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*56 वर्ष की अल्पायु में डाॅ लोहिया ने समाजवादी आंदोलन को विशिष्ट पहचान दी*

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   *- डॉ सुनीलम*

     डाॅ. राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को सरयू के तट पर अकबरपुर में हुआ था। पिता हीरालाल अयोध्या के तथा माता चंदा देवी मिथिला की थीं। ढाई बरस की उम्र में ही मां की मृत्यु हो गयी। पिता ने फिर विवाह नहीं किया। पूरा जीवन गांधीजी के साथ मिलकर राष्ट्र को समर्पित कर दिया। 

    डाॅ लोहिया ने विद्यासागर काॅलेज, कलकत्ता में अध्ययन किया था, वहीं पर उनकी मुलाकात गांधीजी, जवाहरलाल जी और सुभाष चंद्र बोस से हुई थी। 1932 में उन्होंने जर्मनी से नमक सत्याग्रह पर शोध प्रबंध जर्मन भाषा में लिखकर डाॅक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी। 17 मई 1934 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हाॅल में आचार्य नरेंद्र देव जी की अध्यक्षता में देश भर के समाजवादियों ने मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। 21-22 अक्टूबर 1934 को बम्बई के बर्लि स्थित ‘रेडिमनी टेरेस’ में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य चुने गए। कांग्रेस सोशलिस्ट सप्ताहिक मुखपत्र के सम्पादक बनाए गए, जिसे उन्होंने 1934 से 1959 तक निकाला। डाॅ लोहिया ने ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के विदेश विभाग की 1936 में स्थापना की थी। 1939 में कलकत्ता में युद्ध विरोधी प्रचार के लिए डाॅ लोहिया पर देशद्रोह का मुकदमा चला। उन्होंने खुद अपनी पैरवी की। 1940 में  भाषण देने पर उन्हें गिरफ्तार किया गया। 1 जुलाई 1940 को भारत सुरक्षा कानून की 38वीं धारा की आड़ में दो वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। 15 सितंबर 1940 को कांग्रेस कमेटी की सभा में गांधीजी ने कहा जब तक डाॅ राममनोहर लोहिया और जय प्रकाश जेल में हैं, तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता। उनसे अधिक शूर और सभ्य आदमी मुझे नहीं मालूम। उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया है बल्कि रामगढ़ प्रस्ताव का पालन किया। 4 दिसंबर को नेहरू, आचार्य नरेंद्रदेव, अच्युत पटवर्धन एवं डॉ लोहिया को अन्य नेताओं के साथ रिहा कर दिया गया। 8 अगस्त 1942 की रात को मुंबई में कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित हुआ। भारत छोड़ो संकल्प को निर्णायक परिणिति तक पहुंचाने के लिए समाजवादियों ने भूमिगत आंदोलन चलाने का निर्णय लिया। उन्होंने जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, ऊषा मेहता  तथा अरूणा आसफ़ अली जैसे हजारों क्रांतिकारियों के साथ मिलकर 18 महीनों तक आंदोलन का नेतृत्व किया। 20 मई 1944 में उन्हें गिरफ्तार कर लाहौर ले जाया गया, जहां उन्हें तीन महीने लगातार प्रताड़ित किया गया। कभी बर्फ पर लिटा कर, कभी हथकड़ियों और बेड़ियों में रखकर अंग्रेजों द्वारा प्रताड़ित किया गया। जब यह तय हुआ कि देश स्वतंत्र होगा, तथा कांग्रेस को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाएगा, तब सभी कांग्रेसियों को छोड़ दिया गया, लेकिन जेपी और लोहिया को गांधीजी के हस्तक्षेप के बाद ही अंग्रेजों ने 11 अप्रैल 1946 को आगरा जेल से छोड़ा। 

जब वे जेल में थे तभी अक्टूबर 1945 में उनके पिता की मृत्यु हो गयी लेकिन उन्होंने अंतिम संस्कार के लिए पेरोल पर रिहा होकर जाने से इंकार कर दिया। डाॅ लोहिया रिहा होकर स्वास्थ्य लाभ हेतु गोवा चले गये। लेकिन जब गोवा के नागरिकों ने उनसे पुर्तगाल की गुलामी से आजाद कराने की गुहार लगायी, तब उन्होंने 19 जून 1946 को गोवा मुक्ति आंदोलन शुरू कर दिया। इसलिए गोवा के आजाद होने पर उन्हें गोवा का महानायक माना गया। आज भी डॉ लोहिया को लेकर पूरे गोवा में समारोह आयोजित किए जाते हैं।

