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 आजादी की जंग में, डॉक्टर लोहिया, उषा मेहता का सनसनीखेज धमाका   

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           (भाग-5]

        प्रोफेसर राजकुमार जैन 

 ‘ए वतन मेरे वतन’ फिल्म की असली कहानी।

 9 अगस्त 1942 को देश के सभी बड़े नेता, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सरदार पटेल वगैरा सलाखों के पीछे कैद कर लिए गए। परंतु कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नौजवान नेता जो गिरफ्तारी से बच गए थे, उन्होंने पहले से ही तैयारी कर रखी थी कि ऐसे हालात में भूमिगत रहकर कैसे काम करना है? जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, युसूफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली,  श्रीपाद जोशी, कमला देवी चट्टोपाध्याय, सुचेता कृपलानी वगैरा ने गुपचुप आपस में बातचीत कर आंदोलन कैसे चलाया जाए, कार्यक्रम बनाया। और सभी भाषाओं में इस कार्यक्रम के बारे में कागज तैयार करके, पूरे देश में बटंवा दिए गए। इसमें तार तथा टेलीफोन की लाइने काटना, रेलगाड़ी की पटरिया उखाड़ना, डाक व्यवस्था को भंग करना, सरकारी नौकरी से इस्तीफा देना,  सेना के लिए साजो-सामान  तैयार करने वाले कारखाने में हड़ताल करवाना, तथा किसान सरकार को अनाज नहीं भेज सके, इसके लिए उनका संगठन बनाना, सेना को उनकी जरूरत का सामान न पहुंच सके, इसके लिए वाहनों के आने-जाने में बाधा पैदा करना आदि शामिल थे। इतना ही नहीं ‘तोड़फोड़ की बारहखड़ी’ नामक छोटी सी किताब (पुस्तिका) पूरे देश में बांटी गई। इसमें बड़े साफ शब्दों में लिखा था कि आंदोलन करने के बावजूद भी आम लोगों को जरा भी नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।

 इसी सिलसिले में ‘कांग्रेस रेडियो’

  (आजाद रेडियो) को  चालू करने की योजना भी बनी।

सुभाष चंद्र बोस भेष बदलकर पहले जर्मनी फिर वहां से जापान चले गए, उन्होंने दोनों जगह के रेडियो से अंग्रेजों के खिलाफ जो भाषण दिए उससे लोगों का खून खौल उठा। उनके भाषण हमारे देश में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि लोग नया रेडियो खरीदते हुए दुकानदार से पूछते थे, कि इस पर जर्मनी तथा जापान के रेडियो कार्यक्रम सुन सकेंगे न?

 ऐसे हालात में डॉ राममनोहर लोहिया को हिंदुस्तान में ही कांग्रेस रेडियो शुरू करने का विचार आया। उन्होंने योजना बनाकर भूमिगत कांग्रेस समिति के सामने विचार करने के लिए प्रस्ताव रखा, जिसको अमली जामा देने का फैसला लिया गया।

 22 वर्ष वर्षीय क्रांतिकारी विचारों की गांधीवादी उषा मेहता जो उस समय कानून की छात्रा थी। उनके पिताजी जो कि रिटायर्ड जज थे। वे नहीं चाहते थे की उनके बच्चे किसी तरह के आंदोलन में शामिल हो। उसके बावजूद उनके घर के तीन बेटों एक बेटी ने आंदोलन में भाग लेने का फैसला ले लिया। उनके बड़े भाई चंद्रकांत मेहता, जो की उस समय कॉलेज में प्रोफेसर थे, उनसे बड़े भाई जो डॉक्टर थे, तथा उषा मेहता जो अभी पढ ही रही थी।

        उषा मेहता ने एक रेडियो वार्ता, तथा अपने एक लेख में उन दिनों के के हालात का बखूबी विस्तार से वर्णन किया है।

