संजय कनौजिया की कलम”✍️
और शीला सरकार को भी हरा दिया..लेकिन चुनाव बाद किसी ने भी शीला दीक्षित पर ना कोई आरोप लगाया और ना ही सिद्ध करने का कोई प्रयास किया गया..इससे सिद्ध हुआ कि 2013 में भ्रष्ट्राचार केवल एक राजनीतिक प्रेपोगेंडा था..उसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव के केंद्र में भी भ्रष्ट्राचार का मुद्दा केंद्र में रहा, तथा यू.पी.ए सरकार में मंत्री रहे नेताओं पर भ्रष्ट्राचार के आरोपों सहित कालेधन को वापस लाने और दोषियों पर कानूनी कार्येवाई का वायदा भाजपा के मुख्य नेता बने नरेंद्र मोदी ने अपने नाटकीय अंदाज़ में लच्छेदार मनमोहक अंदाज़ में लोकलुभावन सम्बोधनों द्वारा देश की जनता को भ्रमित कर डाला..मोदी की केंद्र में सरकार बनने के बाद ना तो कालाधन आया, ना ही किसी भी नेता पर भ्रष्ट्राचार, कानूनी रूप से सिद्ध हो सका..इस बार भी भ्रष्ट्राचार एक राजनीतिक प्रेपोगैंडा बनकर रह गया..भ्रष्ट्राचार को भले ही समाज की स्वीकार्यता ना हो लेकिन यह अपने प्रभाव को असरदार एक समय के अंतराल में प्रमुखता से प्रकट करता है..जैसे देश की आजादी के 25 वर्षों के बाद वर्ष 1974 में असरदार हुआ..उसके बाद 22 वर्षों बाद वर्ष 1989 में असरदार हुआ, फिर 2013-14 में 23 वर्षों बाद असरदार हुआ..यानी 20 से 25 वर्षों के अंतराल में यह असरदार रूप से जनता के सामने आता है, बांकी तो मौलिक अधिकार से जुड़े बुनयादी जरूरतों के मुद्दों पर ही सरकारें बनती-गिरती रहीं हैं..मुख्य नेताओं में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के बाद सिर्फ लालू यादव ही हैं..जो साजिश के तहत अपने ऊपर लगे कुछ मुकदमो में निर्दोष साबित तो हुए ही, बल्कि बांकी मुकदमो में भी निर्दोष साबित होने ही जा रहे थे..तभी मनुवाद से ग्रसित केंद्र सरकार और लालू यादव को अपना प्रमुख प्रतिद्वंदी समझने के खतरे से उबरने के उद्देश्यों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने, सत्ता के शीर्ष पर होने का लाभ व नैतिकता को दरकिनार कर अदालतों पर गैर संवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल तथा दबाव बनाकर, निर्दोष लालू यादव को, दोषी करार करवा दिया..जिसके कारण लालू यादव को काफी वक्त जेल में बिताना पड़ा, जहाँ उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया..परन्तु लालू यादव सांप्रदायिक फासीवादियों के आगे झुके नहीं और ना ही टूटे..क्योकि उनके साथ बिहार की जनता के लगातार बने प्यार व आशीर्वाद की शक्ति रही..यह शक्ति आज कहीं और ज्यादा बढ़ भी चुकी है..इसी शक्ति के कारण आज लालू यादव देश विदेश में एक लोकप्रिय नेता के रूप में जाने जाते है..लालू यादव की लोकप्रियता का राज केवल उनका लोकप्रिय होना ही नहीं, बल्कि उनका इस बात पर भी अडिग होना है कि वह जो कहते है, उसे कर के भी दिखाते है, यानी उनका अपने दिए वचन के प्रति ईमानदार होना है..उनका वचन पत्थर की लकीर है, यही कारण है कि लोग उन्हें छोड़ते नहीं और जो छोड़कर चले भी जाते हैं..वह पुनः घर वापसी चाहते हैं तब यदि लालू यादव उन्हें वचन दे देते है, तो वह वापस भी चले आते है..