   26 से 28 फरवरी 1947 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का अधिवेशन कानपुर में डाॅ लोहिया की अध्यक्षता में हुआ। इसी अधिवेशन में कांग्रेस शब्द हटा दिया गया। पार्टी का नाम सोशलिस्ट पार्टी कर दिया गया। 

सोशलिस्टों को यह फैसला दक्षिणपंथी कांग्रेसजनों के पार्टी के भीतर दबाव बनाए जाने के कारण करना पड़ा।

     डाॅ लोहिया ने गांधी जी के साथ भारत के विभाजन का विरोध किया, लेकिन दक्षिणपंथी  कांग्रेसियों के दबाव में कांग्रेस कार्यसमिति में विभाजन को औपचारिक स्वीकृति प्रदान दी गई। गांधी जी के चलते सोशलिस्ट पार्टी की तटस्थ भूमिका रही। इस कारण वे आजीवन स्वयं को भी विभाजन का अपराधी मानते रहे। वे कहते थे कि सामूहिक रूप से नहीं तो व्यक्तिगत रूप से विभाजन के प्रति उनका विरोध अधूरा रहा। अगर वे कुछ और नहीं कर सकते थे तो देश के बंटवारे के खिलाफ उन्हें जेल चले जाना चाहिए था। विभाजन की चर्चा के दौरान जब देश में सांप्रदायिक दंगे होने लगे तब गांधीजी के साथ कलकत्ते से लेकर दिल्ली तक वे गांधीजी के साथ रहे। दिल्ली में शरणार्थियों को बसाने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

      गांधीजी की हत्या के 4 दिन पहले 29 जनवरी 1948 को लोहिया जी ने गांधीजी से मुलाकात की, तथा उनसे बंबई हड़ताल के बारे में बोलने के लिए कहा। गांधीजी ने कहा कि हड़ताल केे बारे में तो मैं बोलूंगा ही, लेकिन यह प्रश्न इतने महत्व का नहीं। महत्व का यह है कि आखिर में तुम्हारी पार्टी और कांग्रेस के बारे में कुछ निश्चित करना चाहिए। कल तुम जरूर आना। कल पेट भर के बात होगी। 30 जनवरी की शाम को लोहिया गांधीजी से पेट भर बातें करने के लिए बिरला भवन की ओर निकले। रास्ते में उन्हें गांधीजी की जघन्य हत्या की खबर मिली। उन्हें लगा कि वे  अनाथ हो गये। इस पर लोहिया जी ने एक बार कहा था कि ईश्वर और स्त्री दो प्राप्तव्य होते हैं। मैं ईश्वर को नहीं मानता, और स्त्री मुझे मिली नहीं। लेकिन गांधीजी में उन्होंने दोनों की झलक देखी।

     मार्च 1948 में नासिक में हुये सम्मेलन में सोशलिस्ट पार्टी ने कांग्रेस से निकलने का फैसला किया। एक वर्ष बाद 1949 में पार्टी का दूसरा सम्मेलन हुआ, जिसमें केडर बेस पार्टी को मास पार्टी बनाने का प्रस्ताव पारित किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने कहा कि पार्टी को अकर्मण्यता, ब्राह्य आडंबर, चुनाववाद, विद्रोहवाद और दलबंदी के 5 शत्रु  सता रहे हैं। इन दुश्मनों को जीतने के लिए रचनात्मकता, ठोसपन, रचना, संघर्ष और हमदर्दी के गुण विकसित करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि समाजवाद की बुनियाद समता, छोटी मशीनों, सामाजिक मिल्कियत, चौखंभा राज्य और विश्व सरकार में है। 