 “वे भारत छोड़ो संघर्ष के यादगार दिन थे। महात्मा जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। भारत खदक रहा था। लोग पीड़ा और बलिदान के लिए तैयार थे और सरकार अत्याचार और उत्पीड़न के लिए। देशभक्ति की ललक ने जनता को सभी कल्पनीय  तरीकों से सरकार को चुनौती देने के लिए प्रेरित किया। डॉक्टर लोहिया जैसे भूमिगत नेता जिन्होंने गांधी जी से 1938 की शुरुआत में ही सत्याग्रह शुरू करने का आग्रह किया था और अच्युत पटवर्धन ने क्रांति की बिखरी हुंई ताकतो को एकजुट और समन्वित करने की कोशिश की और लोगों के समझाने की कोशिश की कि महात्मा  द्वारा शुरू किया आंदोलन कोई सामान्य आंदोलन नहीं था, बल्कि एक क्रांति थी वह भी पारंपरिक रूप की नहीं। यह फ्रांस या रूस की तरह अत्याचारी बहुमत के खिलाफ एक सक्रिय अल्पसंख्यक विद्रोह नहीं था, बल्कि सभी लोगों का सहज आक्रोश था। 1857 के महान विद्रोह के बाद पहली बार बड़ी संख्या में लोग स्वतंत्रता के मार्ग पर आगे बढ़ने के दृढ़ संकल्प के साथ बिना हथियार या गोला बारूद के ब्रिटिश राज को चुनौती देने के लिए उठ खड़े हुए थे।

उषा मेहता ने लिखा है कि ” अगस्त में शुरू हुए आंदोलन में मेने तथा मेरे कुछ साथियों ने सोचा, आजादी के लिए हमें भी कुछ करना चाहिए। खबरों पर पाबंदी लगा दी गई थी। अगस्त महीने में मुंबई में आयोजित ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के एक  सत्र में हमारी एक गुप्त रेडियो चलाने की दृढ़ इच्छा हो गई।  क्योंकि हम ट्रांसमीटर के द्वारा प्रचार की अहमियत से वाकिफ थे। हमारी यह भी धारणा थी की एक शक्तिशाली ट्रांसमीटर के माध्यम से हम विदेशी देशों तक भी पहुंच सकते हैं। हम बहुत अधिक उत्साहित थे, परंतु हमारी दिक्कत थी कि इसके लिए पैसा कहां से लाएं? हमारे कुछ रिश्तेदारों ने अपने आभूषण देने की इच्छा जताई परंतु हमे इसे स्वीकार करने में हिचक थी।  हम किसी तरह  संसाधनों को जुटा कर एक टेक्नीशियन दोस्त के पास गए, जो रेडियो मैकेनिक्स की क्लासेस चला रहा था। हमने उनसे एक चलता फिरता रेडियो स्टेशन तैयार करने की ख्वाहिश जाहिर की। कुछ ही दिनों में  एक चलता फिरता रेडियो स्टेशन तैयार हो गया, यह लगभग 13 अगस्त तक तैयार हो गया था।

  साथ ही साथ एक अन्य समूह जिसका नेतृत्व विट्ठल भाई झवेरी द्वारा  किया जा रहा था,  ट्रांसमीटर चलाने का प्रयास कर रहा था। इन दोनों के अलावा कई अन्य समूह भी इस दिशा में प्रयास कर रहे थे।

  डॉ राममनोहर लोहिया जिन्हे इन सभी समूहों का पता था। उन्होंने उन सभी ग्रुपों को समन्वित करने का प्रयास किया।

 एक अच्छी सुबह, मेरे चाचा अजीत देसाई ने एक नोट डॉ लोहिया के नाम से बाबू भाई और और मुझे दिया।  नोट इस प्रकार था, “मैं आपको व्यक्ति रूप से नहीं जानता, लेकिन मैं  आपके साहस और उत्साह की सराहना करता हूं। महात्मा गांधी द्वारा प्रज्वलित की गई अग्नि में अपना योगदान देने कीआपकी इच्छा की कद्र करता हूं। मैं, आपसे, अपनी सुविधाअनुसार  मेरे से मिलने का अनुरोध करता हूं।”

यह मुलाकात 17 अगस्त की शाम को हुई। बाबू भाई और विट्ठल भाई तथा मैं, मुलाकात में मौजूद थे। हम एक दूसरे को नहीं जानते थे, नाही हम व्यक्तिगत रूप से डॉक्टर लोहिया से परिचित थे। फिर भी हम सभी तुरंत एक साथ एक समूह के रूप में काम करने के लिए सहमत हो गए। और हमारी पहली रेडियो घोषणा 14 अगस्त 1942 को शुरू हो गई। घोषणा में कहा गया

 “‘यह कांग्रेस रेडियो है,भारत के किसी कोने से 42.34 मीटर के द्वारा कॉल किया जा रहा है।” यह घोषणा हम सभी के लिए दीर्घकालीन सपना पूर्ण होने जैसा था।

