अरुण कुमार त्रिपाठी
अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उन्नीसवीं सदी में लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए कहा था, “लोकतंत्र का मतलब जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता की प्रणाली से होता है।’’ लेकिन उन्होंने यह सोचा नहीं होगा कि एक दिन हिंदुस्तान उसका अर्थ बदल कर उसे- जाति के लिए, जाति के द्वारा और जाति का, कर देगा। जाति भारतीय समाज की बड़ी सच्चाई है। लोग जाति के कटघरे में जन्म लेने और उसके भीतर मरने के लिए बाध्य हैं।
लेकिन उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के जाति विरोधी आंदोलनों, 1950 में आए संविधान और 1952 से शुरू हुई वयस्क मताधिकार प्रणाली से यह उम्मीद जगी थी कि मौलिक अधिकारों के प्रभाव और हर पांच साल पर होने वाले चुनावों के माध्यम से जातियां टूट जाएंगी और भारतीय समाज एक समतामूलक समाज बन जाएगा। वह एक हद तक हुआ भी है लेकिन उसके विपरीत जातियां जब स्वयं चुनाव लड़ने लगीं तब जातियों के टूटने और कमजोर पड़ने के बजाय उनके बार बार जन्म लेने की स्थिति बन आई। आज जब 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी सहित कई दलों ने जाति जनगणना कराने को चुनावी मुद्दा बनाया है और इस पर सत्तारूढ़ दल की ओर से विरोध और घमासान मचा हुआ है तब जातियों की विभिन्न भूमिकाओं और नई संभावनाओं पर चर्चा करना लाजिमी हो गया है।
जातियों की इसी भूमिका पर रोचक कथाओं के साथ अरविंद मोहन नेजातियों का लोकतंत्रःजाति और चुनाव’ नामक अपनी नई पुस्तक तैयार की है। अरविंद मोहन समाजवादी चिंतक होने के साथ साथ उच्च श्रेणी के पत्रकार और चुनाव विश्लेषक हैं। उन्होंने टीवी चैनलों पर निरंतर हस्तक्षेप किया है। इसी दौरान विभिन्न राज्यों में चुनाव के माध्यम से जातियों के हस्तक्षेप और उनकी गतिशीलता को बहुत बारीकी से देखा है।इसी विषय पर उनकी एक और पुस्तक हैः-लोकतंत्र का नया लोक, जिसमें देश के विभिन्न राज्यों में चुनाव और लोकतंत्र के रिश्तों और उसके बीच आने वाले जाति और संप्रदाय के रोल का विस्तृत विश्लेषण है। वह पुस्तक संपादित है इसलिए उसमें हर राज्य की विशेषज्ञता रखने वाले विद्वानों के लेख हैं और उसका आकार भी बड़ा है। लेकिन
जाति और चुनाव’ उससे इस मायने में अलग है कि यह पुस्तक उनकी अपनी ही लिखी हुई है। इसलिए वह पुस्तक जन्म और मरण के समय चुनाव की छूट न देने वाली जातियों द्वारा चुनाव के समय किस तरह की छूट ली जा रही है, इसका विश्लेषण करती है।
राज्यों की राजनीति और उसके भीतर चलने वाली जातियों की गतिशीलता और जोड़ तोड़ पर इकबाल नारायण ने भी 1976 में स्टेट पालिटिक्स इन इंडिया’ नाम से एक पुस्तक संपादित की थी और उससे पहले अमेरिकी राजनीतिशास्त्री माइरन वीनर ने भी 1968 में
स्टेट पालिटिक्स इन इंडिया’शीर्षक से ही पुस्तक संपादित की थी। यह पुस्तकें उस दौर की हैं जब राज्यों की राजनीति की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने लगी थी लेकिन संचार माध्यमों पर जातियों की भूमिका की खुले आम चर्चा नहीं होती थी। शायद तब लोगों को यह अहसास था कि उनके पास जाति के प्रमाणित आंकड़े नहीं हैं। या एक तरह की लाज भी लगती थी जातियों पर चर्चा करने से। लेकिन यह लाज शर्म अस्सी के दशक के बाद टूटने लगी और पत्रकार, लेखक और सर्वेक्षण करने वाले इस बात को दरकिनार करने लगे कि उनके पास जाति के प्रामाणिक आंकड़े नहीं हैं। वे यह मानकर चलने लगे कि आखिर 1931 के आंकड़े तो हैं और उसी के आधार पर जब टिकट दिए जाते हैं तो विश्लेषण क्यों नहीं हो सकते।