      1952 के आम चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त हार का सामना करना पड़ा। चुनावी हार से उत्पन्न अवसाद और निराशा के वातावरण में डाॅ लोहिया ने पचमढ़ी सम्मेलन की अध्यक्षा करते हुए ऐतिहासक भाषण दिया तथा पूंजीवाद और साम्यवाद से समान दूरी की बहु-चर्चित नीति का प्रतिपादन किया। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि 1934 में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी पर मार्क्सवाद की गहरी छाप थी, लेकिन पचमढ़ी में डाॅ लोहिया ने समाजवादी विचार को एक नयी पहचान दी। उन्होंने हिंसा की भर्त्सना की तथा जेल, वोट, फावड़ा  तीनों को आत्मसात करने की जरूरत बतलाई।

     26 सितंबर 1952 को किसान मजदूर प्रजा पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ तथा प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बनी। 12 अगस्त 1954 को प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री डॉ लोहिया जी ने अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री द्वारा गोलीकाण्ड के चलते इस्तीफा मांगा, जिसके चलते उन्हें अंततः पार्टी से अलग होना पड़ा ।

1 जनवरी 1956 को उन्होंने हैदराबाद में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। 1962 में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से लोकसभा चुना लड़ा, लेकिन पराजित हुए। 1963 के उपचुनाव में फूलपुर से जीत कर वे लोकसभा सदस्य बने। उन्होंने चीन की हार को चुनाव का मुद्दा बनाया था और कांग्रेस सरकार को राष्ट्रीय कलंकी सरकार बताया था। 21 अगस्त 1963 को आचार्य कृपलानी द्वारा रखे गये अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के दौरान डाॅ लोहिया ने तीन आने बनाम पंद्रह आने की  बहस छेड़ी। उन्होंने कहा कि 27 करोड़ आदमी तीन आने पर जिंदगी निर्वाह करते हैं, खेत मजदूर 12 आने कमाता है, अध्यापक दो रुपये रोज कमाता है जबकि प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपया रोज खर्च होता है। 1956 से डाॅ लोहिया ने ‘मेनकाइंड’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। 28 सितंबर 1967 को डाॅ लोहिया को प्रोस्टेट ग्लाइंड की शल्य चिकित्सा के लिए भर्ती किया गया, जहां 12 अक्टूबर 1967 की रात हृदयाघात के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। 

       डाॅ राममनोहर लोहिया ने कहा कि समाजवाद की दो शब्दों में परिभाषा देनी हो तो वे हैं समता और सम्पन्नता। इन दो शब्दों में समाजवाद का पूरा मतलब निहित है। समता और सम्पन्नता जुड़वां हैं। उन्होंने समता हासिल करने के लिए 11 सूत्रीय कार्यक्रम देते हुए लिखा कि इनमें से हर मुद्दे में बारूद भरा हुआ है। किसी में कम किसी में ज्यादा। किसी भी एक मुद्दे को अपना लेने से बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। 11 सूत्रीय कार्यक्रमों में उन्होंने कहा कि सभी प्राथमिक शिक्षा, समान स्तर और ढंग की हो तथा स्कूल खर्च और अध्यापकों की तनख्वाह एक जैसी हो। प्राथमिक शिक्षा के सभी विशेष स्कूल बंद किये जायें। अलाभकर जोतों से लगान अथवा मालगुजारी खत्म हो। संभव है कि इसका नतीजा हो सभी जमीन का अथवा लगान का खात्मा और खेतिहर आयकर की शुरूआत। 5 या 7 वर्ष की ऐसी योजना बने, जिसमें सभी खेतों को सिंचाई का पानी मिले। चाहे वह पानी मुफ्त अथवा किसी ऐसे दर पर या कर्ज पर कि जिससे हर किसान अपने खेत के लिए पानी ले सकें। अंग्रेजी भाषा का माध्यम सार्वजनिक जीवन के हर अंग से हटे। हजार रुपए महीने से ज्यादा का खर्चा कोई व्यक्ति न कर सकें। अगले बीस वर्ष के लिए रेलगाड़ियों में मुसाफिरी के लिए एक ही दर्जा हो। अगले 20 वर्षों के लिए मोटर कारखानों की कुल क्षमता बस, मशीन, हल और टैक्सी बनाने के लिए इस्तेमाल हो। कोई निजी इस्तेमाल की गाड़ी न बने। एक ही फसल के अनाज के दाम का उतार-चढ़ाव 20 प्रतिशत के अंदर हो। और जरूरी इस्तेमाल की उद्योगी चीजों के बिक्री के दाम लागत खर्च के डेढ़ गुना से ज्यादा न हों। पिछड़े समूहों यानी आदिवासी, हरिजन, औरतें, हिंदू तथा अहिंदुओं की पिछड़ी जातियों को 60 प्रतिशत का विशेष अवसर मिले। जाहिर है कि यह विशेष अवसर ऐसे धंधों पर लागू नहीं होता जिसमें खास हुनर की आवश्यकता है। जैसे चीर-फाड़, किंतु थानेदारी और विधायकी ऐसे धंधों में नहीं गिने जा सकते। 2 मकानों से ज्यादा मकानी मिल्कियत का राष्ट्रीयकरण, जमीन का असरदार बंटवारा और उसके दामों पर नियंत्रण। 

