संजय कनौजिया की कलम”✍️
बीसवीं शताब्दी के मध्य में देश के, शोषित, उपेक्षित व वंचित समाज को, दो बड़े कद के नेता मिले जिन्होंने हिन्दू धर्म के अंदर जाति (वर्ण) के घोल को सबसे बड़ा दोष बताया, डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया..इसीलिए मैंने अपने लेख के (खंड-1) में इन्ही दोनो महानायकों पर शुरूआती व्याख्या करना उचित समझा..डॉ० अंबेडकर और डॉ० लोहिया क्यों समकालीन थे, इसे समझने से पहले हमें कुछ “हिन्दू धर्म” को भी समझना होगा..हिन्दू धर्म सिर्फ “हिन्दू शब्द” से ही क्यों ? क्या हिन्दू धर्म अन्य धर्मों की ही तरह एक धर्म है ?..जबकि देश की सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 1995 में एक फैसला सुनाया था जिसमे कहा गया था कि हिन्दू धर्म असल में कोई धर्म नहीं बल्कि जीने का एक तरीक़ा है..इतने सालों में कई बार सुप्रीम कोर्ट ने, हिन्दू-हिंदुत्व-हिंदुइज्म आदि शब्दों को कई बार समझाया है..अक्सर हिंदुत्व को हिन्दू धर्म कट्टरता का अंग माना जाता है..ईसाई धर्म और इस्लाम के बाद हिन्दू धर्म ही तीसरा सबसे बड़ा धर्म है..हालाँकि 90% (प्रतिशत) हिन्दू भारत में ही रहते हैं..हिन्दू धर्म का सबसे अनोखा सत्य ये है कि नास्तिकता भी इस धर्म का हिस्सा है और इस बात को डॉ० लोहिया ने भी स्वीकारा है कि, हिन्दू धर्म की विशेषता रही है कि यह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है परन्तु नया मत उतनी ही बार उसके ही एक हिस्से में वापस आ गया है..!
धर्म में, लोगों द्वारा भगवान को कैसे माना जाता है..इस बात से परिभाषित किया जाता है, इसमें नास्तिक (बिना भगवान वाला) अद्वैतवाद या एकेश्वरवाद यानी सिर्फ एक भगवान, बहुदेववाद यानी अनेक देवताओं में विशवास शामिल हैं..तैंतीस करोड़ देवी-देवता भी हैं और एक ईश्वर ब्रह्मा भी है..इसके अलावा यह धर्म, नास्तिकता को भी मानता है कि दुनियां में कोई भगवान ही नहीं सिर्फ तत्व हैं या पदार्थ हैं..हिन्दू धर्म को मानने वाले न जाने कितने ही लोग हैं..जिनमे लोगों की जाति अलग है और सभी के अलग रीति-रिवाज हैं..ये एकमात्र ऐसा धर्म है जिसमे इतने विभाजन हैं..सबके ज़हन को जो कौंधता है कि कहाँ से आया “हिन्दू शब्द” ?..धर्म के रिसर्च स्कॉलर “गाविन फ्लॉयड” के अनुसार हिन्दू शब्द असल में भारतियों का नहीं बल्कि फारस या पर्शिया का है..यह शब्द उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जो सिन्धु नदी के दूसरी तरफ रहते थे..खासतौर पर छठवीं सदी में राजा “डेरियस ऑइल” (550-486 बी.सी.ई) के लेखों में इस शब्द को देखा जा सकता है..ये शब्द उस समय भौगोलिक शब्द की तरह इस्तेमाल किया जाता था बल्कि न किसी धर्म की तरह..धर्म की बात तो चौदवीं शताब्दी तक फ़ारसी दस्तावेज, “फुतुहु सलातीन अब्द अल मलिक इस्लामी” द्वारा लिखे में मिलता है..इसके अलावा सातवीं सदी के “सुआनज़ांग” द्वारा लिखे गए चीनी लेख में “रिन्तु” शब्द का वर्णन मिलता है..वैसे भी हिन्दू धर्म का कोई संस्थापक नहीं है यानी इस धर्म का कोई पिता नहीं है..कुछ ऋषियों ने मिलकर जीने के तरीके का प्रचार करना शुरू कर दिया था..इसे हिन्दू धर्म नहीं सनातन धर्म कहा जाता है, लेकिन सनातन का अर्थ समझा जाए तो संस्कृत में सनातन का अर्थ “पुराना” जाना जाता है यानी एक “पुराना धर्म” बाद में शायद पुराणों की काल्पनिक व्याख्याएं के ग्रन्थ भी इसी आधार पर गड़े गए हों..ये धर्म 1500-2000 ईसा पूर्व शुरू हुआ और उस समय भी हिन्दू धर्म का कोई एक प्रचारक नहीं बल्कि कई प्रचारक थे..कुछ लोग इस धर्म को 5500 ईसा पूर्व या उससे भी अधिक मानते हैं..उस समय सिन्धु नदी के पास रहने वालों का एक ही धर्म था, जो प्रकृति की किसी भी चीज को ईश्वर मानते थे..जब सनातन का अर्थ पुराना है तो, यह भी सर्वविदित है कि फ़ारसी में हिन्दू का अर्थ “चोर” है..!
