मध्यप्रदेश में बेरोजगारों को दिया गया आकांक्षी युवा नाम
संजीव शुक्ल
अभी एक और नाम चर्चा में आया है, वह है आकांक्षी युवा। मध्यप्रदेश में यह नाम बेरोजगारों को दिया गया है। क्या इससे बेरोजगारी खत्म हो जाएगी? जाहिर है यह फर्जी नामकरण बेरोजगारी की समस्या से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए किया गया है। मिथ्या आत्मगौरव का प्रतीक है यह नाम। यह बेरोजगारों के लिए क्रूर मजाक सा है। इस तरह के नाम देकर उसी जनता के साथ मजाक किया जाता है, जिनके दम से सत्ता मिलती है। हार का नाम जीत रख देने से विजय नहीं हो जाती।क्या आपको वोट विकास करने और बेरोजगारी दूर करने के लिए दिया गया था या बेरोजगारी का नाम बदलने के लिए। स्वर्ण मृग के नाम पर बार-बार छलने का प्रपंच कारगर नहीं होगा। इसलिए नाम की नहीं काम की राजनीति करिए।
इधर दशकों से शातिर राजनीतिक नेतृत्व द्वारा नामों और प्रतीकों की राजनीति जिस अंदाज में की जा रही है, वह चिताएं बढ़ाने वाली हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इसे राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। कुंठित, दिग्भ्रमित और स्वर्णिम अतीत के मोह से ग्रस्त समाज में नामों और प्रतीकों की राजनीति की प्रभावी भूमिका रहती है।शातिर नेतृत्व इनकी उपयोगिता बख़ूबी समझता है। नामों की राजनीति कभी ध्रुवीकरण में मदद करती है, तो कभी मुद्दों से भटकाने के काम आती है।
जब कोई नाम किसी विशेष धारा, चिंतन या अतीत के गौरव/घृणा का प्रतीक बन जाए, तो उनके आधार पर की जाने वाली राजनीति के मूल में उससे उपजी रागात्मक चेतना या प्रतिक्रिया को अपने पक्ष में करने का भाव रहता है। तमाम शहरों के नाम इसी योजना के चलते बदले गए। सो नामों के जरिए लोगों की भावनाओं से खेला जा रहा है।
इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करके एक जबरदस्ती कटुता पैदा करने की कोशिश की गई। क्या जनता की तरफ से इलाहाबाद नाम बदलने की मांग आई? नहीं न! लेकिन फिर भी ऐसा करके सांप्रदायिक पुट देने की कोशिश की गई, ताकि समाज को ध्रुवीकृत किया जा सके। कुछ लोगों के लिए सांप्रदायिकता फेविकोल सा है, ऐसा फेविकोल जो वोटबैंक को बांधे रखता है, कभी इधर-उधर नहीं होने देता। कुछ लोग इस मामले में सबसे अव्वल हैं।
कुछ लोगों में कुछ अलग तरह से बात कह ले जाने की आत्ममुग्धता इतनी अधिक होती है कि वे अपने भाषण में नए-नए शब्द ईजाद करते हैं। यह प्रवृत्ति कभी-कभी कुछ नया कर लोगों को चौंकाने की सनक के रूप में भी दिखती है। ऐसे लोग नए जुमले गढ़ते हैं। उनको लगता है कि अबसे पहले कोई भी इतना क्रिएटिव नहीं था, जितना वो हैं। देखादेखी और लोग भी ऐसे ही कुछ प्रयोग करने लगते हैं।
अब देखिए न! हमारे वाले A I की व्याख्या करते हुए कभी अमेरिका-इंडिया बताते हैं, तो कभी हंसते हुए बताते हैं कि जब हमारे यहां बच्चा पैदा होता है, तो वह सबसे पहले आई (मां) ही कहता है।
यह जुमलों में प्रयोगों का दौर है।
अमृतकाल में नाम देने की इच्छा इतनी बलवती रहती है कि योजना के क्रियान्वयन से ज्यादा उसके नाम रखने पर फोकस रहता है। हर चीज को इवेंट बना देने की नीयत में नाम का बड़ा रोल है।