समाजवादी आंदोलन के  गत 90 वर्षों में उक्त 11 कार्यक्रमों में से हम एक भी कार्यक्रम को अमली जामा नहीं पहना सकें हैं। इतना ही नहीं उक्त 11 कार्यक्रमों को लागू कराने को लेकर कोई बड़ा आंदोलन भी देश में नहीं हुआ है। कुछ कार्यक्रमों की कल्पना भी आज मुश्किल लगती है। लेकिन यदि हमें समतापूर्ण सम्पन्न समाजवादी समाज की रचना करनी है तो इन कार्यक्रमों को आज के संदर्भ में कैसे लागू किया जाय, इस पर गंभीर चिंतन-मनन करना होगा। 

       डाॅ लोहिया ने 23 जून 1962 में नैनीताल में समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ताओं के बीच एक भाषण दिया था, जो निराशा के कर्तव्य के तौर पर विख्यात हुआ। वे कहते हैं कि मुझको काफी समय से तीन तरह की निराशा है- एक राष्ट्रीय, दूसरी अंतर्राष्ट्रीय और तीसरी मानवीय। राष्ट्रीय वे इतिहास में भोगते हैं। पंद्रह सौ बरस के इतिहास में किसी अंदरूनी जालिम के खिलाफ जनता के विद्रोह का कोई उदाहरण नहीं है। लोहिया कहते हैं, अन्याय के सामने झुकने को देश ने बड़ा सुंदर नाम दिया है। हमारा देश बड़ा समन्वयी है। भूखे हैं, रोगी हैं, आधे मुर्दा हैं, गरीब हैं लेकिन संतुष्ट हैं। वे इसका कारण आर्थिक गैरबराबरी और जातिप्रथा में ढूंढते हैं। 

अंतर्राष्ट्रीय निराशा की बात करते हुए वे मशीन और युद्ध के हथियारों की बात करते हैं। संगीत, कपड़ों, चेहरों, नाचने-गाने, श्रृंगार में एकरूपता लाने के प्रयासों की वे भर्त्सना करते हैं। हथियारों की होड़ को वे अन्याय करने की होड़ मानते हैं। अंतर्राष्ट्रीय जमीदारी और रूस और अमरीका के पास हथियारों की मिल्कियत के साथ साथ दुनिया में लगातार बढ़ रही गैरबराबरी को वे अंतर्राष्ट्रीय निराशा के मुख्य बिंदु के तौर पर चिन्हित करते हैं। तीसरी मानवीय निराशा को वे सत्ता और आदर्शवाद (पैगंबरी) के बीच लगातार चलने वाली तकरार की तरह चिन्हित करते हैं। वे कहते हैं कि अगर केवल सत्ता प्राप्त करना राजनीति का उद्देश्य होता तो वह कब का पूरा हो जाता। लेकिन उसके साथ पैगंबरी भी जुड़ी है। समाज परिवर्तन भी जुड़ा है। वे कहते थे कि दुनिया को मोड़ देने वाले वही व्यक्ति हुये जिनमें राजनीति के मुकाबले पैगंबरी वाला हिस्सा कुछ ज्यादा रहा। ईसा मसीह राजनीति के हिसाब से तो 300 बरस तक असफल रहे,  पैगंबरी वाला हिस्सा मजबूत रहा । शायद मोहम्मद साहब में नेतागीरी और पैगंबरी के हिस्से ठीक ठाक मिले हुए थे। एक तो उनकी पैगंबरी कामयाब हो गयी। दूसरी तरफ नेतागीरी को भी कामयाबी मिली। अपने जीवन काल में दोनों सफलताएं उनको मिल गयीं। महात्मा गांधी के लिए यह कहना बडा मुश्किल है कि उनमें पैगंबरी का हिस्सा उतना ही था जितना राजनीति का। निराशा के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए डाॅ लोहिया ‘अंग्रेजी हटाओ आंदोलन’, ‘जाति तोड़ो आंदोलन’ की बात की। 