वर्तमान में हिन्दू धर्म के नासमझ कुछ खास लोग जो अपने को हिन्दू धर्म का रक्षक बताते की ठेकेदारी लिए घूम रहे हैं अपने उद्धघोष को प्रचलन में भी लाए हुए हैं कि “गर्व से कहो हम हिन्दू हैं”..ख़ैर ये कोई विशेष चर्चा का मुद्दा भी नहीं है, लेकिन इसे भी समझने के लिए हमें (973-1048) के एक फ़ारसी विद्वान, लेखक, वैज्ञानिक, धर्मज्ञ तथा विचारक जिनकी रचनाएँ अरबी भाषा में हैं, पर उसे अपनी मातृभाषा फ़ारसी के अलावा तीन भाषाओँ का भी ज्ञान था, जो सीरियाई, संस्कृत और यूनानी थी..वो भारत और श्रीलंका की यात्रा पर 1017-20 के मध्य आया था..गज़नी के महमूद, जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किये, वह विद्वान गजनवी के कई अभियानों में साथ था..जिन्हे भारतीय इतिहास का पहला जानकार कहा जाता है, उसे “अबु रेहान मोहम्मद बिन अहमद अल-बयरुनी” कहा जाता है..आरम्भ में अलबरूनी ख़्वारिज़्म के ममुनि शासक का मंत्री था क्योकि शासक उनकी विद्धता से प्रभावित था..अलबरूनी द्वारा लिखी गई पुस्तक जिनका नाम “तहक़ीक़-ऐ-हिन्द” एवं “किताब-उल-हिन्द” है..अलबरूनी ने जिन संस्कृत ग्रंथों को अरबी में अनुवाद किया उसमे पतंजलि का व्याकरण ग्रन्थ भी है..अलबरूनी ने भारत की सामाजिक स्थिति पर लिखा कि सारा हिन्दुस्तानी समाज जाति-प्रथा के कड़े बंधनो में जकड़ा हुआ था, उस समय बाल-विवाह, और सती-प्रथा की कुप्रथा मौजूद थीं, विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी..शिक्षा केवल खास वर्ग तक सीमित थी वह भी जातिगत विभाजित थी लेकिन नीच (शूद्र) कही जाने वाली जातियों को शिक्षा पूरी तरह वर्जित थी..सवाल यही उठता आ रहा है कि हिन्दू धर्म कहे जाने वाले जिसमे जीने का तरीको के सिद्धांत को बतलाया गया है उसमे जाति एवं अन्य कुरूतियों का विस्तार किसने और क्यों किया ?..जाहिर है तब उच्च शिक्षा केवल एक खास वर्ग में थी और नियम कायदे वही वर्ग बनाता था और वह वर्ग था ब्राह्मण..उसने किवदंतियों, जातक कथाओं, दंत कथाओं और अपने स्वार्थ सिद्ध हेतू मनगढंत कल्पनाओं जिसमे आत्मा-परमात्मा, भूत-प्रेत, जादू-टोना, विभिन्न पूजा पद्दति, पाखंड से भरे अवैज्ञानिक कर्म-काण्ड आदि इत्यादि विषयों को लेकर एक नए मनगढंत “मनु-स्मृति” नामक पुस्तक की रचना रच डाली थी…
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)
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