*स्त्री को जान लेना मोक्ष है!*
~ डॉ. विकास मानव
कामाय नमः। नारी को जानना= अपने को जानना. यह आत्मसाक्षात्कार यानी मोक्ष है। इस सत्य को जो जानता है, वह ज्ञानी- विज्ञानी- महात्मा है। नारी को जानने के लिये पुरुष विवाह करता है। लेकिन क्या नारी उसे यह जनवा देती है कि वह क्या है? कोटि कोटि पुरुषों में कोई एक समझ पाता है कि स्त्री क्या है.
विपश्चितों का मत है कि नारी अज्ञेय है, अतिबुद्धिमती एवं अनिश्चित है। भारतवर्ष में नारी को दुर्गा काली लक्ष्मी सरस्वती चण्डी भैरवी सीता पार्वती सावित्री अनसूया के रूप में पूजा जाता है। नारी को शक्ति माना जाता है। अन्यत्र ऐसा नहीं है। वैदिकधर्म में सभी देवता विवाहित हैं तथा उन देवों की पत्नियों उनकी शक्ति हैं। शिव का पार्वती से, विष्णु का लक्ष्मी से इन्द्र का शची से, राम का सीता से, कृष्ण का रुक्मिणी आदि से विवाह हुआ।
ये देव अपनी पत्नियों की रक्षा के लिये अस्त्र धारण करते हैं शिव त्रिशूलधारी हैं, विष्णु गदाधर हैं, इन्द्र वज्रवान् है, राम धनुर्धर हैं, कृष्ण चक्रधर है। इसका अर्थ हुआ सब को विवाह करना चाहिये तथा अपनी स्त्रियों के शील की रक्षा के लिये दुष्टों के दलन हेतु शस्त्र अवश्य रखना चाहिये।
दुर्गा का कोई पति नहीं है। वह स्वयं बहुशस्त्रधारों हो कर अपनी रक्षा करती है। इस लिये अविवाहित स्त्री को दुर्गा बन कर अपनी रक्षा करनी चाहिये।
व्याभिचार क्या है ? परनारी की योनि में पुरुष द्वारा वीर्यस्थापन तथा अथवा पर पुरुष के वीर्य को अपनी योनि में स्थान देना।
इस से वर्णसंकरता फैलती है, इस लिये यह सामाजिक अपराध वा शात्रीय पाप होने से निषिद्ध है। नियोग व्यभिचार नहीं है। उच्चतर उद्देश्य के लिये अनासक्त भाव से परनारी वा परनर संसर्ग न तो अपराध है, न पाप है। जैसे-विष्णु ने शंखचूड दानव जो कि सुदामा नामक कृष्ण का सखा एवं गोप था, का वेश धारण कर छलपूर्वक उसकी पत्नी तुलसी के साथ रति किया। तुलसी का सतीत्व नष्ट होने से शंखचूड, शिवद्वारा मारा गया। तुलसी के शाप से विष्णु को शालग्राम पत्थर होना पड़ा। तुलसी का शरीर गण्डकी नदी बन गया। तुलसी के केश तुलसी नामक पौधे में परिणित हो गये जो कि परमपवित्र मान्य है। किसी भी घटना के पीछे पूर्वजन्म की घटनाएँ कारण होती हैं। तुलसी नाम की एक गोपी से सुदामा गोप रति की इच्छा रखता था, वह तुलसी गोपी कृष्ण से रति की इच्छा रखती थी।
कृष्णप्रिया राधा के शाप से गोप सुदामा को दानव बनना पड़ा तथा गोपी तुलसी को नदी। दोनों की पूर्वजन्म की इच्छा अगले जन्म में पूर्ण हुई-सुदामा चन्द्रचूडदानव हो कर तुलसी को पत्नी रूप में पा कर उससे रति किया तथा उस तुलसी ने कृष्ण को (जो कि शंखचूड का रूप धारण किये हुए थे) पा कर उन से रति सुख प्राप्त किया।
कृष्ण आज भी पत्थर बन कर नदी बनी हुई तुलसी के साथ अहर्निश रति कर रहे हैं। ये सब रहस्यमयी कथाएँ ज्ञानविज्ञान से पूर्ण एवं परमगुढ़ा हैं। यह सत्य सब की समझ से परे है।
लोकोपकार वा परमार्थ के लिये परस्त्री में वीर्य स्थापित करके उसे ज्ञानी विज्ञानी संत महापुरुष प्रदान करना, व्यभिचार होते हुए भी व्यभिचार न हो कर प्रशस्त कर्म है।
एक सिद्धवैष्णव ने एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ में अपना वीर्य डाल कर जिस महापुरुष को उत्पन्न किया, उसका नाम ‘कबीर’ है। इस नाम से विश्व परिचित है। इसी प्रकार एक बौद्ध महात्मा जो कि सिद्ध था आकाश मार्ग से प्रकट हो कर मेरी नाम की एक कुमारी की योनि में अपने वीर्य को स्थापित कर ‘क्रिष्ट’ को उत्पन्न किया। इस कृष्ट को कौन नहीं जानता?
जहाँ कबीर एक वैष्णव सन्त थे वहीं कृष्ट एक बौद्ध सन्त (दया और क्षमा के अवतार) थे।
इनदोनों को मेरा सभी दिशाओं से प्रणाम। जब कोई स्त्री किसी पर पुरुष से सम्भोग करे अथवा कोई पुरुष किसी पर स्त्री से सहवास करे और इस प्रकार के संसर्ग में काम की गन्ध न हो तो इसे देवी व्यभिचार कहते हैं। दैवी व्यभिचार केवल दैवी ही है। इसका साधारणीकरण नहीं किया जा सकता। सामान्यीकरण होने पर यह निन्दनीय है।
अपवादतः दैवीव्यभिचार वरेण्य है। ऐसे व्यभिचारी को मेरा नमस्कार। जीव जिस जिस की कामना करता है, उसे वह वह मिलता है। यह कामना विचार पूर्वक हो वा अविचारपूर्ण। इसके लिये जीव को ८४ लाख योनियों से होकर चलना पड़ता है। उसे कामना का मूल्य देना पड़ता है। यह मूल्य है-दुःख वा नरक के समस्त द्वारों में प्रवेश तथा नरकवास। इसलिये कामना न करना, कामना का न होना ही अच्छा है। इस से वह जीव अपार दुःख से बच जाता है। मूर्ख जीव कामना के पीछे दौड़ता है।
काम का अन्त नहीं तो कामना का कैसे अन्त होगा ? काम अनंग है, कामना अनन्त । अनंग और अनंत से कौन पार पा सकता है ?
एक पुरुष जिस स्त्री को चाहता है, वह स्त्रो किसी अन्य पुरुष को चाहती है। वह अन्य पुरुष किसी दूसरी स्त्री को चाहता है। वह दूसरी स्त्री किसी और पुरुष को चाहती है। वह और पुरुष किसी इतर स्त्री को चाहता है। इस का एक चक्र बनता है। जिसको कामावर्त कहते हैं। इसमें जो जिसको चाहता है, वह उसको नहीं चाहता एक मिथ्या आभास होता है कि वह हमें चाहता वा चाहती है। किन्तु चाहते हैं, सभी लोग किसी न किसी को मिथ्या प्रेम के पीछे सभी दौड़ रहे हैं और मिथ्यानन्द में निमग्न भी हैं।
ऐसे कामदेव को जो कि अपने-अपने आवर्त में सब को घुमा रखा है, को भर्तृहरि जी धिक्कारते हैं।
‘धिक्तां च तं च मदनं च इमां च मां च।”
~भर्तृहरि नीति शतकम् -२