डॉ .राजरानी अरोड़ा
हम केवल तभी याद किये जायेंगे यदि हम हमारी युवा पीढ़ी को एक समृद्ध और सुरक्षित भारत दे सकें जो कि सांस्कृतिक विरासत के साथ आर्थिक समृद्धि के परिणाम स्वरूप प्राप्त हो।”
डॉ .ए .पी. जे .अब्दुल कलाम
भूतपूर्व राष्ट्रपति, वैज्ञानिक ,मिसाइलमैन और सर्वप्रिय शिक्षक स्व .अब्दुल कलाम जी को सादर समर्पित।
भारत देश का भविष्य हमारे विद्यार्थी हैं हम उनके भाग्य विधाता अर्थात राष्ट्र निर्माता हैं।अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभा कर विद्यर्थियों का सर्वांगीण विकास करें।उनके वैचारिक गुणों को पहचान कर ज्ञान की अभिक्षमता वर्धन कर सकें यह हमारा कर्तव्य बनता है। सभी विद्यार्थियों में उच्च योग्यता स्तर नहीं हो सकता अतः उनमें कलात्मक गुण विकसित करना चाहिए।जीवन जीने की कला तथा सामाजिक और व्यावहारिक कार्यकुशलता
भी विकसित होनी चाहिए।केवल उच्च शिक्षा और पद प्राप्त करना या नोकरी करना ही विकल्प नहीं हो सकता, वह अच्छा व्यवसायी ,हस्त शिल्पी या लघु उद्यमी भी हो सकता है।इसका पोषण करने हेतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्राचीन बुनियादी शिक्षा भी नए कलेवर में अवकाश कालीन और व्यावसायिक पाठ्यक्रम के रूप में संचालित है।
भौतिक वादी परंपरा और आर्थिक दौड़ में सभी विद्यार्थी उच्च शिक्षा में सफ़ल नहीं हो सकते।उच्च शिक्षा और नोकरी इत्यादि में स्थान सीमित हैं और आशार्थी असीमित।हमारी युवा पीढ़ी चिंतन -मनन और कौशल के साथ स्वप्रेरणा से स्वाध्यायी बने ,आत्मविश्वास के बल पर निरंतर मेहनत करने वाली बने।भावी पीढ़ी को संस्कारवान बनाएं ताकि वो जीवन की विपरीत परिस्थितियों में विचलित ना हों और आत्मबल के साथ जी सकें।ज्ञान तो क़िताबों में बहुत है।आजकल यू ट्यूब और गूगल बाबा के बाद विद्यार्थियों को शिक्षक की आवश्यकता ही नहीं परंतु हमें अपना शिक्षक धर्म निभाना है।हम अपने को नवीन तकनीकी शिक्षा के साथ इस प्रकार प्रस्तुत करें कि वो हमें स्वप्रेरणा से स्वीकार करें।बालक का सर्वांगीण विकास जिस मनोवैज्ञानिक तरीके से शिक्षक कर सकता है वह संचार साधनों से कभी नहीं हो सकता।हम अपने विद्यार्थियों को स्वस्थ चिंतन मनन और संस्कृति का ध्येता बनाएं। हम उनके भावी जीवन की नींव भरने जा रहे हैं तो मिट्टी- पानी और ज़मीन की गहराई तो नापनी होगी। त्याग और तपस्या करनी होगी।यदि हम सांस्कृतिक विरासत उनमें हस्तांतरित कर पाए तो आर्थिक विकास स्वतः ही सम्भव हो जाएगा। कहा है –
“जल से शरीर की शुद्धि होती है
मन सत्य से शुद्ध होता है
ब्रह्म विद्या और तप से जीव आत्मा शुद्ध होती है
और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है।”
— मनु स्मृति
शिक्षा और संस्कृति समानांतर चलते हैं। हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखना है और आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना है इसके लिए हमें अपने आप को समर्पित करना होगा। पढ़ना एक गुना, चिंतन दोगुना,आचरण सौ गुना।हमें नई पीढ़ी को ये सूत्र समझा कर जीवन में उतारने का प्रयास करना होगा।गुरुपद का गुरुत्व गरिमा के साथ विद्यर्थियों तक पहुंचाएं। आत्मविश्वास और बुद्धि बल का विकास कर सकें यही हमारी शैक्षिक पहचान होगी। आत्मविश्वास वस्तुतः एक सामाजिक एवं आध्यात्मिक शक्ति है, इसके द्वारा आत्मरक्षा होती है। शिक्षा के द्वारा ही हमारी कीर्ति का प्रकाश चारों ओर फ़ैलता है।शिक्षा ही हमारी समस्याओं को सुलझाती है तथा हमारे जीवन को सुसंस्कृत बनाती है।कहा गया है —
“ज्ञान प्राप्त करना सरल है किंतु बुद्धिमान बनना नहीं है।“
