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मौजूदा सरकार से मोलतोल करने की हालत में आ गए हैं दलित, वंचित, पिछड़े और अल्पसंख्यक

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सैयद जै़ग़म मुर्तजा

अठारहवीं लोकसभा की रूप-रेखा तय हो चुकी है और नई सरकार ने संविधान की शपथ लेकर अपना काम करना शुरू कर दिया है। सरकार ने फिलहाल उसी संविधान की शपथ ली है, जिसे सत्तापक्ष के कुछ नेता बदलने की और विपक्ष के तमाम नेता बचाने की बात कर रहे थे। सरकार अपना काम करे न करे, लेकिन फिलहाल जनता ख़ुश है कि संविधान अपना काम कर रहा है। सबसे ज़्यादा ख़ुश वे दलित-बहुजन हैं, जो जानते हैं कि इस संविधान के रहते उनके अधिकारों का हनन कोई आसानी से कर नहीं पाएगा।

बहरहाल, हमारे जीवन का शायद पहला चुनाव है जिसे हारकर भी विपक्ष ख़ुश है और सत्ता पाने वाले चिंतित नज़र आ रहे हैं। सत्तापक्ष दुखी है क्योंकि उसने लोकसभा में अपना प्रचंड बहुमत खो दिया है। सरकार बनने की ख़ुशी पर बहुमत खोने का दर्द हावी है। इसकी तमाम वजहें हैं। एक तो सरकार का नेतृत्व जिनके हाथों में है, उन्होंने कभी सलाह-मशवरे वाली राजनीति की नहीं है। ज़ाहिर है कि सरकार बैसाखियों पर है तो रोज़-रोज़, हर फैसले से पहले सहयोगियों की सलाह लेनी पड़ेगी। सहयोगी भी ऐसे जो संख्याबल में भले ही कम हैं, लेकिन संसदीय राजनीति की मोल-तोल के मंजे हुए खिलाड़ी हैं। सरकार की दूसरी चिंता है कि जिस विचारधारा को लागू करने की ज़िम्मेदारी उसने अपने कंधों पर उठा रखी है, उसके एजेंडे को लागू करने के लिए उसे अब तमाम लोगों की चिरौरी करनी पड़ेगी। हो सकता है कि कुछ बातें मान ली जाएं, और कुछ न मानी जाएं।

राजनीति संभावनाएं तलाशने का खेल है। ये संभावनाएं हमें तमाम ऐसे मौक़े मुहैया कराती हैं कि हम न चाहते हुए भी उसमें अपने मन की बात खोज लेते हैं। इसी सरकार को लीजिए। चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री समेत सत्तापक्ष के लोगों ने जितनी घटिया शब्दावली का इस्तेमाल किया और जितनी निचले स्तर की राजनीति की, उसके बाद तो उनसे किसी अच्छे की उम्मीद करना तक़रीबन बेमानी हो गया था। लेकिन भारत के संविधान की यही ख़ूबसूरती है। यह सबसे मज़बूत लोगों के समूह में सबसे कमज़ोर को खड़ा होने का अवसर मुहैया करा देता है। जीतन राम मांझी इसकी उम्दा मिसाल हैं। शायद ही कभी किसी ने सोचा होगा कि एक मुसहर जाति का व्यक्ति पहले बिहार जैसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बनेगा और फिर केंद्र में मंत्री बन जाएगा।

जीतन राम मांझी इसी संविधान का परिणाम हैं। उन्होंने उस प्रधानमंत्री के बग़ल में खड़े होकर पद और गोपनीयता की शपथ ली है, जिसने ख़ुद इसी चुनाव में कहा कि वह शायद बायोलॉजिकल रूप से नहीं जन्मा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब स्वयं को नेहरू के तीन बार प्रधानमंत्री बनने से बहुत आगे देखने लगे हैं। वह जानते हैं कि विश्व में नेहरू की गरिमा और महत्व नहीं घटाया जा सकता, इसलिए अब वे अपने लिए देवत्व या ईश्वरत्व तलाश रहे हैं। लेकिन जीतन राम मांझी और जुएल ओरांव उनके बग़ल में खड़े हैं तो ये ईश्वर का साथ हो न हो, लेकिन संविधान का संरक्षण जरूर है। लेकिन यह जरूरत सिर्फ इतने भर से पूरी नहीं होने वाली है।