भारतीय समाज में जाति की सच्चाई को रेखांकित करते हुए अरविंद मोहन लिखते हैं- “जाति भारत में चुनाव समझने की कुंजी है। यह बयान वे लोग भी स्वीकार करेंगे जिनको अपनी जाति का ज्यादा गुमान नहीं होता या जिनकी कोई जाति नहीं है। ऐसे आम तौर पर विदेशी ही हैं। इनमें ज्यादा पढ़ा लिखा या जाति को न मानने का दावा करने वाला समूह भी है और जाति के बंधन को तोड़कर शादी विवाह करने वाला समूह भी।…..यह बात भारत में मौजूद उन दूसरे धर्मों को मानने वालों पर भी लागू होती है जो जाति न मानने का दावा करते हैं और जिनके यहां हिंदू समाज की जाति व्यवस्था से पीड़ित होकर बहुत सारे लोग गए हैं। अगर उम्मीदवार अपनी बिरादरी का निकला तो बड़े से बड़े जाति तोड़ो वाले का मन डोल जाता है, विचारधारा कुछ समय के लिए सुन्न पड़ जाती है।’’
जातियों के इस हम्माम में पूरे समाज और सभी दलों को नंगा खड़ा देखकर अरविंद मोहन उसमें कुछ अच्छाइयां देखने से भी परहेज नहीं करते। वे कहते हैः- “और सब होने या लाख दुर्गुण के बावजूद जाति व्यवस्था और हमारे लोकतंत्र का मेल कबीलों की तुलना में ज्यादा बढ़िया बैठा है। कबीलों वाले समाज में सबसे बड़ा कबीला ही राज करता है जबकि जातियों में तो दलितों तक का नंबर आने लगा है। चुनावी लाभ और सत्ता की भागीदारी के लिए कई छोटी छोटी जातियों का साथ आना शुरू हो गया है। जबकि कबीलों में ऐसा घोषित तौर पर नहीं दिखता। फिर चुनावी लोकतंत्र ने जातियों के आपसी व्यवहार को भी प्रभावित किया है वरना ब्राह्मण और दलित एक मंच पर कैसे दिखते।’’
अरविंद मोहन ने अपनी इस पुस्तक में उत्तर प्रदेश जैसे विशाल और उत्तरी राज्य से लेकर छोटे और सुदूर दक्षिण के राज्य केरल तक पर नजर डाली है। एक प्रकार से यह देश के 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों का एक समाजशास्त्रीय अध्ययन है जो चुनाव की खिड़की से झांक कर किया गया है। कौन सा प्रदेश बड़ी कोशिश के बावजूद जाति के रंग में नहीं रंग पाया और कौन सा प्रदेश जातियों में विभाजित होने के बावजूद उदार लोकतांत्रिक मूल्यों का वाहक है, इसका पूरा मानचित्र इस पुस्तक में उपस्थित है।
यहां उत्तर प्रदेश और केरल की एक तुलना का उल्लेख करना मौजूं होगा। केरल वाले अध्याय का शीर्षक हैः-संतुलित जातिवाद। यह अपने आप में एक विरोधाभासी पदावली है लेकिन भारत तो इन्हीं विरुद्धों का समन्वय है। वे केरल का वर्णन करते हुए लिखते हैः- “अच्छी राजनीति ,सच्ची राजनीति और अच्छे राजनेता और अच्छी सरकारी नीतियों का क्या फल होता है यह देखना समझना हो तो अपने देश में केरल से बढ़िया उदाहरण नहीं मिलेगा।…………..केरल आज ऐसे मुकाम पर पहुंचा है कि हर समुदाय, हर जाति, हर क्षेत्र सत्ता में अपने अपने हिस्से से संतुष्ट है। केरल में शायद ही कोई भूमिहीन है, शायद ही कोई मलयाली भूखा सोता हो।’’
पुस्तक: जातियों का लोकतंत्रः जाति और चुनाव; अरविंद मोहन, राजकमल पेपरबैक्स,पृः 256, मूल्यः₹ 320
