जाति और धर्म के रिश्ते की पड़ताल करते हुए लेखक कहते हैं कि हिंदू व्यक्ति का अपने धर्म के साथ रिश्ता जाति से होकर गुजरता है। एक हिंदू का धार्मिक विश्वास, कर्मकांड, खान-पान, शादी-विवाह और उसका सामुदायिक जीवन जाति के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाता है। इसलिए भारत में बिना जाति की कमर तोड़े धर्म-निरपेक्षता संभव ही नहीं है।
मनीष आजाद
केरल में आदिवासियों-दलितों-शोषितों में क्रांति की अलख जगाने में अपना पूरा जीवन लगा देने वाले एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति को महाराष्ट्र के एंटी टेररिज्म स्कवॉयड (एटीएस) ने पुणे के एक अस्पताल से मई, 2015 में गिरफ्तार किया। बाद में उसे यरवदा जेल भेज दिया गया। लेकिन एक क्रांतिकारी व्यक्ति खाली कैसे बैठ सकता है? इस व्यक्ति ने जेल में मराठी सीखने का फैसला किया। इसके लिए उसने जेल की लाइब्रेरी से तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य’ और एक शब्दकोश आवंटित करवाया। साथी मराठी कैदियों की मदद से उसने ‘गीता रहस्य’ पढ़ना और उस पर नोट्स लेना शुरू किया।
संयोग से इसी समय उस जेल में वरवर राव सहित 9 ‘भीमा-कोरेगांव केस’ के बंदी भी थे। उनके साथ ‘गीता रहस्य’ पर और इसके जरिए ब्राह्मणवाद, जाति, अद्वैतवाद, गांधीवाद, भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन आदि पर गर्मागर्म बहसें होने लगीं। ‘गीता रहस्य’ पर लिए गए नोट्स और इन बहसों के बीच एक शानदार किताब आकार लेने लगी।
इस किताब का नाम है– ‘क्रिटिकंग ब्राह्मणिज्म : अ कलेक्शन ऑफ एसेज’ और इसके लेखक हैं– के. मुरली उर्फ़ अजिथ। इस किताब की भूमिका वरवर राव ने लिखी है।
किताब की शुरुआत डॉ. आंबेडकर के मशहूर उद्धरण से होती है– “ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद, मेहनतकश वर्ग के दो वास्तविक दुश्मन हैं।” इस उद्धरण से मानो लेखक यह घोषित कर देता है कि वह ब्राह्मणवाद और इसकी आत्मा जाति/वर्ण को एकांगी रूप से नहीं, बल्कि वास्तविक सामाजिक-आर्थिक गतिकी के साथ देखता है।
जाति और वर्ण का आपस में क्या रिश्ता है? इस पर काफी बहसें हुई हैं। लेखक इस किताब के दूसरे मलयालम संस्करण की भूमिका में डी.डी. कोसंबी को उद्धृत करते हुए कहते हैं– “जाति वर्णों में मौजूद श्रम के विभाजन का प्रत्यक्ष परिणाम नहीं है। ब्राह्मणवादी सभ्यता के प्रसार में जिन ख़ास तरीकों से आदिवासी समूहों को समाहित किया गया, उसके परिणामस्वरूप जातियां अस्तित्व में आयी।”[1] इस संदर्भ में लेखक बार-बार मार्क्स का हवाला देने वालों को चेताते हुए कहते हैं कि इस तथ्य को नज़रअंदाज करना और इस मामले में बार-बार मार्क्स के विचारों को दोहराना हमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों स्तरों पर पीछे ले जा सकता है।
जाति और धर्म के रिश्ते की पड़ताल करते हुए लेखक कहते हैं कि हिंदू व्यक्ति का अपने धर्म के साथ रिश्ता जाति से होकर गुजरता है। एक हिंदू का धार्मिक विश्वास, कर्मकांड, खान-पान, शादी-विवाह और उसका सामुदायिक जीवन जाति के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाता है। इसलिए भारत में बिना जाति की कमर तोड़े धर्म-निरपेक्षता संभव ही नहीं है।
लेखक कहते हैं– “जब तक व्यक्ति का सामाजिक अस्तित्व जाति पर आधारित और जाति के माध्यम से अभिव्यक्त होगा, धर्म कभी भी एक व्यक्तिगत मसला नहीं हो सकता।” जाहिर तौर पर धर्म-निरपेक्षता तभी संभव है जब धर्म केवल व्यक्तिगत मसला बन जाए।
