को लेकर भी खूब हल्ला मचाया था। इसी के विधानसभा क्षेत्र दादरी में अख़लाक नामक एक मुसलमान की गोरक्षा के नाम पर संघियों की उन्मादी दंगाई भीड़ द्वारा हत्या कर दी गयी थी।
लेकिन बाद में पता चला कि यह खुद अल दुआ नामक एक बूचड़खाने के निदेशकों में से एक रहा था और बूचड़खाने के लिए ज़मीन भी इसी संगीत सोम ने दिलवायी थी! वास्तव में, उसने चुनाव आयोग को दिये अपने एफिडेविट में स्वयं स्वीकार किया था कि वह अल दुआ कम्पनी का एक निदेशक था!
अगला सवाल :
नगालैण्ड के भाजपा नेता विसासोली ल्होंगू ने क्यों कहा कि नगालैण्ड में कभी बीफ़ बैन नहीं लगेगा?
भाजपाइयों को पता है कि नगालैण्ड में वह जनता के हाथों अपने नेताओं को पिटवाने पर मजबूर होगी यदि वह बीफ़ बैन की बात करेगी। वहाँ उसका चुनाव में एक भी वोट पाना मुश्किल हो जायेगा। इसलिए नगालैण्ड में भाजपा का नेता विसासोली ल्होंगू बोलता है कि नगालैण्ड में कभी भी बीफ़ बैन नहीं लगेगा।
यहाँ जिसको जो खाना है, वह खाने की पूरी आज़ादी होगी! तो क्या गाय उत्तर भारत से पूर्वोत्तर भारत में जाते–जाते भाजपा के लिए ‘मम्मी’ से ‘यम्मी’ बन गयी? वहाँ वह पवित्र पशु नहीं रह गयी? सच्चाई यह है कि गाय भाजपा के लिए कोई पवित्र पशु नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक पशु है, जिसको लेकर धार्मिक भावनाओं को उभाड़ा जाये और हिन्दू-मुस्लिम दंगे और मॉब लिंचिंग का माहौल पैदा किया जाये, ताकि चुनावों में वोटों की फसल काटी जा सके।
गोरख पाण्डे ने अपनी कविता में कहा है:
‘इस बार दंगा बहुत बड़ा था
खूब हुई थी
ख़ून की बारिश
अगले साल अच्छी होगी
फसल
मतदान की’
अगला सवाल :
भाजपा नेता व मणिपुर के मुख्यमन्त्री बिरेन सिंह ने क्यों कहा कि मणिपुर में बीफ़ खाने पर कोई रोक नहीं, क्या खाना है यह सबका व्यक्तिगत मसला है?
बात तो सही है, खान-पान, पहनावा, रहन-सहन लोगों का व्यक्तिगत मसला है और इसमें किसी पार्टी या सरकार को दख़ल देने का कोई हक़ नहीं। फिर भाजपा यह दोमुँहापन क्यों दिखाती है? इसलिए क्योंकि गोरक्षा तो केवल बहाना है, हिन्दू–मुसलमान जनता की एकता तोड़ना असली निशाना है।
भाजपा की मोदी सरकार और संघ परिवार को पता है कि वह जनता से महँगाई, बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी कम करने पर, पूँजीपतियों की लूट पर लगाम लगाने आदि को लेकर तो वोट माँग नहीं सकते हैं! तो फिर क्या किया जाये? जनता को जाति-धर्म पर लड़वाया जाये! अब देखिये, अभी कर्नाटक में चुनाव होने हैं तो वहाँ पर ये भाजपाई भ्रष्टाचारी सरकार पिछड़े मुसलमानों के लिए मौजूद आरक्षण को ख़त्म कर उसे वहाँ की वोक्कलिगा समुदाय और लिंगायत समुदाय में बाँटने की बात कर रही है क्योंकि उसे इन समुदायों का वोट चाहिए।
ग़ौरतलब है कि लिंगायत समुदाय की बहुसंख्या तो अपने आपको हिन्दू भी नहीं मानती है, बल्कि अपने आपको एक अलग धार्मिक समुदाय मानती है। लेकिन इसका वोट जीतने के लिए अब भाजपा सरकार उन्हें कर्नाटक में मुसलमानों से लड़वाने की साज़िशें कर रही हैं और आरक्षण को लेकर झगड़ा भड़काना आसान है क्योंकि भाजपा सरकार की नीतियों ने ही बेरोज़गारी को अभूतपूर्व स्तर पर पहुँचा दिया है।
रोज़गार के नगण्य अवसरों के लिए मारकाट करवाने के लिए आरक्षण एक अच्छा औज़ार है। जनता को यह बात समझ लेनी चाहिए कि यही भाजपाइयों का काम है: जनता को आपस में धर्म–जाति पर लड़वाना और फिर उनकी चिताओं पर अपनी चुनावी रोटियाँ सेंकना।
अगला सवाल :
मेघालय के भाजपा नेता अर्नेस्ट मावरी ने क्यों कहा कि “मैं बीफ़ खाता हूँ, यह मेघालय की जीवनशैली है और इसे कोई नहीं रोक सकता”? मेघालय के भाजपा महासचिव डेविड खरसती ने क्यों कहा कि भाजपा द्वारा उत्तर–पूर्व में बीफ़ बैन लगाने का या उत्तर प्रदेश जैसी बीफ़ बैन की राजनीति करने का कोई इरादा नहीं है?