“*यह कोई आंदोलन नहीं है, एक क्रांति है। आन्दोलन में जीत या हार होती है,पर क्रांति मे जीत या मौत होती है।*”

           (भाग-6) 

     *प्रोफेसर राजकुमार जैन* 

*’ए वतन मेरे वतन’ फिल्म की पृष्ठभूमि*।

1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तो अंग्रेज हुकूमत ने सभी प्राइवेट, शौकिया रेडियो के लाइसेंस निलंबित कर दिए। ऑपरेटर को रेडियो चलाने के सभी उपकरणों को भी सरकार के पास जमा करवाने की हिदायत भी दे दी। हालांकि सरकारी रेडियो “ऑल इंडिया रेडियो” जो 1923  में ही शुरू हो गया था, उसका काम केवल बरतानिया सरकार की तारीफ और तरफदारी करना था। ऐसे हालत में  “कांग्रेस रेडियो” जिसका मकसद हिंदुस्तानी जनता की आवाज,  आजादी की जंग की प्रगति की खबर देना, तथा बरतानिया शासन के खिलाफ मुसलसल मुखालफत की हौसलाअफजाई करते हुए मनोबल को बढ़ाना था।

 9 नवंबर की सुबह की बुलेटिन में घोषणा की गई कि “याद रखें कांग्रेस रेडियो मनोरंजन के लिए नहीं,  बल्कि आजादी की लड़ाई में हिंदुस्तानियों को सही सलाह देने के लिए बना है। रेडियो स्टेशन में प्रसारण करने के लिए गांधी व अन्य नेताओं के भाषण,  संदेशों को रिकॉर्ड किया जाता था। राष्ट्रीय गीतों  आजादी और एकता की वकालत करने वाले भाषणों का मिला-जुला प्रसारण होता था। भारतीय जनता के बीच मनोबल को बनाए रखना भी था। रात को 8:45 पर हिंदुस्तानी आवाम आजादी के आंदोलन की खबरों को सुनने के लिए कांग्रेस रेडियो का बेक़रारी से इंतजार करते थे। खास ध्यान देने की बात यह है कि हालांकि यह गुप्त गैर सरकारी रेडियो था, परंतु उसका अपना ट्रांसमीटर था, एक प्रसारण स्थल और रिकॉर्डिंग स्टेशन था और और साथ ही एक काल लाइन और इसकी रेडियो तरंग की लंबाई भी थी। 

*कार्यक्रम की शुरुआत ” हिंदुस्तान हमारा” तथा समापन “वंदे मातरम” से होता*। इसके बीच खबरों, भाषणों, तथा अपील और इस संघर्ष में जुटे आंदोलनकारी को निर्देश भी दिए जाते। रेडियो हिंदुस्तानी और अंग्रेजी दोनों जबानों में पेश किया जाता था। शुरुआत में रोजाना एक ही प्रसारण होता था परंतु बाद में इसे दो बार शुरू कर दिया गया। पूरे हिंदुस्तान से विभिन्न सूत्रों की मार्फत सूचनाएं मिल जाती थी। मुंबई स्थित “ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी” के दफ्तर जिसकी इंचार्ज सुचेता कृपलानी थी, उनके साथ रेडियो संचालकों का बहुत ही  सौहार्दपूर्ण  संबंध था। उससे  राष्ट्रीय महत्व की जानकारी मिलती थी। खबरें प्रसारित करना रेडियो प्रोग्राम की नियमित प्रक्रिया थी। कांग्रेस रेडियो से ही सर्वप्रथम चिटगांव बम हमले, जमशेदपुर हड़ताल, बलिया में हो रही घटनाओं की खबरें,  बिहार और महाराष्ट्र में समानांतर सरकारों के संचालन की जानकारी कांग्रेस रेडियो द्वारा ही प्रसारित की गई।  

 अष्टी और चिमूर नामक जगहो पर बेकसूर महिलाओं का  कत्लेआम अब तक के सबसे जघन्य  अपराधों में से एक था। उषा मेहता ने लिखा है कि उसकी भयावह खबरों को सुनकर *शेर *लोहिया ने गरजते हुए कहा*:

 “*आपको किसी भी अन्य अहिंसक विरोधी के रूप में बलात्कार के कृत्यो को रोकने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन यदि आप आजाद हैं और अभी भी जिंदा है ,तो बलात्कार के प्रतिरोध में मरो या मार डालो*” 