एक दूसरे संदर्भ में डॉ. आंबेडकर ने इसे इस तरह रखा है– “कोई व्यक्तिगत ब्राह्मण, व्यक्तिगत क्षत्रिय, व्यक्तिगत वैश्य, व्यक्तिगत शूद्र हिंदू समाज की इकाई नहीं होता … यहां तक कि विवाह और उत्तराधिकार के उद्देश्यों को छोड़कर, परिवार को भी हिंदू समाज व्यवस्था में समाज की इकाई होने की मान्यता प्राप्त नहीं हैं। हिंदू समाज की इकाई के रूप में वर्ग को ही मान्यता प्राप्त है, जिसे ‘वर्ण’ के नाम से जाना जाता है।”[2]
यही कारण है कि 1947 के बाद गांधी-नेहरू के भारत में धर्म-निरपेक्षता कब्र में पैर लटकाए हांफती रही है और माकूल समय आते ही आज उसे कब्र में धकेल दिया गया है।
हिटलर के फासीवाद के खात्मे के बाद यूरोप में एक दिलचस्प बहस छिड़ी थी कि हिटलर-मुसोलिनी का फासीवाद यूरोपियन सभ्यता की तार्किक परिणति थी या कोई विच्युति थी। ठीक यही बहस इस समय भारत में चल रही है। भाजपा का फासीवाद भारतीय लोकतंत्र की स्वाभाविक परिणति है या कोई विच्युति? लेखक इस बहस में सीधे-सीधे तो नहीं पड़ता, लेकिन संकेत बहुत साफ़ है। लेखक का कहना है कि गांधी के राजनीतिक पटल पर आने से पहले दलितों और आदिवासियों के हिंदू धर्म छोड़ कर इस्लाम, ईसाई, बौद्ध और सिख धर्म में जाने की संभावना बढ़ती जा रही थी और लोग जा भी रहे थे। एक अर्थ में वास्तव में हिंदू धर्म ‘संकट’ में था। तिलक का उग्र हिंदुत्व और बाद में ‘हिंदू महासभा’ व ‘आरएसएस’ की राजनीति इस ‘संकट’ को और बढ़ा ही रहा था। ऐसे में गांधी इस संकट से निपटने के लिए ‘उदार’ हिंदुत्व लेकर आए। यह अकारण नहीं है कि गांधी धर्म-परिवर्तन को अनैतिक मानते थे और इसका विरोध करते थे। इस बात को इस संदर्भ में समझा जाना चाहिए कि जाति व्यवस्था के कारण दूसरे धर्म से हिंदू धर्म में आने की संभावना हमेशा ही न के बराबर रहती है। लेकिन हिंदू धर्म से दूसरे धर्म में जाने की संभावना हमेशा ही प्रबल रहती है।
गांधी और सावरकर द्वारा छुआछूत के विरोध और गांधी-आंबेडकर बहस को भी इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है और कहने की आवश्यकता नहीं है कि डॉ. आंबेडकर छुआछूत को वर्ण व्यवस्था/जाति व्यवस्था के अभिन्न अंग के रूप में देखते थे और इसीलिए वर्ण व्यवस्था/जाति व्यवस्था को बारूद से उड़ा देना चाहते थे।
गांधी का अहिंसा का सिद्धांत भी हिंदू धर्म की उदार छवि गढ़ने का एक प्रोजेक्ट था। और यह बात सभी जानते हैं कि अहिंसा का सिद्धांत मूल रूप से बौद्ध-जैन धर्म का सिद्धांत है।
इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं कि गांधी ने हिंदुत्व पर जिस उदारता का रंग चढ़ाया था, वह समय के साथ फीका पड़ने लगा और आज भाजपा के उग्र हिंदुत्व के रूप में नतीजा सबके सामने है।
इस जाति व्यवस्था ने विज्ञान के पैरों में भारी बेड़ियां डाल दी और सवर्णों ने अपनी हीन भावना को छुपाने के लिए सभी वैज्ञानिक प्रगति को वेदों में तलाशना शुरू कर दिया। मीरा नंदा ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘साइंस इन सैफ्रॉन’ में इसका विस्तार से वर्णन किया है।
के. मुरली ने अपनी किताब में हिंदुत्व की विचारधारा के मूल ‘अद्वैत’ पर एक महत्वपूर्ण प्रस्थापना दी है। उनका कहना है कि दक्षिण एशिया में ‘अद्वैत’ दर्शन का वर्चस्व स्थापित करने में मूल रूप में अंग्रेजों की भूमिका थी। लेखक बिना किसी किंतु-परंतु के लिखते हैं– “दक्षिण एशिया में दर्शन के चिंतन में इसका पुनरुत्थान और सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में इसका अभिषेक वास्तव में औपनेवेशिक प्राच्यवाद की देन है। हिंदू काल, मुस्लिम काल और आधुनिक काल का इतिहास-विभाजन किसी भारतीय ने नहीं, बल्कि जेम्स मिल ने 1818 में दिया था, जो आज हिंदुत्व इतिहास लेखन का मूल प्रस्थान बिंदु है।”