वजह साफ़ है : मेघालय में अगर कोई भाजपाई नेता बीफ़ बैन की बात करेगा तो वह न सिर्फ कोई वोट नहीं पायेगा, बल्कि आते-जाते सड़कों पर जनता के हाथों पिटता रहेगा। खुद भाजपा के नेता कह रहे हैं कि इन राज्यों की वास्तविकता अलग है! यहाँ पर तो खुद भाजपाई नेता कह रहे हैं कि हम बीफ़ खाते हैं!
ज़रा सोचिए : अगर गाय कोई अलौकिक पवित्र पशु है, तब तो उसका कोई क्षेत्र या राष्ट्रीयता नहीं होनी चाहिए! क्या केवल उत्तर–भारतीय, “हिन्दू” गाय पवित्र है? क्या गायों में इस आधार पर कोई विभाजन किया भी जा सकता है? क्या आपको लगता है कि गायों का भी कोई धर्म होता है? ऐसी बात पर केवल हँसा ही जा सकता है। आप देख सकते हैं कि यह गाय-प्रेम और गोरक्षा की बातें केवल आपको-हमको आपस में लड़ाने के लिए भाजपाई इस्तेमाल करते हैं क्योंकि उनके पास और कुछ है नहीं।
अगला सवाल :
अरुणाचल प्रदेश के भाजपा के प्रमुख नेता व मन्त्री किरण रिजिजू ने क्यों कहा था: “मैं बीफ़ खाता हूँ, मैं अरुणाचल प्रदेश से हूँ। क्या कोई मुझे रोक सकता है? लोगों की निजी आदतों के बारे में इतना संवेदनशील नहीं होना चाहिए?”
बाद में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व द्वारा कान उमेठे जाने और बाँह मरोड़े जाने पर श्री रिजिजू ने अपना बयान बदलकर बोला कि उन्होंने कभी बीफ़ नहीं खाया है, वह बस कुछ राज्यों में जनता के बीफ़ खाने के अधिकार का समर्थन करते हैं! लेकिन जिन राज्यों में हिन्दू-बहुसंख्या है, वहाँ बीफ़ बैन होना चाहिए। लेकिन भाजपा तो इसे भी लागू नहीं करती।
केरल में हिन्दू धर्म के लोग ही सबसे ज़्यादा हैं। क्या भाजपा केरल में बीफ़ बैन का समर्थन करती है? आइए देखते हैं।
अगला सवाल :
केरल में मलप्पुरम में उम्मीदवार भाजपा नेता श्रीप्रकाश ने क्यों वायदा किया था कि वहाँ वह बीफ़ की सप्लाई को कम नहीं होने देंगे और बीफ़ के उपभोग पर कभी रोक नहीं लगायी जायेगी?
केरल में स्वयं हिन्दू आबादी का बड़ा हिस्सा बीफ़ खाता है और यह वहाँ की हिन्दू धार्मिक परम्पराओं का सदियों से हिस्सा रहा है। अब कोई यह तो कह नहीं सकता कि मलयाली गाय और उत्तर व पूर्वी भारतीय गाय में उनकी जैविक नस्ल के अलावा कोई फ़र्क है!
मतलब, कोई यह तो कह नहीं सकता कि गाय की राष्ट्रीयता या क्षेत्रीयता के अनुसार उसकी पवित्रता निर्धारित होगी! क्योंकि जैसे ही भाजपा और संघ वाले यह कहेंगे वैसे ही गाय की पवित्रता का उनके द्वारा खड़ा किया गया मिथक भी ढह जायेगा क्योंकि पवित्रता की धार्मिक अवधारणा या तो सार्वभौमिक तौर पर लागू होगी, या फिर लागू ही नहीं होगी।
अगला सवाल :
2017 में ख़ुद अमित शाह ने क्यों कहा था कि गोवा में भाजपा का बीफ़ पर बैन लगाने का दूर–दूर तक कोई इरादा नहीं है?