अंग्रेजी राज के खौफ के कारण जब समाचार पत्र उस वक्त के हालात पर कुछ भी लिखने से कतराते थे, तब केवल कांग्रेस रेडियो ही सरकारी हुक्म की परवाह

न करते हुए उस वक्त के हालात की असली खबर देता था। समाज के विभिन्न तबको, जैसे छात्रों वकीलों कामगारों पुलिस और महिलाओं तथा विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के लिए  अपील होती थी। कांग्रेस रेडियो की मार्फत आंदोलन की नीति और संघर्ष की प्रकृति पर भी प्रकाश डाला जाता था।

   डॉक्टर लोहिया ने कांग्रेस रेडियो पर अपने एक  भाषण मे  पिछले स्वतंत्रता संघर्षों और वर्तमान ‘भारत छोड़ो आंदोलन’  के अंतर को समझाते हुए कहा था, 

 ……”*यह कोई आंदोलन नहीं है, यह एक क्रांति है। आंदोलन में जीत या हार होती है, पर क्रांति में जीत या मौत होती है, क्योंकि इसमें कोई पीछे नहीं हटता है।*”

 “यह क्रांति किसी एक दल या समुदाय की नहीं है, बल्कि पूरे मुल्क की है।” 

 डॉ लोहिया न केवल हिंदुस्तानियों के लिए बल्कि सभी गुलाम मुल्कों के लिए आजादी चाहते थे। उनका राष्ट्रवाद, देश तक ही सीमित न होकर अंतर्राष्ट्रीय था। *यह बताते हुए कि आजादी के लिए भारत की लड़ाई द्वेष से नहीं, बल्कि न्याय पाने की इच्छा से प्रेरित थी*। एक रेडियो संदेश में उन्होंने कहा:,

    ”  *भारत की अंग्रेजों या किसी अन्य लोगों से कोई दुश्मनी नहीं है। हम भारतीय, जो कष्टों और पीड़ा की एक लंबी विरासत के बोझ लिए  हैं, युद्धग्रस्त इंग्लैंड के लोगों, रूस और जर्मनी के बम पीड़ित शहरों के बाशिंदो की पीड़ा के प्रति सहानुभूति रखते हैं। हमारी लड़ाई उस व्यवस्था के खिलाफ है जो मानव जाति के दो तिहाई लोगों के वजूद के हक से वंचित करती है। हमारी नफरत एक ऐसे प्रशासन से है जो मानवीय अन्याय को बढ़ावा देना चाहता है।*”       

       कांग्रेस रेडियो से, 2 अक्टूबर 1942 को गांधी जयंती का उत्सव मनाने के लिए विशेष निर्देश दिए गए थे कि यह दिन उत्साह तथा क्रांतिकारी जज्बे के साथ मनाया जाए। कांग्रेस रेडियो से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों पर आम जनता द्वारा मिल रही प्रतिक्रिया, बहुत उत्साहवर्धक होती थी। जनता बेकरारी से  बुलेटिन और बातचीत सुनने का इंतजार करती थी। न केवल सुनने बल्कि उसको आगे उन लोगों को भी बताते थे, जो  प्रोग्राम को नहीं सुन पाते थे।

… 

 

*हुकूमत पकड़ने को बेताब थी*,

         *इसके बावजूद*

 *रेडियो से ललकार जारी थी…..* । 

             (भाग- 7)

 *प्रोफेसर राजकुमार जैन* 

(*ए वतन, मेरे वतन”, फिल्म कीं हकीकत*)

  अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत, वह भी रेडियो के मार्फत, सरकार इसको कैसे बर्दाश्त करती? सरकारी हुक्म जारी हुआ, कैसे भी हो जल्द से जल्द इनको पकड़ो। एक तरफ कांग्रेस रेडियो पूरे जोश खरोश से आजादी के तराने, अंग्रेजी सल्तनत को हिंदुस्तान से बाहर खदेड़ने के पैगाम, जोशीली तकरीरो,  लेखों, गानों से हिंदुस्तानी आवाम में जोश भर रहा था, वही सरकारी मशीनरी भी उतनी ही मुस्तैदी से रेडियो स्टेशन को पकड़ने में लगी थी। रेडियो संचालकों ने प्रमुख नेताओं के नाम इसलिए बदल दिए थे कि यदि कोई कार्यकर्ता पकड़ा भी जाए तो पुलिस उससे सही नाम ना जान पाए। पुलिस को केवल नकली नाम ही पता लगे। डॉ लोहिया ”वैद्”‘ जयप्रकाश नारायण “मेहता” अरुणा आसफ अली “कुसुम” तथा सुचेता कृपलानी “दीदी” नाम से पहचानी जाती थी। थोड़े दिनों के बाद नाम फिर से बदल दिए जाते थे। यदि पुलिस को इन नामो के बारे में पता चले तो उन्हें अंधेरे में रखा  जा सके।

