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आफत का बजट: इससे व्यक्ति, परिवार और पूरे वर्ग की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं

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बादल सरोज,

एक फरवरी को संसद में पेश किया गया बजट, भारत के इतिहास का संभवतः पहला ऐसा बजट है जिसमें ठीक चुनाव के पहले लाये जाने के बावजूद जनता के किसी भी हिस्से को किसी भी तरह की राहत नहीं दी गयी, बल्कि इससे उलट ऐसे कई प्रस्ताव किये गए हैं जिनसे व्यक्ति, परिवार और पूरे वर्ग की जिन्दगी की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं।

संसदीय लोकतंत्र में ऐसा जोखिम तब ही उठाया जा सकता है जब शासकों में ज्यादा ही आत्मविश्वास- अति आत्मविश्वास- हो, देश की जनता और उसकी मुश्किलों और उसकी भावनाओं के प्रति घोर अवज्ञा का भाव हो; और उनसे बच निकलने की पूरी आश्वस्ति हो। ऐसा ही है और ऐसा क्यों है इस पर आने से पहले बजट की एक झलक देखना जरूरी है।

इस समय देश में दो पीड़ाएं सबसे ज्यादा मुखर हैं, पहली है बेरोजगारी, ऐसी बेरोजगारी जो भारत ने पिछली आधी सदी में कभी नहीं देखी। नए रोजगार आ नहीं रहे, पहले से चली आ रही नौकरियां खत्म हो रही हैं। इसी का एक रूप अर्ध बेरोजगारी है। तीसरा हिस्सा वह है जिन्हें कथित रूप से रोजगार मिला है, किन्तु वे अत्यंत दयनीय अल्प वेतन और बिना साप्ताहिक अवकाश के 12-12 घंटे काम की त्रासद वर्किंग कंडीशन में काम कर रहे हैं। यह बेरोजगारी से ज्यादा बदतर सजा है।

भारत की जेलों में भी, कम से कम अभी तक तो, 8 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाता। उनकी मजूरी के साथ यदि उनके खाने और “रहने” के खर्च की राशि जोड़ ली जाए तो उनकी दैनिक आय सूरत, अहमदाबाद, भिवंडी और कोयम्बतूर में खट रहे प्रवासी मजदूरों से ज्यादा नहीं तो बराबर तो हो ही जाती है। नए रोजगार सृजित करने और सम्मानजनक न्यूनतम वेतन तथा कार्यदशाओं के बारे में   निर्मला सीतारमण का बजट एक खोखला आश्वासन तक नहीं देता।

ध्यान रहे वे उस सरकार की वित्त मंत्राणी हैं जिसने 10 साल पहले वादा किया था कि हर वर्ष दो करोड़ नए रोजगार दिए जायेंगे, हुआ इसका ठीक विपरीत। कहने की आवश्यकता नहीं कि रोजगार का  मतलब एक व्यक्ति की नौकरी, उसकी पगार पर एक परिवार का जीवनयापन ही नहीं है; उसके श्रम का सार्थक उपयोग करते हुए मनुष्यता को आगे ले जाना, देश को बेहतर बनाना है। राष्ट्र का निर्माण करना है।

दूसरी समस्या है दैनिक इस्तेमाल में आने वाली चीजों की महंगी से महंगी होती कीमतें। मोदी राज की विशेषता यह है कि इसने महंगाई के अब तक के स्वीकृत मांग और पूर्ति के अर्थशास्त्री सिद्धांत को अप्रासंगिक बना दिया है। फसल आने के समय अनाज का सस्ता होना, ज्यादा पैदावार हो जाने से माल की कीमत गिरना अब पूरी तरह बंद हो चुका है क्योंकि अब इस धंधे में भी कॉर्पोरेट्स आ गए हैं जिनके पास लगाने के लिए पैसा और संग्रह करने के लिए भंडारण क्षमता है। यह कमाल का बजट है जो महंगाई की बात ही नहीं करता।

इससे उलट यह देश की सबसे बड़ी जनसंख्या वाली किसान, खेत मजदूर सहित ग्रामीण आबादी पर तो कहर की तरह बरपा है। भारत के किसान की बर्बादी के जो तीन मुख्य कारण हैं उन तीनों को कम करने की बजाय यह बजट उन्हें और बढाता है। फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की मद में कोई नया प्रावधान नहीं किया गया है उलटे उसकी मद में पहले की गयी 30% की कमी को यह बजट और बढाता है।

उसकी दूसरी समस्या कर्ज मुक्ति की है जिस पर बजट न केवल खामोश है बल्कि आने वाले दिनों में ज्यादा बड़ी आशंका वाले संकेत देता है। भारत की खेती किसानी की तीसरी आफत लागत का बढना है और यह बजट उस लागत को कम करने की बजाय और बढाने के प्रावधान करता है। जैसे उर्वरक सब्सिडी में 22.3% की कमी की गयी है। पीएम किसान योजना, जिसकी परिधि से अभी भी आधे से ज्यादा किसान बाहर हैं, में कोई वृद्धि नहीं करता।

गांवों की अर्थव्यवस्था, पलायन रोकने और भुखमरी की घटनाओं को थामने में ग्रामीण रोजगार गारंटी क़ानून ने काफी हद तक मदद की थी। पिछले बजट में मनरेगा के फण्ड में एक तिहाई 33% की कटौती कर दी गयी थी, इस बजट में  भी मनरेगा के लिए बजट में वृद्धि, काम के दिन 200 और मजदूरी दर 600 करने का आवंटन नहीं है।