यहां लेखक ने मशहूर कम्युनिस्ट नेता नंबूदरीपाद का जिक्र करते हुए बताया है कि अद्वैत दर्शन के प्रतिक्रियावादी चरित्र को समझने में सीपीआई और सीपीएम के नेता और बुद्धिजीवी भी नाकाम रहे। नंबूदरीपाद द्वारा अद्वैत पर किये गए अध्ययन का हवाला देते हुए लेखक ने दर्शाया है कि उन्होंने (नंबूदरीपाद ने) अद्वैत दर्शन को महज उसके भाववाद के अर्थ में देखा। वे जाति व्यवस्था के साथ उसके रिश्ते और किसी भी सामाजिक-अंतर्विरोध से इंकार करने वाले उसके प्रतिक्रियावादी चरित्र को नहीं पकड़ पाए।
यहीं पर याद आते हैं डांगे और डॉ. रामविलास शर्मा जैसे मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, जो समाजवाद को वेदों में खोजते रहे और ‘स्वर्णिम अतीत’ की तस्वीर गढ़ने में दक्षिणपंथी प्रतिक्रिवादियों की मदद करते रहे।
सीपीआई के बड़े नेता के.एन. जोगलेकर को कौन भूल सकता है, जो बहुत दिनों तक सीपीआई और तत्कालीन ‘ब्राह्मण सभा’ के सदस्य एक साथ बने रहे।[3]
भारत में अद्वैत दर्शन के वर्चस्व और उसकी प्रतिक्रियावादी अंतर्वस्तु के बारे में विस्तार से लिखते हुए के. मुरली भारतीय शासक वर्ग के प्रिय नारे ‘विविधता में एकता’ की एक तरह से खुदाई करते हुए इसके प्रतिक्रितावादी मायने को बहुत स्पष्ट तरीके से सामने लाते हैं। भारतीय शासक वर्ग अद्वैत दर्शन के प्रभाव में विविधता को एक तरह से माया या महज सतही यथार्थ मानता है। मूल चीज तो अद्वैत दर्शन की तरह ही एकात्मवाद यानी एकता है। इसीलिए कांग्रेस और भाजपा, दोनों पार्टियां विविधता की कीमत पर एकता पर जोर देती हैं। भाजपा के ‘एक’ ((एक विधान, एक भाषा, एक राष्ट्र, एक चुनाव) के नारे के पीछे यही दर्शन काम करता है। लेखक का कहना है कि विविधता के साथ एकता नहीं, बल्कि साधारणता होनी चाहिए।
ब्राह्मणवाद में दलितों की स्थिति के अलावा महिलाओं की स्थिति को लेखक ने बहुत सशक्त तरीके से महज एक पंक्ति में उकेर दिया है– “ब्राह्मणवाद महिलाओं को प्रदूषण के रूप में उपेक्षित करता है और उनकी स्वतंत्र भूमिका से इंकार करते हुए उन्हें एक सेवक का निचला दर्जा प्रदान करता है।”[4]
इस महत्वपूर्ण किताब में ब्राह्मणवाद विरोधी कई आंदोलनों का जिक्र है। एक जगह केरल के नारायण गुरु के शिष्य सहोदरन अय्यप्पन का भी जिक्र है, जिन्होंने अपने गुरु नारायण गुरु के सूक्त वाक्य ‘एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर’ को आगे बढ़ाते हुए ‘कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं, कोई ईश्वर नहीं’ का क्रांतिकारी नारा दिया था।
अंत में वरवर राव की ही बात से इस समीक्षा का अंत करना उचित होगा। वरवर राव इस किताब की भूमिका में तिलक की ‘गीता रहस्य’ पर टिप्पणी करते हैं कि असमानता और हिंसा ही वह मूल तत्व है, जिसके ऊपर हिदुत्व का पूरा धार्मिक ताना-बाना खड़ा है।
भारत में जाति-विहीन और शोषण-विहीन समाज के लिए विभिन्न स्तरों पर संघर्ष करने वालों के लिए निश्चित ही यह एक जरूरी किताब है और इसका भारत की सभी भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए।
किताब के मुखपृष्ठ पर टी. मुरली का नंगेली चित्र शृंखला का दूसरा भाग ‘नंगेली दी ग्रेट’ अंकित है, जो किताब के ब्राह्मणवाद-विरोधी अंतर्वस्तु से मेल खाता है और पहले से ही पाठकों को उसी जमीन पर खड़ा कर देता है, जिससे किताब के साथ तुरंत ही तादात्म्य बन जाता है।
समीक्षित पुस्तक : क्रिटिकंग ब्राह्मणिज्म – अ कलेक्शन ऑफ एसेज
लेखक : के. मुरली (अजीत)
प्रकाशक : कनाल पब्लिकेशन सेंटर
मूल्य : 200 रुपए
संदर्भ :
[1] के. मुरली, क्रिटिकंग ब्राह्मणिज्म : अ कलेक्शन ऑफ एसेज, कनाल पब्लिकेशन सेंटर, पृ. 11
[2] डॉ. बी.आर. आंबेडकर, संपादक – आनंद तेलतुंबड़े, भारत और साम्यवाद, लेफ्टवर्ड बुक्स, पृ. 85
[3] वही, पृ. 45
[4] के. मुरली, क्रिटिकंग ब्राह्मणिज्म : अ कलेक्शन ऑफ एसेज, कनाल पब्लिकेशन सेंटर, पृ. 38