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नए फ़ौजदारी क़ानूनों को टालने की मांग 

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विशद कुमार

लोकसभा काराकाट (बिहार) के सांसद राजाराम सिंह और लोकसभा आरा (बिहार) के सांसद सुदामा प्रसाद ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक पत्र भेजकर नए फ़ौजदारी क़ानूनों को टालने की मांग की है।

उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि-प्रिय श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी, समाज के विभिन्न तबकों और न्याय बिरादरी द्वारा तीन नयी फ़ौजदारी संहिताओं-भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम- जो कि 01 जुलाई से लागू हो रही हैं, के बारे में गंभीर चिंताएं प्रकट की गयी हैं। ये तीनों संहिताएं, क्रमशः भारतीय दंड संहिता 1860 ; दंड प्रक्रिया संहिता 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 का स्थान लेंगी।

प्रथमतः यह इंगित किया गया है कि जो मूलभूत नागरिक स्वतंत्रताएं हैं, जैसे बोलने की स्वतंत्रता, एकत्र होने की स्वतंत्रता, किसी के साथ जुडने की स्वतंत्रता, प्रदर्शन करने की स्वतंत्रता और अन्य नागरिक अधिकारों को अपराध की श्रेणी में लाने के लिए कई कठोर प्रावधान किए गए हैं। यह प्रस्तवाना में दिखाई दे रहा है, क्रूर यूएपीए से “आतंकवादी कृत्य” की विस्तारित परिभाषा ली गयी है, नए नामकरण के साथ कुख्यात राजद्रोह कानून (भारतीय दंड संहिता- आईपीसी की धारा 124 ए) को कायम रखा गया है और भूख हड़ताल को अपराध बना दिया गया है- ये सभी वैध असहमति और कानूनी उग्र लोकतांत्रिक प्रतिवादों को अपराध बनाने के संभावित औज़ार हैं।

दूसरा, पुलिस को अनियंत्रित शक्तियां दे दी गयी हैं, जिनका देश में नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। गिरफ्तारी के लिए बचावों का अनुपालन किए बगैर पुलिस को व्यक्तियों को निरुद्ध करने का कानूनी अधिकार दे दिया गया है। यह बाध्यकारी कर दिया गया है कि गिरफ्तार आरोपी का नाम, पता और अपराध की प्रकृति का हर पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय पर भौतिक एवं डिजिटल प्रदर्शन प्रमुख रूप से किया जाये। यह प्रवाधान निजता के अधिकार और किसी व्यक्ति की मानवीय गरिमा के हनन के अलावा बिना औपचारिक दोषसिद्धि के ही व्यक्तियों को पुलिस द्वारा निशाना बनाए जाने को सुगम करता है। हथकड़ी लगाने को वैध बना दिया गया है, जबकि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफ़आईआर) दर्ज करने में पुलिस को विवेकाधिकार दे दिया गया है। सबसे हतप्रभ करने वाली बात यह है कि पुलिस अभिरक्षा की अवधि को वर्तमान 15 दिन से बढ़ा कर 60 या 90 दिन (अपराध की प्रकृति के अनुसार) कर दिया गया है, जो कि आरोपी व्यक्ति को धमकाए जाने, उत्पीड़न और खतरे में डालेगा।

तीसरा भीड़ की हिंसा (मॉब लिंचिंग) को लेकर भारतीय न्याय संहिता में आधे-अधूरे कदम उठाए गए हैं, इसमें ऐसे कृत्यों को बिना साफ तौर पर ऐसे कहे हुए ही अपराध बनाया गया, धर्म को भीड़ हिंसा के कारणों के तौर पर शामिल नहीं किया गया।

चौथा कारण वे चिंताएं हैं जो उन प्रावधानों को लेकर हैं, जिनमें मनमानी और अमानवीय सजाओं का प्रावधान कर दिया गया है। हथकड़ी लगाने के अलावा तन्हाई जैसी अमानवीय सजा को वैधानिक मान्यता दे दी गयी है।