 कांग्रेस रेडियो दो तरह की मुश्किलों का सामना कर रहा था। आर्थिक साधनों का जुगाड़ करना तथा पुलिस द्वारा रेडियो तरंगों को पकड़ने वाली तकनीक से लैस, खोजी पुलिस  वैन जो पता लगाने के लिए पीछा कर रही थी उससे बचना। इस कारण रेडियो चलाने वाले एक जगह से दूसरी जगह बदलते रहते थे। सरकारी दस्ता बड़ी तकनीक और यंत्रों की सहायता  से कांग्रेस रेडियो को ठप करने की भी कोशिश करता रहता था। कांग्रेस रेडियो ने उन्हीं की तरह “ऑल इंडिया रेडियो” (सरकारी भोंपू) को जाम करने का भी प्रयास किया। तथा अपने प्रचार में उसे ऑल इंडिया रेडियो न कहकर एंटी इंडिया रेडियो कहना शुरू कर दिया। कांग्रेस रेडियो ने पूरे मुल्क में प्रसारण का एक नेटवर्क स्थापित करने की कोशिश की ताकि यदि कोई एक सेट जब्त हो जाए तो रेडियो का काम रुक ना पाए। हालांकि इस दिशा में केवल दो सेट तैयार करने तक ही कामयाब रहे। कांग्रेस रेडियो ने एक और काम, प्रसारण और रिकॉर्डिंग स्टेशन को अलग-अलग कर दिया। विट्ठल भाई प्रसारण स्टेशन के इंचार्ज थे, वहीं  रिकॉर्डिंग स्टेशन के निर्देशक के रूप में भी काम कर रहे थे। रेडियो स्टेशन से प्रसारण होने वाली वार्ताओं, लेखों, भाषणों तथा अन्य जानकारी को तैयार करने वाले  लेखको, कर्मचारियों का भी एक ग्रुप बना हुआ था।

 इस काम में सबसे अहम भूमिका *डॉ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, हैरिस मोइनुद्दीन, और कूमि दस्तूर निभाती थी*। *अधिकतर अंग्रेजी भाषण डॉ लोहिया और कूमि दस्तूर द्वारा प्रसारित किए जाते थे*। *हिंदी में मोइनुद्दीन हैरिस, अच्युत पटवर्धन और उषा मेहता इस कार्य को करती थी*।

  रेडियो स्टेशन में लिखने- पढ़ने, बोलने वालों के साथ-साथ और कई तरह से मदद करने करने वाला एक दस्ता भी काम करता था। रिकॉर्डिंग स्टेशन से प्रसारण स्टेशन तक लाने ले जाने की जिम्मेदारीं इन्ही की थी। पुलिस हाथ धोकर पीछे पड़ी हुई थी, रेडियो के काम में बहुत सारे टेक्नीशियन भी लगे हुए थे, इनमें से एक तकनीशियन जगन्नाथ गिरफ्तार हो गए। पकड़े गए टेक्नीशियन से पुलिस को पता चला कि रेडियो स्टेशन को चलाने का मुख्य काम उषा मेहता, बाबू भाई खाकर, विट्ठल भाई  झावेरी कर रहे हैं। पुलिस ने 12 नवंबर को बाबू भाई खाकर के दफ्तर पर छापा मारा। उषा मेहता तथा दो अन्य सहयोगी भी उस वक्त दफ्तर में मौजूद थे परंतु जब इनको पता चला की पुलिस ऑफिस में आई है, तो दफ्तर में मौजूद लोगों ने महत्वपूर्ण फाइलों और कांग्रेस रेडियों से जुड़े साहित्य को वहां से हटाने की कोशिश की,तथा कामयाब भी रहे। वहां से तुरंत उषा मेहता रिकॉर्डिंग स्टेशन पहुंची, जहां डॉक्टर लोहिया, मोइनुद्दीन हैरिस शाम को प्रसार होने वाले प्रोग्राम की तैयारी में व्यस्त थे। *उषा मेहता ने डॉक्टर लोहिया को कहा कि हमारे कुछ सहकर्मी हिरासत में हैं। बाबू भाई के कार्यालय पर छापा पड़ा है, आगे क्या होगा कोई नहीं जानता ? इसको सुनकर डॉक्टर लोहिया की प्रतिक्रिया थी कि हमारे प्रसारण रेडियो स्टेशन का क्या होगा? इस पर उषा मेहता ने कहा “फैसला आपका, उसको अमली जामा पहनाना हमारा*”।