   डाॅ लोहिया ने विश्व नागरिक और विश्व सरकार का सपना देखा। डाॅ लोहिया ने केरल में पिल्लै सरकार द्वारा किये गये गोलीचालन का जिस नैतिक दृढ़ता और बहादुरी के साथ विरोध किया तथा अपनी सरकार से इस्तीफा मांगा, ऐसा कोई उदाहरण भारतीय राजनीति में दिखलाई नहीं पड़ता। 

       डाॅ लोहिया कहते थे धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म। धर्म श्रेयस की उपलब्धि का प्रयत्न करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है। यह कथन धर्म और राजनीति को परस्पर पूरक बना देने के साथ-साथ धर्म को रूढ़ियों और अंधविश्वास से मुक्त करने की प्रेरणा देता है और राजनीति को अधिकार, मद और स्वार्थपरता से दूर रहने की दृष्टि देता है। भारत के तीर्थ, भारत की नदियां, हिमालय, भारत की संस्कृति, भारतीय जन की एकता, भारत का इतिहास, वशिष्ठ, वाल्मीकि, रामायण आदि पर लिखे गये लेख उनकी मौलिक रचनाएं हैं। 

    डाॅ लोहिया ने आइंस्टीन से एक बार कहा था कि हमारी शताब्दी में 3 ही व्यक्ति उल्लेखनीय हैं- गांधी, बर्नार्ड शा और आप। बर्नार्ड शा ने एपीलावे शीर्षक से निबंध लिखा, जिसमें सत्यवीर प्रवृत्ति के ऐसे व्यक्तियों की मीमांसा की गयी जिन्हें सत्य का प्रतिपादन करने के कारण कई यातनाएं सहनी पड़ीं और मृत्य दंड भी झेलना पड़ा। उस निबंध में शा ने कहा कि ये सत्यवीर शहीद यदि कलाकार होते तो उनके बारे में लोगों के मन में इतना तीव्र संताप पैदा नहीं हुआ होता। डाॅ लोहिया ने एक बार अमरीका में एक प्रश्न के उत्तर में कहा कि इस देश में डेढ़ आदमी है जिन्होंने मुझे प्रभावित किया। पूर्णरूप से गांधी जी ने, पचास प्रतिशत जवाहर लाल नेहरू ने। लेकिन बाद में उनकी राय बदल गयी। आजादी मिलने के बाद एक बार जब वे उसी जेल में रहे, जिसमें जवाहरलाल जी बंद थे, लौट कर मित्रों ने पूछा कि कारावास कैसा रहा ? तब लोहिया जी ने कहा कि कुछ मत पूछो, मै जिस कोठरी में कैद था, उसी के सामने जवाहर लाल जी की मूर्ति खड़ी थी और हर वक्त मेरी नजर उसी मूर्ति पर पड़ जाती थी। जल्दी रिहाई हो गयी। नहीं तो उस मूर्ति को देखते देखते पागल हो जाता। 

     सत्य का प्रतिपादन जब अहिंसा के अनुशरण द्वारा होता है तब उसे कलात्मकता हासिल होती है। डाॅ लोहिया ने बार-बार कहा- हमें द्वेष मूलक, मत्सर प्रेरित व स्पर्धात्मक क्रांति नहीं चाहिये, बल्कि क्रोध मुक्त, करुणा प्रेरित, प्रतीकात्मक क्रांति की जरूरत है। उन्होंने राम, कृष्ण और शिव को प्रतीक के तौर पर चुना। द्रौपदी के व्यक्तित्व को रेखांकित किया। आचार्य धर्माधिकारी ने कहा कि लोहिया की गणना प्रतिभा व मौलिकता को लेकर मानवेंद्रनाथ राय, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण की पंक्ति में की जा सकती है। 1962 अक्टूबर में चीनी आक्रमण के पूर्व प्रख्यात साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर ने एनार्की नामक व्यंग्य काव्य लिखा, जिसमें एक पंक्ति थी- तब कहो लोहिया महान हैं, एक ही तो वीर यहां सीना रहा तान है। 