इस नाम देने की वृत्ति ने कई बार जुगुप्सा भी पैदा की। कई बार लगता है कि नाम देकर परिस्थिति/त्रासदी का मजाक उड़ाया जा रहा है।
ऐसा ही एक नाम था, दिव्यांग। यह विकलांगों को दिया गया नया नाम था। क्या यह नाम देने के पहले उचित विमर्श हुआ था? क्या यह विकलांगों का मजाक उड़ाना नहीं हुआ। उपहास सा लगता है यह नाम। दिव्यांग कह देने भर से उनके हालातों में तो कोई अंतर आने से रहा। फिर इसका औचित्य? किसी की अपंगता का कोई मजाक न उड़ाए यह भावना तो अच्छी है, लेकिन ऐसा नाम दिया जाना भी ठीक नहीं कि उन्हें लगे कि अतिरिक्त दैवी सम्मान देकर उन्हें समाज से हटकर देखा जा रहा है। वे समानता चाहते हैं, अपना दैवीकरण नहीं।
इसके लिए समाज में नैतिक शिक्षा दी जाए कि कोई विकलांगों को गलत नामों से न बुलाए। दिव्यांग नाम रखने से क्या होगा जबकि उसी पार्टी के मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री यह कहते हैं कि – “हमारे समाज में कटे-फटे लोगों को अच्छा नहीं माना जाता है। अब हम क्या करें, हमारी भी दिक्कत है।” वे आगे कहते हैं- “भगवान की मूर्ति भी अगर खंडित हो जाती हैं तो उसको भी प्रवाहित कर दिया जाता है।”
क्या विकलांगों को प्रवाहित कर दिया जाए? सत्ता का इतना दंभ कि आदमी को आदमी नहीं मानेंगे? यही आपके सामाजिक सरोकार हैं? क्या यह भावना अच्छी है?
पहले आप अपनी पार्टी में कथित दिव्यांगों के प्रति अच्छी राय पैदा करें, उनके प्रति लोगों को संवेदनशील बनाएं, तभी उन्हें वास्तविक सम्मान मिलेगा। अन्यथा ऐसे नाम एक क्रूर मजाक बनकर रह जाएंगे।
नामकरण की इसी शृंखला में सरकार ने देश को एक और दिवस दिया – विभाजन विभीषिका दिवस। क्या अब त्रासदी भी मनाई जाएगी? आखिर इसका औचित्य क्या था? अतीत के घावों को कुरेदकर क्या मिलेगा? स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद आखिर एक त्रासदी को याद करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? इस तरह के नए दिवसों को शुरू करके हम कौन सा संदेश देना चाहते हैं। क्या उड़ीसा कलिंग युद्ध की त्रासदी की याद को ताजा करने के लिए हर साल कोई दिवस मनाता है?
इसी तरह अभी एक और नाम चर्चा में आया है, वह है आकांक्षी युवा। मध्यप्रदेश में यह नाम बेरोजगारों को दिया गया है। क्या इससे बेरोजगारी खत्म हो जाएगी? जाहिर है यह फर्जी नामकरण बेरोजगारी की समस्या से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए किया गया है। मिथ्या आत्मगौरव का प्रतीक है यह नाम। यह बेरोजगारों के लिए क्रूर मजाक सा है। इस तरह के नाम देकर उसी जनता के साथ मजाक किया जाता है, जिनके दम से सत्ता मिलती है। हार का नाम जीत रख देने से विजय नहीं हो जाती।क्या आपको वोट विकास करने और बेरोजगारी दूर करने के लिए दिया गया था या बेरोजगारी का नाम बदलने के लिए। स्वर्ण मृग के नाम पर बार-बार छलने का प्रपंच कारगर नहीं होगा। इसलिए नाम की नहीं काम की राजनीति करिए।
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