 जल्दी से विट्ठल भाई,  मोहिउद्दीन तथा अन्य कुछ की राय जानकर *डॉक्टर लोहिया ने कहा, “*आजादी के लिए लड़ाई रुकनी नहीं चाहिए, हालात चाहे जितने खिलाफ हो, लड़ाई जारी रखनी है*।” *इस पर उषा मेहता ने पलट कर कहा “काम जारी रहेगा*”

 इसके फौरन बाद उषा मेहता उस टेक्नीशियन के सहायक के पास गई जो बाबू भाई के ऑफिस में पुलिस को लाया था।उससे अनुरोध किया की रात भर में एक और ट्रांसमीटर तैयार कर दो। उसने इस कार्य को पूरा करने की हामी  भर ली।  इसके बाद उषा मेहता अपने भाई चंद्रकांत तथा झावेरी के साथ प्रसारण स्टेशन गई। पहले से तय प्रोग्राम के मुताबिक प्रसारण हुआ। कांग्रेस रेडियो पर “हिंदुस्तान हमारा” बजा। उसके बाद कुछ खबरें तथा एक वार्ता भी प्रसारित हुई। वंदे मातरम बज रहा था तभी दरवाजे पर कड़ी दस्तक हुई, तथा डिप्टी कमिश्नर पुलिस, उसके साथ मिलिट्री टेक्नीशियन,  तकरीबन 50 पुलिस वाले, तीन दरवाजे तोड़कर अंदर दाखिल हो गए।  *उन्होंने हुक्म दिया कि बंदे मातरम रिकॉर्ड बजाना बंद करो। परंतु उषा मेहता ने ऐसा करने से मना कर दिया*। उषा मेहता रेडियो पर इसकी जानकारी देना चाहती थी, परंतु गद्दार टेक्नीशियन की मदद से पुलिस ने फ्यूज को बिगाड़ दिया, जिसके कारण हर जगह अंधेरा छा गया। पुलिस को डर लग रहा था कि शायद गिरफ्तार उषा मेहता ओर उनके साथी भाग न जाए। उस समय जो लोग रेडियो  सुन रहे थे, उन्होंने रेडियो पर बड़ी कड़ी आवाज़े सुनी, दरवाजा तोड़ने की आवाज से उनको लगा की जरूर कोई बड़ी बात है।

   

*फर्ज अदायगी करते, बेखौफ* 

*उषा मेहता गिरफ्तार*!

  …       *(भाग-8)*

  *प्रोफेसर राजकुमार जैन* 

12 नवंबर 1942 को गिरफ्तारी वाले दिन, कांग्रेस रेडियो से जुड़े लोगों ने एक बैठक में इस बात पर चर्चा कि,  अगर हम लोग गिरफ्तार हो जाते हैं, तो क्या करें? शहर के कई रेडियो डीलरों को पुलिस वालों ने एक हफ्ते पहले अपनी गिरफ्त में लेकर जानकारी में पाया कि बाबू भाई तथा विट्ठल भाई कांग्रेस रेडियो चलाने वालों मे से खास  हैं। बैठक में तय किया गया कि चाहे कुछ भी हो जाए, कोई सूचना हम पुलिस को नही देंगे। 12 नवंबर को दिन में जब पुलिस ने बाबू भाई के दफ्तर पर छापा मारा तो उषा मेहता सहित कई लोग काम कर रहे थे। ज्योंहि उन्हें पता चला की पुलिस आ गई है, तो उषा मेहता बाबू भाई के दफ्तर में दाखिल हुई और बहुत ही *मासूमियत से कहा भाई, मैं डॉक्टर (डॉक्टर लोहिया) को क्या कहूं*? *मां (ट्रांसमीटर) की सेहत के बारे में, तो बाबू भाई ने कहा कि उनसे कहना कि आज मैं यह जानते हुए भी की मां बहुत बीमार है, मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता*। *डॉक्टर खुद फैसला कर ले कि क्या पुराने नुस्खे के मुताबिक दवाई दें या बदल ले*, (दरअसल इशारों में की गई इस बात का मतलब था, कि हालात खराब है, ऐसे में आज रेडियो चलाना चाहिए या नहीं, यह फैसला खुद डॉक्टर लोहिया कर ले) 

