(1) दिलीप कुमार ने अपनी ‘आत्मकथा‘ में नेहरू का सार्थक उल्लेख किया है। नेहरू ने खुद होकर दिलीप कुमार को टेलीफोन किया था। तब वी.के. कृष्णमेनन उत्तर बम्बई निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव आचार्य कृपलानी के विरुद्ध लड़ रहे थे। नेहरू ने दिलीप कुमार से कांग्रेस के पक्ष में प्रचार करने का आग्रह किया जिसे उन्होंने स्वीकार किया। कृष्ण मेनन के चुनाव अभियान के कारण दिलीप कुमार की निकटता कांग्रेस नेता बैरिस्टर रजनी पटेल से घनिष्ठ हुई। रजनी पटेल और उनकी पत्नी बकुल पटेल की राजनीति को दिलीप कुमार ने लगातार सहयोग और समर्थन दिया। साथ ही प्रसिद्ध मराठा क्षत्रप शरद पवार से भी उनकी निकटता हुई। इन सबने मिलकर मुम्बई के वरली में इन्दिरा गांधी के सहयोग से प्रसिद्ध नेहरू सेंटर की स्थापना की।
(2) लाॅर्ड मेघनाद देसाई ने दिलीप कुमार की फिल्म कला पर ‘नेहरूज़ हीरोः दिलीप कुमार‘ नामक किताब (2014) लिखी है। देसाई ने तरह तरह से सिद्ध और विस्तारित करने की कोशिश की कि दिलीप कुमार की नायक भूमिका की सार्वजनीनता पर सबसे ज़्यादा असर जवाहरलाल नेहरू का रहा है। यह कथन विवादास्पद हो सकता है, लेकिन इसकी पड़ताल करने की भी ज़रूरत है। नेहरू उस पीढ़ी के आदर्श और रोल माॅडल रहे हैं जो देश की आज़ादी के साथ युवा हुई। दिलीप कुमार, राजकपूर और देवआनन्द की तिकड़ी के अतिरिक्त सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार, अशोक कुमार, किशोर कुमार, गुरुदत्त और किशोर साहू जैसे अभिनेता और निर्देशक नेहरू से अपरिचित नहीं थे। इस सूची के वरिष्ठों में महबूब खान, हिमांषु राॅय और उनकी पत्नी देविका रानी आदि को शामिल किया जा सकता है। दिलीप की नायिका कामिनी कौशल और राजकपूर की नायिका नरगिस के विचारों में भी नेहरू से प्रभावित होने के साक्ष्य मिलते हैं।
(3) ऐसा वक्त था जब सुभाष बोस और भगतसिंह जैसे उद्दाम क्रांतिकारी भी नेहरू को अपना नेता मानने से गुरेज नहीं करते थे। दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वारभाटा‘ (1944) से लेकर ‘लीडर‘ (1964) तक के हिन्दुस्तान में नेहरू का एकक्षत्र नेतृत्व साम्राज्य रहा। इसलिए इस दौर की दिलीप कुमार की फिल्मों में नेहरू लक्षणों का प्रक्षेपण मेघनाद देसाई को दिखना संभव हुआ है। बाद की फिल्मों में भी दिलीप कुमार ने नेहरू की बौद्धिक परंपरा से प्रभावित रहने का अप्रत्यक्ष जतन किया है। नेहरू के जीवनकाल में दिलीप कुमार ने अपनी कुल 57 फिल्मों में से 37 फिल्में कर ली थीं। इन फिल्मों में उन्होंने नेहरू शैली के आदर्शवाद से युक्त एक समाजोन्मुख चरित नायक का चेहरा अपने अभिनय में उकेर लिया था। उसमें भारत के लाड़ले जननायक की झिलमिलाती छवि दर्शक की आंखों से ओझल नहीं होती थी।
(4). नेहरू के अवसान के साथ ही दिलीप कुमार प्रौढ़ हो चले थे। इसलिए बाद की फिल्मों ‘विधाता‘, ‘शक्ति‘, ‘क्रांति‘, ‘मशाल‘, ‘कर्मा‘ वगैरह में उन्होंने ताकतवर चरित्र अभिनेताओं की भूमिकाएं स्वीकार कीं। नेहरू परिवार के वंशज अंतिम प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल के खत्म होते बाबरी मस्जिद के ध्वंस तथा मुम्बई सहित अन्य नगरों के सांप्रदायिक दंगों में नेहरू प्रणीत धर्मनिरपेक्षता को कायम रखने की बात कहने के कारण दिलीप कुमार दक्षिणपंथी हिन्दू कठमुल्ला ताकतों के निशाने पर आ गए। दिलीप कुमार द्वारा पाकिस्तान का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज़‘ को (23 मार्च 1998) स्वीकार करने को लेकर भी चुनौती दी गई। यह संयोग था 23 मार्च शहीदे-आज़म भगतसिंह की शहादत और समाजवादी विचारक नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया की जन्मतिथि है जो हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द्र के राष्ट्रीय प्रतीक रहे हैं। अपने 80 वें जन्मदिन पर ‘एशियन वाॅइस‘ को दिए इंटरव्यू में दिलीप कुमार ने दुखी होकर कहाः ‘अपने हमवतनों पर हो रहे अत्याचार से बचने के लिए मैं कहां जा सकता हूं…….मुसलमान बहुत जल्दी इतिहास का हिस्सा हो जाएंगे। हर एक सभ्यता गोलाकार होती है और खत्म होनी चाहिए। मेरी निजी समझ है कि भारतीय मुसलमान आबादी कालांतर में खत्म हो जाएगी।‘