लालू यादव का यही अंदाज़ उन्हें लोकप्रिय ही नहीं महान भी बनाता है.. लालू यादव को यह सब किसी विरासत में नहीं बल्कि जनमानस के प्रति कटिबद्धता उनके बीच का आम व देहाती बनकर रहना, लोकभाषा में अपनापन देते हुए अपनी हास्य शैली से बुझे हुए चेहरों में मुस्कान बिखेरना, साथ ही वक्त की नजाकत को भांपते हुए जनमानस के हित में त्याग-क़ुर्बानी-पीड़ा-अपनों के दिए धोखे आदि इत्यादि सहना भी शामिल हैं..यह सब लालू यादव की स्वयं की कमाई है..भले ही आज लालू यादव, मनुवादियों की साजिश की बदौलत, स्वयं चुनाव लड़ जनमानस की सेवा से कुछ वक्त के लिए वंचित हो रहे हों, लेकिन उनके चाहने वालो को पूर्ण विशवास है कि देश की सुप्रीम अदालत उन्हें अवश्य निर्दोष साबित करेगी..आज लालू यादव देश के दार्शनिक राजनेता के रूप में जाने जाते हैं..अब उनके दो ही लक्ष्य हैं, एक साम्प्रदायिक फासीवादियों की अधर्मी सरकार को उखाड़ फेंकना..दूसरा आखिरी पायदान पर खड़े शोषित-उपेक्षित-वंचित-गरीब के हक़ अधिकार को दिलाना है..लालू यादव ने उस क्रांतिकारी उद्धघोष को चरितार्थ कर दिखाया, जिसके बोल हैं “लड़ेंगे और जीतेंगे”..दृढ निश्चय और दृढ विश्वास व वचन के प्रति अडिग रहना ही लालू यादव कहलाता है..!
देश की आजादी के बाद, डॉ० भीम राव अंबेडकर द्वारा मिले संविधान के पवित्र दिशा के अनुरूप हर भारतीय को चलने का माध्यम रखा गया..और सभी धर्मो को बराबर का सम्मान का प्राबधान बनाया गया, उसके बावजूद अधर्म ने अपना स्थान रिक्त ना होने दिया..अधर्म का अस्तित्व में रहने के तीन मुख्य कारण रहे (1) शिक्षा का अभाव (2) वर्ण व्यवस्था का जातिवाद और (3) धर्म के प्रति बढ़ती कट्टरता..शिक्षा को तो डॉ० अंबेडकर ने हर भारतीय के लिए अनिवार्य कर, क़ानून बना दिया था और शनैः शनैः ही सही, आज अधिकतर लोग शिक्षित हो रहे हैं..लेकिन जातिवाद और धर्म की कट्टरता समाप्त ना हो पाई..यही कारण है धीरे-धीरे इस पर राजनीतिक रंग चढ़ने लगा और बाद वक्त यह मंडल और कमंडल में तब्दील हो गया..50-60-70 के दशक तक अधर्म की गति बहुत ही धीमी रही, लेकिन धीरे धीरे जनसंघ जैसे ही भारतीय जनता पार्टी नामक संगठन में तब्दील हुई, उसकी राजनीतिक इच्छा शक्ति में हिंदुत्व का उद्धघोष पहले से ज्यादा उछाल भरने लगा..आरएसएस का सामाजिक अभियान और भाजपा का राजनीतिक आंदोलन हिंदुत्व के मूल चरित्र के विपरीत बढ़ने लगा तथा मनुवाद के मार्ग को प्राथमिकता को केंद्र में ले आया, और राम तथा धार्मिक स्थलों को मुद्दा बनाकर, देश की 80% (प्रतिशत) हिन्दू कहे जाने वाली आबादी की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ शुरू कर अल्पसंख्यक वर्ग के खिलाफ आग उगलना शुरू कर दिया और समाज में वैमनष्य की स्थिति को बल मिलने लगा.. हालांकि इस वैमनष्यी अधर्म को, केवल हिन्दू कहे जाने वाले 15-20% (प्रतिशत) तक के कट्टर हिन्दूओं का ही समर्थन रहा..लेकिन बावजूद भाजपा की अटल सरकार के रहते हुए भी अधर्म चरम तक नहीं पहुंचा था..उसके बाद देश के धर्मनिरपेक्ष सोच के समर्थकों ने अटल सरकार की भी सत्ता छीन ली….
धारावाहिक लेख जारी है
(लेखक-राजनीतिक व सामाजिक चिंतक है)