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के छेद बंद करके उसे दोगुना करने की बजाय यह बजट उसमें एक रुपया भी नहीं जोड़ता। ग्रामीण कनेक्टिविटी में ग्राम सड़क योजनाओं ने योगदान दिया है। यह बजट इस मद में पैसा बढाने की बजाय कॉर्पोरेट्स के माल की आवाजाही में मदद देने वाले बड़े बड़े हाईवे बनाने की मद में विराट बढ़ोत्तरी करता है।

इस बजट का गरीब विरोधी चेहरा तब उजागर हो जाता है जब यह गरीब कल्याण अन्न योजना बंद करने और खाद्य सब्सिडी में लगभग एक तिहाई 31.3% की कटौती का प्रावधान जारी रखता है। यह सब तब किया गया है जब मोदी के कार्यकाल में 2014 से 2022 के बीच 1 लाख 474 किसानों ने आत्महत्याएं ही हैं और इसी साल कृषि  मंत्रालय ने 1 लाख 5 हजार 443 करोड़ रूपये बिना खर्च किये राजकोष में वापस लौटा दिए हैं।

बजट में कहा गया है कि फसल कटाई के बाद के कामों; संग्रह, आधुनिक भंडारण, उनके वितरण, उनकी प्रासेसिंग मार्केटिंग और ब्रांडिंग में निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया जाएगा। यह कृषि क्षेत्र को कॉर्पोरेट्स की तश्तरी पर रख कर दे देना है। सार्वजनिक क्षेत्र, सहकारिताओं और लघु औद्योगिक इकाइयों की बजाय इन कामों में कॉर्पोरेट्स को छूट देना, अब तक की नीतियों का बदलाव है और इस तरह तीन कृषि कानूनी की पिछले दरवाजे से वापसी है।

भारत कर्ज के बोझ में डूबा है; 2014-15 में कुल कर्ज का बोझ 56 लाख करोड़ था। 22-23 में यह 161 लाख करोड़ हो गया। अभी दो सप्ताह भी नहीं हुए जब आईएमएफ ने चेतावनी दी है कि भारत जीडीपी के 100 प्रतिशत कर्ज की खतरनाक स्थिति की तरफ बढ़ रहा है- यह 10 वर्षों में अर्थव्यवस्था के कुप्रबंध का उदाहरण है।

इस कुप्रबंध की असली वजह पर जाने की बजाय गरीबो की थाली और खाली करने के रास्ते तलाशे जा रहे हैं। जबकि पैसा वहां से जुटाना चाहिए था जहां वह इफरात में है; रिच और सुपर रिच पर टैक्स बढ़ने चाहिए थे, मगर मोदी सरकार ने यह टैक्स 30% से घटाकर घरेलू कंपनियों के लिए 22 और कुछ नई मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों केलिए 15% कर दिया है।

खतरनाक शब्द है; “विदेशी पार्टनर्स से निवेश समझौते” यह पहली बार है कि पार्टनर बनाकर संप्रभुता को दांव पर लगाया जा रहा है। इनके अलावा यह बजट कुछ बेहद खतरनाक प्रावधान करता है। जैसे बैंकिंग अधिग्रहण, बैंकिंग रेगुलेशन यहां तक कि रिज़र्व बैंक में भी प्रशासन सुधार के नाम पर ऐसे नए कानू लाने की बात की गयी हैं जिनसे “निवेशको का विश्वास जीता जा सके” जाहिर है यह बैंकों की सेल लगाने की योजना है।

ज्यादा विस्तार में न जाते हुए सारतः यह कि इस बजट में राहत की बजाय आफत हैं, विकास की  संभावना की जगह विनाश की आशंकाएं हैं, भारत के लिए नाउम्मीदें हैं, उम्मीद सिर्फ उन अंगुलियों पर गिने जाने लायक चहेतों के लिए है जो पूंजीवाद के समीकरणों को भी लांघते हुए अपनी दौलत रिकॉर्ड तोड़ रफ़्तार से बढाते जा रहे हैं।

चुनाव जब कुछ सप्ताह दूर है तब भी इस तरह के बजट को लाने की हिम्मत कहां से आती है? एक तो उन्हें, जिनकी वे प्राणपण से सेवा कर रहे हैं उन, कॉर्पोरेट्स के कब्जे वाले मीडिया पर पूरा विश्वास है कि वह ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ के वृन्दगान के शोर में इस बजट की असलियत सामने आने ही नहीं देगा; सूखे को हरियाला सावन, पतझर को बसंत और अकाल मौत को त्वरित मोक्ष साबित कर देगा।

जो इसके झांसे में नहीं आये उन -खासकर मिडिल क्लास- को घंटे घंटरियां बजाने और भंडारे की नुकती की लाइन में लगा दिया जाएगा। इसके बाद भी भारतवासी अगर अपनी पर आ ही गए तो पटना बीजक, मुम्बई मैप, चंडीगढ़ जंत्री तो है ही। जो इसके बाद भी नहीं मानेंगे उन्हें सोरेन बना दिया जाएगा।

ठीक यही वजह है कि ये लम्हा फ़िक्र का लम्हा है हर हिन्दुस्तानी के लिए और फ़िक्र से बाहर आना है तो सबसे पहले घर से बाहर सड़क पर आना होता है। देश के मेहनतकश 16 फरवरी को सड़क पर आकर इसे अमल में लाकर दिखाने वाले हैं।

(बादल सरोज, लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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