     साहित्यकार महादेवी वर्मा ने डाॅ लोहिया पर लिखे एक लेख में एक किस्से का जिक्र किया है। एक रात वे घोंसले से गिरे दो शुक शावकों को सुरक्षित रखने के लिए अपनी मसहरी में उन्हें बिठाकर स्वयं घास में लेटे रहे। जब उनके साथियों ने घोसले में दोनों को वापस रख दिया तब वे खिलखिला उठे। घोड़े को पीटने वाले इक्केवान, पत्नी को पीटने वाले पुरुष, कछुए को काट कर बेचने वाले तथा आदमी को बिठा कर रिक्शा खींचने वालों के लिए उनके मन में जो दर्द था वह किसी और में नहीं देखा। 

इंदुमती केलकर ने अपनी पुस्तक लोहिया में लिखा है कि डाॅ लोहिया 40 से 47 के बीच गांधीजी के अत्यंत निकट हो गये थे। गांधीजी ने लोहिया से कहा था कि तुम बहादुर हो। लेकिन तुम्हारे लोगों में शायद तुमसे भी बहादुर होंगे लेकिन बहादुरी से क्या ? शेर भी बहादुर होते हैं। तुम बुद्धिमान हो, लेकिन वकील भी बुद्धिमान होता है, लेकिन तुम्हारे भीतर एक गुण ऐसा है जिसमें तुम सबसे अच्छे हो। वह है शील और धारावाहिकता ( निरंतरता)

     साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा डाॅ लोहिया के आर्थिक चिंतन के बारे में लिखते हैं कि डाॅ लोहिया के आर्थिक चिंतन में तीन पड़ाव हैं- पहला मार्क्सवाद का, जिसे वह अर्द्ध सत्य वाला चिंतक मानते हैं। दूसरा गांधी का, जिसे वे पूर्ण मानवीय चिंतक मानते हैं, तीसरा समाजवाद का, जिसे वे भारतीय परिपेक्ष में गांधी और उनके विचारों से जोड़कर स्थापित करना चाहते हैं। मार्क्स के वर्ग संघर्ष को वह भारतीय जाति व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में नाकाफी मानते हैं। गांधीजी के जीवन, दर्शन और उनकी आर्थिक नीति को भारतीय संदर्भ में महत्वपूर्ण मानते हैं। किंतु उसमें वह व्यवहारिक मानवीय संदर्भ को व्यापक यथार्थ से जोड़ते हैं। समाजवाद को वह केवल मार्क्स की परिभाषाओं में नहीं बांधते। समाजवाद को प्रत्येक देश के इतिहास में भूगोल में समाज की अनिवार्यताओं के साथ जोड़कर प्रासंगिक बनाते हैं। सैद्धांतिक और शास्त्रीय स्तर पर डाॅ लोहिया जिस अर्थव्यवस्था को व्याख्यातित

करते हैं उसके आधारमूल तत्व हैं- जाति और वर्ग उन्मूलन, विकेंद्रीकरण, राष्ट्रीयकरण, भूमि वितरण, अन्न सेना का गठन, भू सेना का निर्माण, खर्च पर सीमा, आय नीति और मूल्य नीति। इन आधारों पर अपने आर्थिक चिंतन में डाॅ लोहिया व्यक्ति को गांव और छोटी मशीनों को केंद्र में रख कर विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं। उनके संपूर्ण चिंतन का मूल, व्यक्ति गांव कैसे प्रतिभा संपन्न और अर्थ संपन्न बनें, इसी पर आधारित हैं। 

       डाॅ लोहिया का संस्मरण बताते हुए समाजवादी चिंतक सुरेन्द्र मोहन ने लिखा है कि 1949 में जब डाॅ लोहिया मेरे गृह नगर अंबाला आये उन दिनों वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तीव्र आलोचना करते थे। उनके जलसे में स्वयंसेवक लाठियां लेकर हल्ला बोलते थे। हम सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने इससे मुकाबला करने के लिए एक वालंटियर कोर बनाया था। लोहिया के भाषण के बाद स्वयंसेवकों ने लाठियां चलायीं लेकिन जनता ने संघियों को खदेड़ दिया। आम सभा के बाद हमने स्वयंसेवकों से हिसाब किताब किया। यह बात डाॅ साहब को 1 साल बाद मालूम पड़ी, तब हिंसा करने के कारण उन्होंने हमें बहुत डांटा। तभी से नारा चल पड़ा- ‘हिंसा चाहे जितनी होगी, हाथ हमारा नहीं उठेगा।’

     डाॅ लोहिया को अशोक मेहता जी ने समाजवादी नेताओं में सबसे उपजाऊ दिमाग वाला नेता बताया था। उन्होंने 1976 में जेल में सुरेद्र मोहन जी को कहा कि 1964 में यदि अशोक मेहता कांग्रेस पार्टी में नहीं जाते तथा लोहिया के साथ मिलकर एकीकृत पार्टी चलाते तो 1967 के संसदीय आम चुनाव में 50 से अधिक समाजवादी लोकसभा में जीतकर आ सकते थे। तब संभवत: इंदिरा गांधी वैसी शक्तिशाली नहीं हो पातीं और न ही आपातकाल की घोषणा होती।

      लोग डाॅ लोहिया के पिता कांग्रेसी हीरालालजी के बारे में कम जानते हैं जिनसे उन्हें राजनैतिक दीक्षा मिली थी। सबसे पहले 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ राममनोहर कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा लेने गये थे। 1941 में  व्यक्तिगत सिविल नाफरमानी के कार्यकर्ता के तौर पर वे कलकत्ता से दिल्ली तक युद्ध विरोधी नारे लगाते हुए गये थे। वह भी भरी गर्मी में, गिरफ्तारी के बाद जब उनसे युवाओं ने समाजवादी सिद्धांत और कार्यक्रमों के बारे में पूछा कि क्या आप सोशलिस्ट हैं ? तब उन्होंने कहा था, मैं सोशलिस्ट का बाप हूं। 

*डाॅ लोहिया का जीवन अपरिग्रहपूर्ण रहा। उन्होंने धन एकत्रित करने की लालसा कभी नहीं पाली। यही कारण है कि जब उनकी मौत हुई तब उनका न कोई बैंक अकाउंट था और न ही कोई संपत्ति। बिना संसाधनों को इकट्ठा किए राजनीति की जा सकती है इसका उन्होंने सफल प्रयोग किया*। डाॅ लोहिया का एक किस्सा काफी मशहूर है। यूरोप से जब वे कोलंबो होकर लौट रहे थे तब उनके पास केवल मद्रास तक पहुंचने का किराया था। जहाज से उतर कर हिंदू के कार्यालय में जाकर उन्होंने एक लेख लिखा। उससे मिले पैसे से वे कलकत्ता रवाना हुए। ऐसे फक्कड़ सादगीपूर्ण जीवन बिताने वाले विचारक और राजनेता बहुत कम हैं, जिन्होंने देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सब कुछ कुर्बान कर देने के बाद भी स्वयं के लिए स्वतंत्र भारत में कुछ नहीं चाहा। सर्वस्व समाज, देश और मानवता पर न्यौछावर कर दिया। 

*26 सितंबर 1962 को नागार्जुन सागर में भाषण देते हुए डाॅ लोहिया ने कहा था, ‘लोग मेरी बात सुनेंगे, मेरे मरने के बाद*।’

*डाॅ लोहिया की मृत्यु के बाद उनकी बात तो सुनी गयी। लोहिया के चेलों को सत्ता भी मिली, लेकिन उन्होंने जिस समतावादी समाज की रचना का सपना देखा वह आज भी अधूरा है। लेकिन आज भी विचारवान लोग लोहिया को पढ़ना और समझना चाहते हैं, 500 से ज्यादा किताबें डॉ लोहिया को लेकर विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। डॉ लोहिया हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका समाजवादी विचार आज भी जिंदा है।* 

डाॅ सुनीलम

राष्ट्रीय अध्यक्ष, किसान संघर्ष समिति,

पूर्व विधायक ( समाजवादी पार्टी)

8447715810

ईमेल : samajwadisunilam@gmail.com

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