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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : असमंजस में दलित मतदाता

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बापू राऊत

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव की हवा बहने लगी है। इसी के अनुरूप हर राजनीतिक दल ने उम्मीदवार की चयन प्रक्रिया शुरू कर दी है। जिन नेताओं को टिकट नहीं मिला है, वे पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा त्यागकर विधायकी के टिकट के लिए इधर से उधर जाने लगे हैं। किसी अन्य बड़ी पार्टी से टिकट नहीं मिलते देख वे वंचित बहुजन आघाड़ी और बहुजन समाज पार्टी की ओर रुख कर रहे हैं। इन नेताओं को बसपा और वंचित बहुजन आघाड़ी जैसी पार्टियों के पारंपरिक वोट और अपने प्रभाववाले वोट हासिल कर चुनाव जीतने की उम्मीद है। या कहिए कि पार्टिया भी उन्हें यह मानकर टिकट देती हैं कि उनकी पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़े। 

आगामी विधानसभा चुनाव में बसपा और वंचित बहुजन आघाड़ी ने क्रमश: 288 और 208 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। अन्य आंबेडकरवादी दल भी गठबंधन के तौर पर चुनाव मैदान में उतरे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। सफलता की परवाह किए बिना हर चुनाव में ऐसा होता है। आम जनता कई वर्षों से इंतजार कर रही है कि आंबेडकरी दलों की गुटबाजी ख़त्म हो। लेकिन लोगों को यह समझना चाहिए कि असल में ऐसा होनेवाला नहीं है।   

महाराष्ट्र में दो प्रमुख गठबंधन हैं और तीसरे महत्वपूर्ण दल के तौर पर वंचित बहुजन आघाड़ी का नाम लिया जा सकता है। महाविकास आघाड़ी में मुख्य रूप से कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और एनसीपी (शरद पवार गुट) शामिल हैं। वहीं महायुति में भाजपा, शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार गुट) की हिस्सेदारी है। हाल ही में हुए लोकसभा 2024 चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालने पर महाविकास आघाड़ी महाराष्ट्र में अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में दिखती है। लेकिन पहले छत्तीसगढ़ और राजस्थान तथा हाल ही में हरियाणा के नतीजों ने बता दिया है कि स्थिति उलट भी हो सकती है। ऐसे में महाराष्ट्र विधानसभा के नतीजे भी आंखें खोलनेवाले हो सकते हैं।

ऐसे समय में आंबेडकरवादी पार्टियों की स्थिति क्या होगी? बहुजन मतदाताओं की भूमिका इस पार्टी के साथ जाने की होगी या उसके ख़िलाफ़ वोट करने की? यह समझना होगा।

ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र में दलित मतदाता और बुद्धिजीवी वर्ग आंबेडकवादी नेताओं की राजनीति और भूमिकाओं से तंग आ चुके हैं। आंबेडकरवादी राजनेता बहुजन समाज के हितों और उनके विकास के बारे में नहीं सोचते हैं। वे केवल अपने हितों की रक्षा करना पसंद करते हैं। इसलिए, महाराष्ट्र में आंबेडकरवादी बुद्धिजीवी वर्ग ने तथाकथित नेताओं के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया है और जनता से स्पष्ट अपील कर रहे हैं कि उन्हें किस पार्टी को वोट देना चाहिए। यह परिवर्तन क्यों हो रहा है? वास्तव में आंबेडकरवादी नेताओं को इस पर सोचने की जरूरत है।

दरअसल, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आंबेडकरवादी पार्टियों की स्थिति बहुत जटिल होती है। महाराष्ट्र के कई विधानसभा क्षेत्रों में फुले-आंबेडकरवादी मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या है और उनका वोट किसी को भी जिताने और हराने में निर्णायक होता है। लेकिन यह दुखद है कि इन वोटों का इस्तेमाल उनके विकास के लिए नहीं किया जाता। समाज के सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास के लिए सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधित्व की जरूरत है या एकीकृत वोटबैंक की, इसपर राजनीतिक नेता और बुद्धिजीवी चर्चा करने को तैयार नहीं हैं।