यहां पर केरल और उत्तर प्रदेश के बीच जो अंतर उन्होंने रेखांकित किया है वह देखने लायक है। अलीगढ़ मूल के अमेरिकी प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेयने एक बार जब अलीगढ़ से कुछ डाटा इकट्ठा करने के लिए रिसर्च सहायकों को भेजा तो `जागरण’ समेत कई अखबारों ने खबर छापीकि सीआईए अलीगढ़ में दंगा कराने के लिए सक्रिय है और इसीलिए आंकड़े इकट्ठा कर रहा है। यह था गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का एक नमूना। लेकिन यही आशुतोष जब मालाबार के मोपाला विद्रोह के जीवित बचे एक सज्जन का इंटरव्यू लेने वहां पहुंचे तो वहां के अखबारों ने शीर्षक दियाः-हिस्टोरियन मीट्स हिस्ट्री। यह छोटी सी बात उत्तर प्रदेश और केरल के बीच आए बदलाव को समझने के लिए काफी है। जातियां यहां भी हैं और वहां भी हैं। लेकिन दोनों की चेतना में अंतर है। एक की चेतना पर सांप्रदायिकता और संकीर्णता ने कब्जा कर रखा है और दूसरे में अस्मिता बोध के बावजूद लोकतांत्रिक मूल्यों की विकसित चेतना है।
इस पुस्तक के अध्यायों के शीर्षक विभिन्न राज्यों के बारे में सांकेतिक तौर पर बहुत कुछ कह देते हैं। जैसे कि बिहार के बारे में लिखे गए अध्याय का शीर्षक है- पिछड़ा गढ़ बनाने के लाभ-घाटे। इसी प्रकार बाकी राज्यों के शीर्षक इस प्रकार हैः-पश्चिम बंगालः नवजागरण का घना रंग, झारखंडः अधबने समाज की पूरी लड़ाई, ओडिसाः जाति राजनीति से बेपरवाह, छत्तीसगढ़ः खामोश बदलाव की शुरुआत, मध्य प्रदेशः मजबूरी में पिछड़ा पालिटिक्स, महाराष्ट्रः मराठा शक्ति का दबदबा, गुजरातः हिंदुत्व की प्रयोगशाला, राजस्थानः देर से जागा प्रदेश, पंजाबः सिर पर सवार संघर्ष की धुन, उत्तर प्रदेशः पहचान की राजनीति का अखाड़ा, असमः जाति, धर्म और राष्ट्रवाद का मुकाबला, शेष पूर्वोत्तरः कबीलाई राजनीति का इंद्रधनुष, आंध्र प्रदेशः सारी राजनीति पर हावी जाति, तेलंगानाःजाति और चालाकी की जंग, कर्नाटकःजाति बनाम संप्रदाय, तमिलनाडुः ठहरी हुई जाति क्रांति, लक्षद्वीपः सबसे छोटे राज्य का बड़ा दिल, पुडुचेरीः नाजुक इतिहास, बर्बर वर्तमान, वगैरह।
भारत में जातियों की राजनीति और चुनाव का यह अध्ययन राजनीति के विद्यार्थियों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के लिए बहुत उपयोगी है। देखना है कि पूरे देश में जाति का सर्वेक्षण होने के बाद नए आंकड़े क्या कहते हैं और चुनाव में किस प्रकार की शक्तियां लामबंद होती हैं। नब्बे के दशक में जातियों को सांप्रदायिकता का एंटीडाट माना जाता था। लेकिन इक्कीसवीं सदी तक आते आते सांप्रदायिकता ने जातियों को अपने हाथ का खिलौना बना लिया और चुनाव में किसी धर्मनिरपेक्ष दल के मुकाबले ज्यादा जातियों का गुणा गणित हिंदुत्ववादी दल ही बिठाता है। अब जब सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की पैरवी करने वाले दलों ने जाति संबंधी जनगणना को एजेंडा बनाया है तो देखना है कि वे इसके लिए किस तरह का संघर्ष करते हैं और सर्वेक्षण कराने व आंकड़े जारी करवाने में सफल हो जाने के बाद देश में समता और सौहार्द लाने के लिए जातियों का कैसे उपयोग करते हैं? उम्मीद है समय के साथ अरविंद मोहन का यह अध्ययन अपने साथ नए आयाम जोड़ेगा।
(समीक्षक अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं)