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बिहार – ओबीसी केन्द्रित राजनीति की दिशा एवं भविष्य

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श्रावण देवरे*

*‘‘ओबीसी की जाति आधारित जनगणना अर्थात संघ-भाजपा की मृत्यु, यह सूत्र जो समझ सकते हैं वही बिहार के सत्ता परिवर्तन के पीछे के रहस्य को समझ सकते हैं!’’* फेसबुक पर यह छोटी सी पोस्ट डालते ही कमेंट्स की बरसात होने लगी, उनमें से अनेक फेसबुक मित्रों ने इस विषय पर “विस्तृत लेख” लिखने की विनती की। ओबीसी जनगणना पर मेरी हिंदी व मराठी में दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और इसी विषय पर “बहुजननामा”  शीर्षक से आठ-दस लेख प्रसिद्ध हो चुके हैं। अनेक व्याख्यानों में और राज्यस्तरीय ओबीसी जनगणना यात्राओं में अपने विचार रखता रहा हूं। परंतु सामाजिक व राजनीतिक विषय बदलती परिस्थितियों में मोड़ लेते रहते हैं इसलिए उनके संदर्भ व आधार भी बदलते रहते हैं। उसमें ओबीसी जनगणना जैसा विषय क्रांति- प्रतिक्रांति से जुड़ा होने के कारण दोहराव का खतरा उठाकर भी उस पर लगातार लिखते रहना पड़ता है।

ओबीसी जनगणना का विषय जितना संवेदनशील है उतनीही तीव्रता से सीधे शत्रु से भिड़ने वाला भी है। इसका एहसास आंदोलन में मैंने कई बार कराया है। *2009 – 10 में ओबीसी जनगणना की मांग जोर पकड़ने के बाद उसे कैश करने के लिए व अपना अस्तित्व ओबीसी नेता के रूप में सिद्ध करने के लिए करीब करीब सभी पार्टियों के ओबीसी नेता इस लड़ाई में उतरे।* गोपीनाथ मुंडे, छगन भुजबल, समीर भुजबल, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधि, नाना पटोले जैसे विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के दिग्गज ओबीसी नेतागण अक्षरशः युद्ध की मंशा लिए लड़ाई में उतरे। अनेक बार संसद को बंद कर दिया गया। आंदोलन डायवर्ट करके निष्प्रभावी बनाने के लिए  अण्णा हजारे व केजरीवाल की लोकपाल नौटंकी का मीडिया द्वारा जोर शोर से प्रचार प्रसार किया गया। परंतु इन सभी अड़चनों को मात करते हुए ओबीसी जनगणना का विषय मैदान छोड़ने को तैयार नहीं था। छगन भुजबल द्वारा रामलीला मैदान पर प्रचंड रैली निकालने की घोषणा करते ही सत्ताधारी ब्राह्मणी छावनी बिल्कुल घबरा गई। क्योंकि इसके पहले छगन भुजबल रामलीला मैदान खचाखच भर कर दिखा चुके थे। उसी समय गोपीनाथ मुंडे का लोकसभा में ओबीसी जनगणना की मांग पर जोरदार भाषण ब्राह्मणी छावनी के जान पर आ गया था। इस क्रांतिकारी पार्श्वभूमि में सत्ताधारियों को मजबूरन पार्लियामेंट में ओबीसी जनगणना कराने की घोषणा करनी पड़ी।

     कांग्रेस सरकार के तत्कालीन गृहमंत्री प्रणव मुखर्जी ने संसद में स्पष्ट रूप से कहा कि 2011 की राष्ट्रीय जनगणना में ओबीसी जनगणना होगी! संसद में स्पष्ट आश्वासन मिलने के कारण सभी ओबीसी नेताओं ने अपनी तलवार म्यान में रख ली। संसद में दिया गया यह आश्वासन केवल समय निकालने के लिए एक ब्राह्मणी खेल था यह बाद में मालूम पड़ा। जनगणना के चार्ट में ओबीसी कालम ही नहीं था। इस पर लोकसभा में फिर हंगामा हुआ। उस समय संसद में “स्वतन्त्र रूप से आर्थिक व जातीय जनगणना” कराने के लिए कानून मंजूर किया गया। “सोशियो  इकनॉमिक व कास्ट सेंसेक्स -2011” अर्थात *‘SECC-2011’* यह उस कानून का नाम था। ओबीसी आंदोलन की यह बहुत बड़ी जीत थी। किंतु *कानून बनाते समय उसके प्रावधानों पर बारीकी से ध्यान देने की सतर्कता न हमारे नेताओं में थी और न ही उनके आगे पीछे घूमने वाले बुद्धिजीवियों में!* जनगणना का कानून मंजूर होते ही सभी ओबीसी नेता बेफिक्र हो गए। परंतु इस कानून के अनुसार होनेवाली स्वतंत्र जनगणना के चार्ट में भी ओबीसी कालम  ही नहीं था, सिर्फ जाति का कालम था। इस कानून में सबसे ज्यादा फंसाने वाला प्रावधान यह था जिस पर ओबीसी लाॅ- मेकर्स ने कभी ध्यान ही नहीं दिया।

प्रावधान ऐसा किया गया था कि,*”इस कानून के अनुसार होनेवाली जाति आधारित जनगणना के आंकड़े व अन्य जानकारी किसी भी सरकारी – गैरसरकारी संस्था या व्यक्ति को देना केंद्र सरकार को बंधनकारक नहीं होगा।* केवल इसी प्रावधान के कारण जाति आधारित जनगणना होकर भी ओबीसी वर्ग की जनसंख्या अधिकृत रूप से कागज पर तो आई लेकिन ओबीसी जनता के हाथ में नहीं आई। इसी प्रावधान के आधार पर केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार को ओबीसी डेटा लेने से इन्कार कर दिया। सुप्रिम कोर्ट के भी हाथ इस कानून ने बांध रखे हैं।

संसद में कानून मंजूर होते समय ही ओबीसी सांसदों को जागृत रहकर यह प्रावधान हटाने के लिए सरकार को बाध्य करना चाहिए था। यदि ऐसा हुआ होता तो आज संपूर्ण देश की ओबीसी जनता का आंकड़ा हमारे हाथ में होता। किंतु सिर्फ आश्वासन पर जीने वाले ओबीसी समाज को बारंबार फंसाना आसान हो गया है, *जीवन – मरण की लड़ाई लड़कर जीत मिलने के बाद भी पराभूत जीवन जीने को मजबूर यह ओबीसी समाज राजनैतिक नेताओं की गलतियों के कारण बारंबार फंसते रहता है।* परंतु इन गलतियों से सीख लेकर लड़ाई की योग्य दिशा तय कर रहे तेजस्वी यादव जैसा नया युवा – तेजतर्रार नेतृत्व आगे आ रहा है , इसका हमें अभिमान है।

2011 में जिन्होंने ओबीसी जनगणना के लिए लड़ाई लड़ी उन सभी नेताओं को खत्म कर डालने में ब्राह्मणी सत्ताधारियों को  कामयाबी भले मिल गई हो लेकिन तेजस्वी का तेज शत्रुओं को दिन में तारे दिखाने वाला साबित हो रहा है। ओबीसी जनगणना की लड़ाई तेजस्वी ने जिस पद्धति से लड़ी उसमें एक तीर से दो शिकार किया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ओबीसी जनगणना कराने का प्रस्ताव विधानसभा में मंजूर करने  को बाध्य किया जिसके कारण जदयू और सहसत्ताधारी भाजपा में फूट पड़ने से भाजपा सत्तावंचित एवं राजद सत्ताधारी हुआ।

ओबीसी आरक्षण का मुद्दा हो या ओबीसी की जनगणना का, मूलतः ओबीसी इस देश के सामाजिक – राजनीतिक परिवर्तन की धुरी है यह बिहार में हुए सत्ता परिवर्तन ने एक बार फिर सिद्ध किया है । मंडल आयोग के सवाल पर दो केन्द्र सरकारें व अनेक राज्य सरकारों को गिराने में ब्राह्मणी सत्ताधारियों को सफलता मिल चुकी है। ओबीसी जनगणना के प्रश्न पर देवगोड़ा की केंद्र सरकार गिरा दी गई थी व अनेक ओबीसी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया। ओबीसी का सवाल देश के मुख्य एजेंडे पर न आए इसलिए ओबीसी सरकारें व ओबीसी नेता नष्ट कर दिए गए। *किंतु ओबीसी के सवाल पर ब्राह्मणी भाजपा की भी सरकार गिराई जा सकती है यह बिहार ने सिद्ध किया है। अब कालचक्र उल्टा घूमने लगा है और ब्राह्मणी छावनी को धोबी- पछाड़ देने के लिए ओबीसी समाज तैयार हो चुका है।*

धोबी – पछाड़, सौ सोनार की एक लोहार की यह सबक सिखाने वाली संकल्पना जुझारू ओबीसी समाज से ही जन्म लेती हैं यह कोई संयोग नहीं है। बिहार के इस सफल लड़ाई से बहुत सारे सामाजिक एवं राजनीतिक रास्ते खुलने वाले हैं,

उसका ब्यौरा कल के उत्तरार्ध में पढ़ें! तब तक के लिए जय ज्योति, जय भीम! सत्य की जय हो!!!

*(उत्तरार्ध)*

देश की जाति आधारित जनगणना जो ‘एस ई सी सी -2011’ कानून के अनुसार हो चुकी है उसमें से ओबीसी का आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया जा रहा है। *इस जनगणना के अनुसार हिन्दू, मुस्लिम, क्रिश्चियन, एससी, एसटी इन सभी समाज घटकों की जनसंख्या व अन्य आंकड़े सार्वजनिक किए जा चुके हैं किन्तु सिर्फ ओबीसी की जनसंख्या व अन्य आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए जा रहे हैं।*

इसके क्या कारण हो सकते हैं? इस जनगणना के चार्ट में ओबीसी का कालम नहीं था, किन्तु फिर भी ओबीसी जातियों की गिनती जाति के कालम में हुई है उन्हें इकट्ठा करके ओबीसी की जनसंख्या व अन्य आंकड़े निकाले जा सकते हैं संभवतः निकाले भी जा चुके हों परन्तु फिर भी ओबीसी लोकसंख्या के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए जा रहे हैं इसके कारणों की मीमांसा होनी ही चाहिए।

     इससे पहली बात तो यह सिद्ध होती है कि हिन्दू, मुस्लिम क्रिश्चियन एससी एसटी आदि समाज घटकों से सत्ताधारी ब्राह्मणी छावनी को कोई खतरा नहीं है, इसलिए सत्ताधारियों ने इन समाज घटकों के आंकड़े बेहिचक सार्वजनिक कर दिए। *सत्ताधारी ब्राह्मणी छावनी को खतरा सिर्फ ओबीसी समाज घटक से ही है इसलिए वे ओबीसी का कोई भी आंकड़ा बाहर नहीं आने देते।*

ओबीसी के आंकड़े बाहर आने से ओबीसी आंदोलन ज्यादा गतिमान करने के लिए संदर्भ एवं सबूत मिल जायेंगे। तुलनात्मक आंकड़ों की दृष्टि से अन्य समाज घटकों की अपेक्षा ओबीसी की कितनी प्रगति हुई है या कितने पिछड़ गए हैं इसका लेखा जोखा लोगों को बताया जा सकेगा। ब्राह्मण+बनिया+क्षत्रिय जातियों की बेहिसाब प्रगति से तुलना करने से ओबीसी की लड़ाई को मजबूती मिलेगी।

इसका अर्थ ओबीसी छोड़कर अन्य समाज घटक लड़ाकू नहीं हैं ऐसा नहीं होता। हिन्दू, मुस्लिम, क्रिश्चियन, बौद्ध, एससी एसटी ये सभी समाज घटक भी प्रस्थापित ब्राह्मणी छावनी के विरोध में लड़ते रहते हैं। परंतु इन समाज घटकों की लड़ाई और ओबीसी की लड़ाई में संख्यात्मक और गुणात्मक अंतर है। ओबीसी की लोकसंख्या 52% है यह महत्वपूर्ण तो है ही परन्तु ओबीसी की लड़ाई जब सांस्कृतिक मोड़ लेती है तो वह ब्राह्मणी छावनी को जड़ से ही उखाड़ कर फेंक देती है। यह तमिलनाडु राज्य के ओबीसी वर्ग ने सिद्ध किया है। सामाजिक, राजनीतिक व वर्गीय मुद्दों पर लड़ते लड़ते सांस्कृतिक मुद्दों पर आकर लड़ने का सबसे ज्यादा पोटेंशियल ओबीसी समाज घटक में ही है। *जबतक ब्राह्मणी सत्ताधारियों की जड़ें सांस्कृतिक दृष्टि से मजबूत हैं तबतक उसे उखाड़ फेंकना संभव नहीं है और उसके विरोध में सांस्कृतिक लड़ाई खड़ी करने की ताकत सिर्फ ओबीसी में है। इस बात पर जब तक ध्यान नहीं दिया जायेगा तबतक वामपंथी या पुरोगामी आंदोलनों का एक कदम भी आगे बढ़ पाना संभव नहीं है।*

     सरकार को जब आंकड़ा सार्वजनिक ही नहीं करना था तो फिर ‘एस.ई.सी.सी.-2011’ कानून बना करके सामाजिक, आर्थिक जाति आधारित जनगणना करने की जरूरत ही क्या थी। ऐसा प्रश्न खड़ा होता है। *जनगणना की संकल्पना लोककल्याण कारी राज्य से जुड़ी है। लोगों का कल्याण करना है तो लोगों का संख्यात्मक एवं गुणात्मक डेटा शासन के पास रहना जरूरी होता है।* इन संख्यात्मक एवं गुणात्मक जानकारी के आधार पर ही जनकल्याण के कार्यक्रम एवं उपाय योजना बनाई जाती है। लोककल्याणकारी राज्य में विषमता कम करके जनता में विग्रह कम करने का प्रयास होता है। सबसे ज्यादा शोषित पीड़ित वर्ग यह क्रांति की ओर प्रवृत्त होते रहता है। इसलिए उनके अंदर पनप रहे असंतोष को कम करने के लिए सामाजिक आर्थिक राजनीतिक विषमता को कम करके संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया जाता है।

संक्षेप में कहें तो वर्गीय समाज में वर्गीय संतुलन साध कर ही उच्च वर्गीयों की सत्ता को अबाधित रखने का प्रयास किया जाता है। उसके लिए लोककल्याणकारी योजनाएं बनाई एवं अमल में लाई जाती हैं और इसी काम के लिए जनगणना की जाती है। यह हुआ वर्गीय समाज के बारे में विश्लेषण! जातीय समाज का क्या?

जातीय समाज में इसका ठीक उल्टा होता है क्योंकि वर्ग यह जाति का उल्टा होता है। *जातिव्यवस्था नष्ट करने के लिए जाति आधारित जनगणना करना आवश्यक होने का सूत्रवाक्य तात्यासाहेब महात्मा जोतीराव फुले ने दिया व ब्रिटिश शासक ये वर्गीय समाज से आने के कारण उन्होंने महात्मा जोतीराव फुले की सलाह पर त्वरित अमल किया।* परंतु भारत की सत्ता जब 15 अगस्त 1947 से वर्गवादी अंग्रेजों से जातिवादी ब्राह्मणी छावनी के हाथ में आई तब उन्होंने ताबड़तोड़ जाति आधारित जनगणना बंद करने का काम किया। भारत जाति व्यवस्था प्रधान देश होने के कारण जाति व्यवस्था को लागू करने के लिए, उसे टिकाए रखने के लिए व मजबूत करने के लिए किसी भी प्रकार के संख्यात्मक व गुणात्मक डेटा की जरूरत नहीं होती। वह अप्राकृतिक जातीय ध्रुवीकरण के द्वारा ही साध्य किया जा सकता है। यह मुद्दा समझने के लिए एक उदाहरण देता हूं –

उदाहरणार्थ गांव की जातीय ध्रुवीकरण अप्राकृतिक रूप से होने के कारण जाति व्यवस्था का क्रियान्वयन आसान हुआ। कौन से समाज घटक का कितना विकास करना है और किस समाज घटक को विकास से वंचित रखना है यह तय करने के लिए जाति के उतार के क्रम में उस जाति का स्थान क्या है इस पर तय होते रहता है। *जाति आधारित बस्तियां निर्माण करके गांव का अनैसर्गिक ध्रुवीकरण संभव होता रहा है। गांव में नल द्वारा पानी सप्लाई करने की योजना अमल में लानी है तो वह कहां करनी है,कितनी गंभीरता से करनी है यह जातिवार बस्तियों के आधार पर आसानी से तय किया जा सकता है। उसके लिए जनगणना के संख्यात्मक एवं गुणात्मक आंकड़ों की कभी भी जरूरत महसूस नहीं होती।* इसीलिए बाबा साहेब अंबेडकर ने विकास का अंतिम घटक गांव को न तय करते हुए व्यक्ति को तय किया।