लेकिन फिर भारत के कई अन्य हिस्सों में अलग नियम क्यों? इसलिए क्योंकि वहाँ पर भाजपा गाय को लेकर धार्मिक भावनाएँ और तनाव को भड़का सकती है और फिर वोटों के रूप में उसकी फसल काट सकती है।
अगला सवाल :
भाजपा के वैचारिक गुरू विनायक दामोदर सावरकर ने तो कहा था कि गाय केवल एक पशु है, कोई माता नहीं! इस पर भाजपा का क्या कहना है? कुछ नहीं! क्यों?
वजह साफ़ है : गोरक्षा केवल बहाना है, जनता की एकता तोड़ना असली निशाना है।
अगर गाय पवित्र पशु है तब तो सारी दुनिया में ही वह पवित्र पशु होनी चाहिए। नरेन्द्र मोदी सरकार को पूरी दुनिया में बीफ़ बैन के लिए संघर्ष करना चाहिए।
आप यह तो कह नहीं सकते कि फ्रांसीसी गाय, जर्मन गाय, अमेरिकी गाय, या ऑस्ट्रेलियाई, जापानी, चीनी, कोरियाई गाय अपवित्र है, यहाँ तक कि अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नगालैण्ड, केरल, गोवा आदि की गाय भी अपवित्र है, बस उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र और कर्नाटक की गाय पवित्र है! कैसी मूर्खतापूर्ण बात होगी यह, ज़रा खुद सोचिए।
वास्तव में, सच्चाई कुछ और है।
पवित्र गाय का मिथक रचने के पीछे की साज़िश कुछ और है। इसलिए, दोस्तो, इस बात को समझिए। थोड़ा दिमाग़ लगाइए। थोड़ा तर्क का इस्तेमाल करिए। यह पवित्र पशु का मिथक आपको ठगने, बेवकूफ़ बनाने और धर्म के नाम पर आपस में लड़वाने के लिए रचा गया है।
भाजपा खुद इस मिथक की सच्चाई को जानती है। उनके केरल व उत्तर-पूर्व के नेताओं के बयान इस बात को साबित करते हैं। जब वे गोरक्षा के इस फर्जी मसले पर हमें लड़वा लेते हैं, तो अपने होली मिलन समारोहों और इफ़तार पार्टियों में हमारी मूर्खता पर ठहाके मारकर हँसते हैं। इसलिए मूर्ख बनना बन्द कर दीजिए और गोरक्षा के फ़र्ज़ी मसले और पवित्र पशु के मिथक की सच्चाई को जान और समझ लीजिए।
क्या ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और अशिक्षा से हम पहले ही कम परेशान हैं कि ऐसे फर्जी मसलों पर एक–दूसरे के सिर फोड़ें? ज़रा सोचिए।
मेहनतकश वर्ग का इस पर नज़रिया यह होना चाहिए कि क्या खाना है, क्या पहनना है, कौन–सा धर्म मानना है या कोई धर्म नहीं मानना, कौन–सी पूजा पद्धति माननी है या कोई पूजा पद्धति नहीं माननी, यह पूरी तरह एक नागरिक का व्यक्तिगत मसला है। इसमें किसी भी दूसरे नागरिक को हस्तक्षेप करने, या स्वयं राज्य व सरकार को दख़ल देने का कोई अधिकार नहीं है।
आप देखेंगे कि हम जैसे ही इस उसूल को अपनायेंगे वैसे ही भाजपा व संघ परिवार द्वारा फैलायी जा रही फ़िरकापरस्ती भी कारगर नहीं हो पायेगी और हम अपने असली मुद्दों को लेकर एकजुट हो पायेंगे। 1960 के दशक के पहले गोरक्षा के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति की तमाम कोशिशें कामयाब नहीं हो पायीं थीं।
उसके पहले लोगों ने इस फ़र्ज़ी मुद्दे के नाम पर आपस में सिर-फुटौव्वल करने से इन्कार कर दिया था। वास्तव में, गोरक्षा की बात भी पहली बार आधुनिक काल में किसी हिन्दू धार्मिक संगठन ने नहीं की थी बल्कि 1800 की सदी के उत्तरार्द्ध में सिख धर्म के कूका समुदाय के लोगों ने की थी क्योंकि खेती के लिए ढोर-डंगर की आवश्यकता होती थी। बाद में आर्य समाज के स्वामी दयानन्द इसे ले उड़े और इसके आधार पर साम्प्रदायिक राजनीति करने की कोशिश की।