पुलिस ने जब बाबू भाई से, उषा मेहता के बारे में पूछा कि यह लड़की कौन है? तब उन्होंने कहा ये मेरे पड़ोसी की बेटी है। इसकी मां बीमार है, क्योंकि  इसके घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं है, इसलिए मुझे ही यह जिम्मेदारी उठानी पड़ रही है। पुलिस अफसर इस जवाब से संतुष्ट हो गए, और उन्होंने उषा को जाने दिया। इसी बीच में खबर आई की रेडियो का एक तकनीशियन गिरफ्तार हो चुका है। शुरू में सोचा गया कि आज रात को कोई  प्रोग्राम प्रसारित नहीं करेंगे, परंतु दूसरे पल ही हमें (उषा) लगा कि स्थान बदलकर दूसरे ट्रांसमीटर से रात में  ही प्रोग्राम को प्रसारित करना चाहिए।  एक अनुशासित सिपाही के रूप में सर पर मंडराते खतरे को देखकर भी उसका सामना करना चाहिए। रिकॉर्डिंग स्टेशन से इस पक्के इरादे के साथ कि, तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक प्रोग्राम करना है। उषा मेहता अपने घर गई। उन्होंने अपनी मां और भाइयों को खबर दी कि आज रात को रेडियो स्टेशन पर छापा पड़ सकता है, दोनों भाई जनक भाई तथा चंद्रकांत भाई भी उस मुहिम में लगे हुए थे।  बकौल उषा मेहता के, मैं प्रसारण स्टेशन जा रही थी, सदा की तरह चंद्रकांत भाई झवेरी मेरे साथ चले। वे खतरे से पूरी तरह वाकिफ थे। मेरे बार-बार मना करने के बावजूद कि वह ऐसा ना करें, तो उन्होंने कहा ‘ *मैं तुम्हें ऐसे कैसे शेर के जबड़े में जाने की इजाजत दे सकता हूं*! ‘ मुझ पर (उषा ) उनके कथन का गहरा भावनात्मक  असर पड़ा। मैंने उनसे (चंद्रकांत झावेरी) से कहा वह अंदर दाखिल होने वाले दरवाजे के पास बाहर खड़े रहे, तथा किसी भी खतरे को देखते हुए तीन बार दरवाजे पर दस्तक दें। उसके बाद ,मै  ब्रॉडकास्टिंग कमरे में दाखिल हो गई। ट्रांसमीटर को चलाकर पूरे प्रोग्राम को प्रसारित कर दिया। आखिर मे जब मैंने’ वंदे मातरम’ रिकॉर्ड बजाना शुरू किया, दरवाजे पर जोरदार दस्तक सुनाई दी, मैंने सोचा कि चंद्रकांत भाई मुझे संकेत दे रहे हैं, पर उनकी जगह मैंने देखा की पुलिस की बड़ी बटालियन, डिप्टी कमिश्नर आफ पुलिस जिनके चेहरे पर विजेता की मुस्कान साफ झलक रही थी, दाखिल हुए। हमारी गिरफ्तारी की कागजी खानापूरी में 3:30 घंटे लगे।                                     जब मैं और चंद्रकांत भाई आखिर में कमरे से निकले तो हमने देखा हर कदम पर पुलिस के सिपाही खड़े हुए हमारा इंतजार कर रहे थे। मैंने चंद्रकांत भाई को कहा ‘ *भाई हम नहीं जानते की क्या हमारा कभी ऐसा  शानदार स्वागत, ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ जो आज मिल रहा है*, *वह कभी दोबारा मिलेगा, वह भी बंदूकधारी पुलिस वालों से*। *उन्होंने भी मेरी तरह बिना किसी घबराहट से कहा हां, यह हमारे जीवन का एक यादगार दिन है*। 

                 *जारी है…..।*

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