देखा जाय तो ऐसे मुद्दों से बचना आंबेडकरवादी पार्टियों के लिए आत्महत्या के समान है, क्योंकि आज के बदलते भारत में कूटनीतिक फैसलों से ही अपने लक्ष्य हासिल किये जा सकते हैं। इसका मतलब दलित राजनीतिक दलों को भंग करना नहीं है, बल्कि इसे कूटनीतिक राजनीतिक समझौतों के लिए और अधिक सक्षम बनाना है। एक पार्टी-एक संगठन इसका फॉर्मूला हो सकता है।

फिलहाल इस माह होनेवाले विधानसभा चुनाव में आंबेडकरवादी पार्टियों का कोई गठबंधन बनने की कोई संभावना नहीं दिख रही है। इसका कारण है दलितों में बिखराव। महाराष्ट्र में आंबेडकरवादी पार्टियां कई गुटों में बंटी हुई हैं और वे केवल विभिन्न उप-समूहों को आकर्षित कर सिर्फ सांकेतिक वोट बटोरना चाहती हैं। कोई भी दल जीत के फार्मूले की तरफ न देखकर सिर्फ अपना अस्तित्व दिखाने तक ही सीमित नजर आता है। हर चुनाव में यही दोहराए जाने से दलित मतदाता भी अन्यत्र बिखरने लगे हैं। कांग्रेस और भाजपा इन बिखरे हुए मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने में जुट गई हैं। इसके लिए कांग्रेस ने संविधान संरक्षण और जाति जनगणना जैसे मुद्दों को प्रचार में लाई, जबकि भाजपा आरक्षण में उप-वर्गीकरण का मुद्दा लाकर कुछ दलित जातियों की सहानुभूति प्राप्त करना चाहती है। इसलिए दलित मतदाता का झुकाव इन दोनों के प्रति हो सकता है। महिलाओं को आकर्षित करने के लिए भाजपा ने लाडली बहिना योजना शुरू की है, जिससे सीधे उनके बैंक खातों में पैसा भेजा जा रहा है। ऐसा करके भाजपा मुख्य रूप से वंचित दलित महिलाओं को लक्षित कर रही है।

दरअसल, बहुजवनवादी विचार की पहचान वंचित लोगों तक फैलाना जरूरी था। उन्हें सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के साथ-साथ शिक्षा का महत्व समझाकर जागरूक करना चाहिए था। यह काम केवल दलितों की सरकार ही कर सकती है और लोगों को पार्टी का भार स्वयं उठाने के लिए प्रेरित करना था। बसपा संस्थापक कांशीराम ने यह कर दिखाया था। लेकिन मायावती कांशीराम की रणनीति को बरकरार नहीं रख सकीं। महाराष्ट्र में प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन आघाड़ी कुछ सीटों पर मजबूत है, लेकिन पिछले विधानसभा और लोकसभा नतीजों को देखते हुए वह जीत की स्थिति में नहीं दिखती। दूसरी ओर, बाबासाहेब के दूसरे पोते आनंद आंबेडकर और परपोते राजरत्न आंबेडकर ने 40 और 20 निर्वाचन क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं। तीसरी ओर सुरेश माने, संजय कोकरे और प्रकाश शेडगे ने एक स्वतंत्र राजनीतिक गठबंधन बनाया है। बामसेफ द्वारा गठित पीपुल्स पार्टी ऑफ इंडिया (डी) और बहुजन मुक्ति मोर्चा भी मैदान में हैं। रामदास आठवले, जोगेंद्र कवाडे और सुलेखा कुंभारे पिछले कुछ दशकों से भाजपा के साथ हैं, जबकि बुद्धिजीवियों का झुकाव कांग्रेस पार्टी की ओर है। ऐसी बहुआयामी राजनीति में दलित मतदाता किसे वोट करे?

हालांकि, महाराष्ट्र में आंबेडकवादी राजनीति बहुत गतिशील दिखती है, लेकिन इसमें विखंडन की एक बड़ी चुनौती है। फिर भी, वंचितों की संख्या को देखते हुए एकजुट दृष्टिकोण, ठोस सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक कार्यक्रमों के साथ महाराष्ट्र में एक मजबूत राजनीतिक विकल्प बनाया जा सकता था, लेकिन स्वार्थी तत्वों ने वह अवसर गंवा दिया। महाराष्ट्र में सामाजिक जनसंख्या के आंकड़ों पर नजर डालें तो आंबेडकर के नाम पर इतनी सारी  बहुसंख्यक पार्टीयों का बनना अवसरवाद नामक नई बीमारी के लक्षण है।

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