लेकिन 1960 के दशक के अन्त तक यह राजनीति कभी कामयाब नहीं हो पायी। जब जनता के जीवन की असुरक्षा और अनिश्चितता बढ़ती है, तो ही लोग ऐसे ग़ैर–मुद्दों पर लड़ने को तैयार किये जा सकते हैं।
1980 के दशक में निजीकरण, उदारीकरण की प्रच्छन्न शुरुआत और 1991 में उसकी खुली शुरुआत के साथ व्यापक मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय टुटपुंजिया आबादी में उजड़ने और बरबाद होने की रफ़्तार बढ़ी। बड़ी पूँजी से उजाड़े जा रहे टुटपुँजिया लोग भी असुरक्षा और अनिश्चितता के शिकार थे और दूसरी तरफ छोटे पूँजीपतियों का एक वर्ग था जो अब सरकारी लाईसेंस-कोटा के ज़रिए विनियमन से आज़ादी चाहता था, श्रम क़ानूनों से आज़ादी चाहता था और “धन्धा करने की सहूलियत” चाहता था।
इन दोनों आबादियों को संघ परिवार ने मन्दिर राजनीति व गोरक्षा राजनीति के ज़रिए लुभाया क्योंकि उनके जीवन के हालात अलग-अलग रूपों में एक अन्धी प्रतिक्रिया को जन्म दे रहे थे, उन्हें बस मुसलमानों के रूप में एक नकली दुश्मन मुहैया कराने की ज़रूरत थी, ताकि उन्हें दंगाई भीड़ में तब्दील किया जा सके। यही काम पहले भारतीय जनसंघ और फिर भाजपा ने किया।
और आज जब जनता मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता की जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों के कारण बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, महँगाई, बेघरी और पहुँच से दूर होती शिक्षा और चिकित्सा से तंगहाल है तो फिर से इन फ़र्ज़ी मसलों को हवा दी जा रही है, दंगाई राजनीति की आग में घी डाला जा रहा है, ताकि हम और आप अपने असली दुश्मन, यानी पूँजीवादी व्यवस्था, पूँजीपति वर्ग और आज उसकी प्रमुख तौर पर नुमाइन्दगी कर रहे संघी फ़ासीवाद और मोदी-शाह सत्ता को निशाना बनाने की बजाय, आपस में ही लड़ मरें।
अगर हम इस साज़िश के फिर से शिकार होते हैं, तो हमसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं होगा।
इसलिए अगर आपके दरवाज़े कोई गोरक्षा, लव जिहाद, ‘चीन का ख़तरा’, ‘पाकिस्तान का ख़तरा’ जैसे फ़र्ज़ी मसले लेकर आता है तो उसे उचित रूप में “खर्चा–पानी” देकर दफ़ा करें। हमारा दुश्मन हमारे देश के भीतर है। जब हम कम मज़दूरी के ख़िलाफ़ लड़ते हैं तो हमें दबाने के लिए पूँजीपति और फासीवादी सरकार की पुलिस और गुण्डे आते हैं; जब हम बेहतर कार्यस्थितियों की माँग करते हैं, तो हमें मौजूदा व्यवस्था और सरकार दबाती है; जब हम समानता और इज़्ज़त से भरी ज़िन्दगी माँगते हैं तो हमें कुचलने के लिए मालिक, ठेकेदार, जॉबर, व्यापारी, धनी फ़ार्मर व ज़मीन्दार आ जाते हैं।
तो हम किसी चीनी या पाकिस्तानी नकली दुश्मन से लड़ने को क्यों बावले हों? चीन और पाकिस्तान के मज़दूर–मेहनतकश भी अपने हुक्मरानों से उसी क़दर तंग हैं, जिस क़दर हम यहाँ के फ़ासीवादी शासकों से तंग हैं। वे तो हमारे भाई–बहन हैं। उनसे हमारी भला क्या दुश्मनी? क्या वे हमें यहाँ दबाने और लूटने आते हैं? कौन हमें यहाँ दबा और लूट रहा है? कौन हमें गोरक्षा और लव–जिहाद जैसे फ़र्ज़ी मसलों पर लड़ा रहा है ताकि हम टूट जायें और कमज़ोर रहें?
इन सवालों पर सोचिए दोस्तो। वरना हम यूँ ही मूर्ख बनकर अपने ही भाइयों-बहनों का ख़ून बहाते रहेंगे, जबकि हमारे ख़ून और आँसुओं के समन्दर में हर मज़हब और जाति के लुटेरों, शोषकों और शासकों की ऐय्याशी की मीनारें खड़ी होती रहेंगी।