जाति व्यवस्था के माध्यम से अनैसर्गिक ध्रुवीकरण व्यक्ति तक करके रखा है। किस जाति के लोगों को क्या खाना है? कौन से कपड़े पहनना है?किसको शिक्षण प्राप्त करना है? क्या व्यवसाय करना है, कौन सी बस्ती में रहना है? क्या नाम और उपनाम होने चाहिए? ऐसे अनेक कृत्रिम ध्रुवीकरण करके रखने के कारण उनकी संपूर्ण स्थिति जानने के लिए कभी जनगणना की जरूरत नहीं महसूस होती। एकाध व्यक्ति सामने आते ही उस व्यक्ति की जाति कपड़े से,नाम से, भाषा से और बस्ती से मालूम पड़ता ही है उसकी जाति मालूम पड़ते ही उससे कैसे बोलना है? उसके साथ कैसा व्यवहार करना है? उसके काम को आसान करना है या कठिन? यह सब तय करने के लिए किसी शासकीय डेटा की जरूरत नहीं पड़ती, जाति मालूम पड़ने मात्र से ही काम चल जाता है।

इतनी सारी विवेचना होने के बाद भी यह सवाल बाकी ही रहता है कि-  ‘एस.ई. सी.सी. – 2011’ की सामाजिक – आर्थिक जाति आधारित जनगणना क्यों की गई? पहला कारण तो मैंने इस लेख के पूर्वार्ध में ही बताया था कि ओबीसी आंदोलन के दबाव में आकर सिर्फ समय निकालने के लिए उन्होंने यह जाति आधारित जनगणना की। उसी प्रकार एक और महत्वपूर्ण कारण है।

संविधान के एससी एसटी व ओबीसी की कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन कुछ हद तक स्वतंत्रता के बाद के 65 वर्षों में हुआ है। मुख्यत: मंडल आयोग के लागू होने के बाद से ओबीसी वर्ग  सामाजिक व राजनैतिक रूप से जागृत हुआ है। जिसके कारण जाति व्यवस्था कुछ हद तक कमजोर हुई और इन जातियों में से अनेक लोग उच्च पदों तक पहुंचे। *जातिव्यवस्था फिर से मजबूत करनी है तो प्रत्येक जाति का सामाजिक आर्थिक स्तर कितना ऊंचा हुआ है यह जानने के लिए प्रत्येक जाति का डेटा मिलना आवश्यक है, यह डेटा जाति आधारित जनगणना से ही मिलता है।* किस समाज घटक का आरक्षण कम करना है? कितना कम करना है अथवा पूर्ण रूप से बंद कर देना है यह तय करने के लिए सत्ताधारियों को जाति आधारित जनगणना उपयोगी साबित हो रही है। किस समाज घटक का कौन सा व्यक्ति शासन प्रशासन में मौके की जगह पर जाकर बैठ गया है?उसे वहां से कैसे निकालना है इत्यादि निर्णय लेने के लिए जाति आधारित जनगणना उपयोगी साबित हो रही है।

*संविधान के जातीय संतुलन के लिए की गई उपाय योजनाओं को खत्म करके जाति व्यवस्था फिर से मजबूत करने के लिए सत्ताधारी इस ‘एस. ई.सी.सी.- 2011’ की जाति आधारित जनगणना का इस्तेमाल कर रहे हैं।* 52% ओबीसी में फूट डालने के लिए एवं उनके आरक्षण को निष्प्रभावी बनाने के लिए ओबीसी प्रवर्ग के चार टुकड़े करने का निर्णय केंद्र सरकार ने लिया है। उसके लिए  रोहिणी आयोग केंद्र सरकार ने नियुक्त किया है। इस आयोग को ओबीसी के चार टुकड़े करना आसान हो इसके लिए एस.ई.सी.सी.-2011 की जाति आधारित जनगणना के आंकड़े उपलब्ध करने की सुविधा दी हुई है।

ओबीसी जाति आधारित जनगणना का डेटा जिस प्रकार हम क्रांति के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं उसी प्रकार सत्ताधारी यह डेटा प्रतिक्रांति के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, यह ध्यान में रखते हुए बिहार सरकार को जाति आधारित जनगणना करनी ही चाहिए! इस संबंध में और कुछ मुद्दों पर हम अगले लेख में चर्चा करेंगे!

तब तक के लिए जय ज्योति,जय भीम! सत्य की जय हो!

*लेखक – प्रोफे. श्रावण देवरे*

मोबाईल- 8830127270

मराठी से हिंदी अनुवाद

चन्द्र भान पाल

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