अंतिम बात यह कि फ़ौजदारी मामलों का जबरदस्त बैकलॉग (3.4 करोड़ मुकदमें लंबित) है, उसके बीच में इन तीन क़ानूनों को लागू करना, दो समानांतर कानूनी व्यवस्थाएं उत्पन्न करेगा, जिससे और बैकलॉग बढ़ेगा तथा पहले से अत्याधिक बोझ झेल रहे न्यायिक तंत्र पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत के अपराध न्याय ढांचे को सुधार की अत्याधिक जरूरत है। लेकिन तीन फ़ौजदारी कानून इसका जवाब नहीं हैं। वे अकारण ही हड़बड़ी में, बिना चर्चा या संसदीय परख के, ऐसे समय में पास किए गए जबकि 146 विपक्षी सांसद निलंबन झेल रहे थे। इसलिए यह जरूरी है कि केंद्र सरकार इन तीन फ़ौजदारी क़ानूनों को लागू करने का निर्णय स्थगित करे और इन्हें संसद में पुनः पेश करे ताकि इनकी सही जांच परख हो सके और इनपर चर्चा हो सके।

हम अधोहस्ताक्षरी बिहार से संसद के नवनिर्वाचित सदस्य हैं, आपको ये पत्र, यह आग्रह करने के लिए लिख रहे हैं कि 1 जुलाई 2024 से अस्तित्व में आने जा रहे नयी फ़ौजदारी क़ानूनों के लागू होने से रोकने के लिए आप तत्काल हस्तक्षेप करें। बड़ी संख्या में प्रबुद्ध नागरिकों और वकीलों द्वारा जारी की गयी, दो प्रासंगिक याचिकाएं और बयान भी हम, आपको अग्रसारित कर रहे हैं। हम उनकी इस चिंता को वाजिब समझते हैं कि नए कानून राज्य को अंधाधुंध क्रूर शक्तियों लैस करके नागरिक स्वतंत्रताओं व कानूनी रक्षात्मक उपायों का क्षरण करेंगे। नए क़ानूनों को गहन समीक्षा तथा अधिक व्यापक व जानकारीपरक आम सहमति की आवश्यकता है। कृपया सरकार को इन नए क़ानूनों को लागू करने में अनावश्यक हड़बड़ी न करने की सलाह दें।

वहीं दूसरी तरफ उक्त नए फ़ौजदारी क़ानूनों को टालने की मांग को लेकर 3,700 से अधिक प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा हस्ताक्षर युक्त एक याचिका 19 जून 2024 को तथा ऑल इंडिया लॉंयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस (आइलाज) की ओर से 21 जून 2024 भी एक याचिका भेजा गया है।

कानूनों को तत्काल रद्द करने की मांग पर माले का देशव्यापी प्रतिवाद

सोमवार से लागू हो रहे मोदी सरकार के नए क्रिमिनल कोड के खिलाफ़ देशव्यापी प्रतिवाद दिवस के तहत बिहार की राजधानी पटना सहित राज्य के विभिन्न जिला मुख्यालयों में भाकपा-माले की ओर से प्रतिरोध मार्च निकाले गए। राजधानी पटना में जीपीओ गोलबंर से बुद्ध स्मृति पार्क तक मार्च निकला और फिर प्रतिरोध सभा का आयोजन हुआ।

पटना के अलावा दरभंगा, पटना ग्रामीण के दुल्हिनबाजार, बिहटा, नौबतपुर, फतुहा, फुलवारीशरीफ; आरा, संदेश बाजार, खगड़िया, सुपौल, मोतिहारी, अरवल, नवादा, सिवान, बक्सर, भागलपुर आदि जगहों पर प्रतिवाद आयोजित किए गए।

राजधानी पटना में आयोजित मार्च का नेतृत्व माले राज्य सचिव कुणाल, ऐपवा महासचिव मीना तिवारी, विधान पार्षद शशि यादव, आइलाज की बिहार संयोजक मंजू शर्मा, किसान नेता शंभूनाथ मेहता, इंसाफ मंच के गालिब, एआइपीएफ के कमलेश शर्मा, रामबलि प्रसाद, जितेन्द्र कुमार, मुर्तजा अली, राजेन्द्र पटेल, डॉ। प्रकाश, अनिल अंशुमन, आइसा राज्य सचिव सबीर कुमार आदि नेताओं ने किया। प्रतिवाद सभा का संचालन पटना महानगर कमिटी के सचिव अभ्युदय ने किया।