सोलहवीं और सत्रहवीं लोकसभा के किसी एक दल के प्रचंड बहुमत का दंभ टूट चुका है। इसके साथ ये भ्रम भी सत्तापक्ष के लोगों के दिमाग़ से जनता ने निकाल दिया है कि उनको हराया नहीं जा सकता। जड़त्व और स्थायित्व दंभ, अहंकार, और तानाशाही लेकर आते हैं। कांशीराम कहा करते थे कि कमज़ोर और वंचित तबक़ों का भला सिर्फ लंगड़ी-लूली सरकारों में ही संभव है। यक़ीनन बहुमत खोकर बैसाखी पर आते ही सरकार को भी कांशीराम की यह बात अच्छे से समझ आ जाएगी। हारकर भी विपक्ष और विपक्ष का समर्थन करने वाले वोटरों की ख़ुशी का राज़ इसी में छिपा है।

हालांकि भाजपा पूर्ण बहुमत से सिर्फ 32 सीट दूर है। यह संख्या इतनी ही है जितने उत्तर प्रदेश से उसके सांसद जीतकर आए हैं। उत्तर प्रदेश में पिछड़े, दलित और अक़लियत के लोगों ने मिलकर एक मज़बूत सरकार को मजबूर सरकार में बदल दिया है। इससे न सिर्फ भाजपा नेताओं का अहंकार कम होगा, बल्कि इन तबक़ों को सांस लेने के लिए थोड़ा बेहतर वातावरण मिलेगा। सरकारें कमज़ोर पड़ती हैं तो संस्थान मज़बूत हो जाते हैं। उम्मीद है कि इस बार ऐसा ही होगा। अदालतों पर से वंचित, और हाशिए पर पड़े लोगों का विश्वास पिछले दस साल में कम हुआ है। उम्मीद है कि अदालतें अब अपनी स्वायत्तता और न्याय देने की क्षमता का दोबारा वरण कर पाएंगी।

हालांकि चुनाव आयोग समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान हैं, लेकिन आशा है कि वह भी अपनी ताक़त को पहचानेगा। आशा है कि इन संस्थाओं में उच्च पद पर बैठे लोगों को इस बात का अहसास ज़रूर होगा कि तानाशाही बैसाखियों पर खड़े होकर संभव नहीं है।

विपक्ष के लिए यह नतीजे दिल तोड़ने वाले हैं। ख़ासकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के लिए। दोनों ही पार्टियों ने इन हालात में जिस तरह का चुनाव लड़ा उससे बेहतर शायद उन्होंने अपने अच्छे दिनों में भी नहीं लड़ा था। लेकिन सत्ता के इतना करीब आकर भी सरकार बनाने से दूर रह जाना दुखद है। मगर इन दोनों पार्टियों के साथ-साथ कोई भी विपक्षी दल इस दुख को अपने ऊपर फिलहाल हावी नहीं होने देना चाहता। अगले दो-तीन वर्ष में कई राज्यों में चुनाव हैं। ज़ाहिर है जम्मू-कश्मीर और दिल्ली के साथ-साथ बिहार, महाराष्ट्र, असम और उत्तर प्रदेश में विपक्ष के पास पाने के लिए बहुत कुछ है। कोई भी दल हार की पीड़ा को अवसाद के स्तर तक ले जाने के लिए तैयार नहीं है।

यक़ीनन 2024 के लोकसभा चुनाव ने दलित, वंचित, पिछड़े और अल्पसंख्यकों के दिल में नई आशा का संचार किया है। इन तबक़ों से जुड़े लोग जानते हैं कि वो न सिर्फ मौजूदा सरकार से मोलतोल करने की हालत में आ गए हैं, बल्कि आने वाले समय में सरकार से बेहतर नीतियों और अच्छी सुविधाओं को अधिकार की तरह हासिल करने में सक्षम हैं। भाजपा और उसके सहयोगी दलों को जो झटका लगा है, उसमें कमज़ोरों के ख़िलाफ खड़ी कार्पोरेट हित की दीवार में दरार ज़रूर आई है। सरकार अब अपने मित्रों के हितों के साथ-साथ उनकी परवाह करने को भी मजबूर होगी जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में सर्वोपरि हैं। उम्मीद है कि संविधान बिना किसी संशोधन के आगे भी ऐसे ही परिणाम दिखाता रहेगा। हालांकि ये सब बस उम्मीदें ही हैं। अब देखते हैं ये उम्मीदें किस हद तक पूरी होती हैं।

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