हमें अपने बालकों की बुद्धि का ही विकास करना है।शिक्षक बनना बड़े गौरव की बात है।वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अपने कर्तव्य पर खरा उतरना भी देश की बहुत बड़ी सेवा है।इस रूप में राष्ट्र- भक्ति का परिचय दे सकते हैं।
गुरु तो वह परम् ज्योति है जो अपने शिष्यों के भविष्य को जगमग करती है।दिव्य आलोक से उनके जीवन- तम का हरण कर लेती है।अज्ञान रूपी अंधकार को चीरकर दिव्यलोक के दर्शन कराती है।सभ्यता और संस्कृति की मशाल जलाए रखते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है।सफल जीवन जीने की क्षमता प्रदान कर सकरात्मक भावना का पोषण करती है। इस प्रकार सफल शिष्य के रूप में शिक्षक की सफलता दृष्टिगोचर होती है।
शिक्षक एक दूरदृष्टा, युगनिर्माता तथा कला और संस्कृति का संवाहक होता है। जैसे जौहरी एक अनगढ़ पत्थर को तराशकर सुंदर हीरे का आकार प्रदान करता है ठीक उसी प्रकार शिक्षक अपने विद्यार्थियों की गुणात्मक और रचनात्मक क्षमता को पहचान कर समाज का अमूल्य रत्न बनाता है ।अतः शिक्षक को अपनी जौहरी की भूमिका बखूबी अदा करनी है। ए .पी .जे .अब्दुल कलाम साहब कहते थे कि पहले दुनिया शरीर की ताकत से चलती थी फिर पैसे की ताकत से मगर अब दुनिया ज्ञान की ताकत से चलती है। शिक्षा और सांस्कृतिक का अटूट संबंध होता है।
पाश्चात्य विचारक टी. पी. नन के अनुसार-
“विद्यालयों का मुख्य कार्य समाज की संस्कृति को सुरक्षित रखना और उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना होता है।”
सामयिक परिस्थितियों के अनुसार नई पीढ़ी को श्रेष्ठ जीवन दर्शन देना हमारी संस्कृति है।जहाँ समाज में कितने लोग असहनीय आर्थिक सामाजिक प्रताड़ना झेल रहे हैं वहाँ हम जैसे शिक्षक वर्ग का दायित्व ज्यादा बनता है।वर्तमान कोरोना काल की भयावहता में सामाजिक जीवन अस्त- व्यस्त हो गया।धैर्य की सीमा छूट गई।ग़रीबी बेकारी की समस्या और भी विकराल रूप धारण कर चुकी है। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का जीना मुहाल हो गया ।ऐसे में आत्म बल और साहस की नितांत आवश्यकता है।
शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास अवरूद्ध हुआ है।मजदूर वर्ग पलायनवादी और निराशावादी विचारधारा से ग्रसित होकर हताशा में डूब गया है।
असंख्य लोग असमय कालग्रस्त हो गए। कितने ही लोग असहाय और बेसहारा हो गए हैं। कितने बच्चे अनाथ हो गए हैं ।आइये हम इनका सहारा बनें इनको जीने योग्य बनाने में मदद करें। इस भयंकर त्रासदी में कहीं- कहीं सांस्कृतिक विरासत भी क्षीण होती जा रही है। सामाजिक जीवन त्रस्त हुआ है।हालांकि विज्ञान नित्य प्रति तरक्की कर रहा है।चिकित्सा के क्षेत्र में नए प्रयोग सफ़ल हो रहे हैं। कुछ समाजसेवी लोगों ने धर्म और संस्कृति का पालन कर लोगों में नवजीवन की प्रेरणा देकर मिसाल कायम की है।यहाँ हम शिक्षकों की जिम्मेदारी और भी ज्यादा हो गई कि हम आने वाली पीढ़ी को कैसे बचाएं, योग्य नागरिक बनाएं और जीवन के प्रति सकरात्मक दृष्टिकोण विकसित करें।एक उदाहरण विचारक टी. पी .नन.–
” विद्यालयों का मुख्य कार्य समाज की संस्कृति को सुरक्षित रखना और उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तांतरित करना होता है।” हमें इसके लिए सदैव तत्पर और अग्रणी भूमिका में रहना चाहिए।हमें स्वस्थ और सभ्य समाज की स्थापना करनी है युग निर्माण करना है नई पीढ़ी का मार्ग दर्शन करना है। हमें अपने आप को इसके लिए पूर्ण मनोयोग से समर्पित होना होगा। हमें अपने आने वाली पीढ़ी को इस योग्य बनाना है। कलाम साहब के शब्दों के साथ मैं अपने विचारों को यहीं विराम देना चाहती हूँ–
“आइए हम अपने आज का बलिदान कर दें ताकि हमारे बच्चों का कल बेहतर हो सके।”
जय हिंद। जय भारत।।
डॉ .राजरानी अरोड़ा
प्रधानाचार्य,
महात्मा गांधी राजकीय विद्यालय
खण्डेला, सीकर, राजस्थान