माले राज्य सचिव कुणाल ने प्रतिवाद सभा को संबोधित करते हुए कहा कि नए आपराधिक कानून भारत को एक पुलिस राज्य में बदल देंगे। इसे हम एक संस्थागत स्थायी आपातकाल कह सकते हैं जहां पुलिस के पास मनमानी शक्तियां होंगी और असहमत नागरिकों पर जेल जाने का स्थायी खतरा होगा। नए क्रिमिनल कोड नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों का हनन करने और सरकारी दमन बढ़ाने के औजार मात्र हैं। इन पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। ये कानून अंग्रेजों के जमाने से भी ज्यादा खतरनाक हैं। हमने राष्ट्रपति से इन कानूनों को रद्द करने की मांग की है।

आगे कहा कि समाज के विभिन्न तबकां और न्याय पसंद नागरिकों के बीच इन तीन नए फौजदारी संहिताओं – भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को लेकर गम्भीर चिंता हैं। इन तीनों संहिताओं में (जो क्रमशः भारतीय दंड संहिता 1860, दंड प्रक्रिया सहित 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 का स्थान लेंगी) मूलभूत नागरिक स्वतंत्रता – जैसे बोलने, हक-अधिकार के लिए आवाज उठाने, प्रदर्शन की स्वतंत्रता और अन्य नागरिक अधिकारों को अपराध की श्रेणी में लाने वाले कठोर कानूनों का प्रावधान है। भूख हड़ताल को भी अपराध बना दिया गया है। जबकि नए नामकरण के साथ कुख्यात राजद्रोह कानून भारतीय दंड संहिता आईपीसी की धारा 124 ए को कायम रखा गया है। 

अन्य वक्ताओं ने कहा कि इन कानूनों के जरिए पुलिस को अनियंत्रित शक्तियां दे दी गई हैं जिनका देश में नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। नागरिक सुरक्षा संहिता कानून के तहत अब जनता के सवालों को लेकर सरकार के खिलाफ आवाज उठाना भी जुर्म हो गया है। ये प्रावधान जनता के अधिकार और किसी व्यक्ति की मानवीय गरिमा के हनन के अलावा कुछ नहीं है। ये कानून पुलिस द्वारा नागरिकों को निशाना बनाए जाने को आसान करता है।

सबसे गंभीर यह है कि पुलिस अभिरक्षा की अवधि को वर्तमान 15 दिन से बढ़ाकर 60 या 90 दिन कर दिया गया है। किसी गिरफ्तार आरोपी का नाम, पता और अपराध की प्रवृत्ति का पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय पर भौतिक एवं डिजिटल प्रदर्शन किया जाएगा। इसका मतलब है भाजपा सरकार जनता की आवाज को खामोश करने के लिए दमन और तेज करना चाहती है।

नेताओं ने कहा कि फौजदारी मामलों में पहले से ही पूरे भारत में 4 करोड़ मुकदमे लंबित हैं। उसके बीच में इन तीन कानूनों को लागू करना दो समानांतर कानूनी व्यवस्थाएं उत्पन्न करेगा, जिससे बैकलॉग और बढ़ेगा तथा पहले से अत्यधिक बोझ झेल रहे हमारे न्यायिक तंत्र पर अतिरिक्त दबाव पड़ेगा। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत के न्याय ढांचे को सुधार की अधिक जरूरत है लेकिन तीन फौजदारी कानून इसका जवाब नहीं है। ये अकारण ही हड़बड़ी में बिना चर्चा या संसदीय परख के ऐसे समय में पास किए गए जब 146 विपक्षी सांसदों को निलंबित कर दिया गया था।

इसलिए जरूरी है कि केंद्र सरकार इन तीन फौजदारी कानून को लागू करने का निर्णय स्थगित करे और उन्हें संसद में फ़िर से पेश करे ताकि इनकी सही जांच-परख हो सके और इन पर चर्चा हो सके।

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