(5) नेहरू युग से प्रेरित फिल्मों में दिलीप कुमार केवल रोमांटिक नायक नहीं रहे हैं। उन्होंने पिता, शिक्षक और प्रेरक भूमिकाओं को भी स्वीकार किया। वक्त आया जब राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार, धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान और सलमान खान वगैरह ने भी राष्ट्रीय धमक की फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वाह किया। अमिताभ बच्चन, सुनील दत्त और राजेश खन्ना वगैरह ने कांग्रेस उम्मीदवारों के रूप में लोकसभा के चुनाव भी लड़े हैं। दिलीप कुमार बहुत बाद में राज्यसभा में मनोनीत किए गए। नेहरू के कार्यकाल में वे अकेले प्रमुख अभिनेता थे जो नेता के आह्वान के कारण कांग्रेस समर्थन की सड़क की राजनीति में कूदे। 1964 में बनी फिल्म ‘लीडर‘ की कहानी खुद दिलीप कुमार ने लिखी थी। उसमें नेहरू के समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष आदर्शों की साफ साफ अनुगूंज सुनाई पड़ती है। इस सिलसिले में दिलीप कुमार की एक भूमिका फिल्म कलाकार के अतिरिक्त एक प्रबुद्ध मुसलमान नागरिक की भी रही है। जाहिरा तौर पर दिलीप कुमार मोहम्मद अली ज़िन्ना की दो राष्ट्र की थ्योरी से सहमत भी नहीं थे। उनके परिवार ने इसीलिए विभाजन के बाद भारत के साथ रहना चुना। नेहरू युग में मुसलमान भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में रहे।
(6) ‘गंगा जमुना‘ फिल्म को तब के सूचना प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर के आदेश पर प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई थी। कथित तौर पर उसमें कुछ आपत्तिजनक दृश्य थे। सेंसर बोर्ड की समझ के अनुसार उससे डकैती को भी प्रोत्साहन मिलता। दिलीप कुमार ने पूरी तैयारी के साथ इन्दिरा गांधी की मदद से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से वक्त मांगा। पंद्रह मिनटों का दिया गया वक्त डेढ़ घंटे तक फैल गया। दिलीप कुमार ने अपने व्यवस्थित नोट तथा अस्तव्यस्त होने का भ्रम देती बेहद तार्किक विचारशीलता के जरिए नेहरू को आश्वस्त किया। ‘गंगा जमुना‘ जैसी की तैसी रिलीज़ हुई। कई अन्य फिल्मों को भी सेंसर बोर्ड के जेलखाने से छूट का फरमान मिला। दिलीप कुमार इन फिल्मों के जमानदार नहीं अधिवक्ता बनकर गए थे। पता नहीं क्यों बाद में केसकर मंत्रालय से हटा दिए गए।
(7) यह दिलचस्प विरोधाभास है कि मुस्लिम हितों के समय समय पर अवनत होने की स्थिति में दिलीप कुमार ने उनका भी प्रतिनिधित्व करने में गुरेज़ नहीं किया। साथ साथ यह देखना दिलचस्प है कि अपनी 57 फिल्मों में ‘मुगले आज़म‘ को छोड़कर दिलीप कुमार ने लगातार और सघन रूप से हिन्दू चरित्रों का ही अभिनय किया। यह भी जनता के बहुमत में उनके अपनाए जाने का बड़ा कारण बनता है। हिमान्शु राॅय द्वारा स्थापित बाम्बे टाॅकीज़ से दिलीप कुमार लगातार संबद्ध रहे। उस संस्था ने अपनी स्थापना से ही धर्मनिरपेक्ष और समाजोन्मुख मूल्यों और अवधारणाओं का रचनात्मक समर्थन किया। डाॅ. बी.वी. केसकर द्वारा दिलीप कुमार की ‘गंगा जमुना‘ सहित कई अन्य सामाजिक संघर्षों को उकेरती फिल्मों पर प्रतिबंध की मानसिकता बम्बई के फिल्म उद्योग में विकसित हो रही वैचारिक बुनियाद की विभिन्नताओं में देखा जा सकता है। (जारी) ।