लोहिया और गांधी के वैचारिक रिश्ते के मायने
कनक तिवारी, रायपुर:
गांधी के बाद लोहिया के सांस्कृतिक मानस से सबसे अधिक प्रभावित प्रबुद्ध
रामबचन राय, पटना:
आज डॉ. राम मनोहर लोहिया (जन्म -23 मार्च1910-12अक्टूबर1967 ) की पुण्यतिथि है। सिर्फ 57 साल की उम्र में दिल्ली के तत्कालीन विलिंग्डन-क्रिसेंट अस्पताल में प्रोस्टेट के ऑपेरशन के बाद डॉक्टरों की लापरवाही से 12 अक्टूबर 1967 को उनकी मौत हो गयी थी। डॉ. लोहिया विलक्षण प्रतिभा के जितने बड़े राजनेता थे ; उतना ही बड़ा उनका सांस्कृतिक मानस भी था। भारतीय राजनीति में गाँधी के बाद वे दूसरी शख्सियत थे, जिनके प्रति लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों, बौद्धिकों और युवजनों का सबसे ज्यादा झुकाव था। वे सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी और विषमता मिटाने तथा महिलाओं को हक और सम्मान दिलाने की खातिर जीवन भर लड़ाई लड़ते रहे। इसे अपने राजनीतिक एजेंडा में उन्होंने शामिल किया था।

लेकिन लोहिया अपनी सांस्कृतिक सोच और बौद्धिक विमर्श के मामले में अपने समकालीनों से भिन्न थे। वे अपने को गंगा और सरयू का पुत्र कहते थे। उन्होंने कार्यक्रम दिया – ‘नदियाँ साफ करो’ , ‘हिमालय बचाओ’ , ‘वनों की रक्षा करो’ , ‘ खर्च की सीमा बांधो’, ‘वस्तुओं का दाम बांधो’ आदि। पर्यावरण-संतुलन के लिए पांचवें दशक से ही उन्होंने आवाज उठाई थी। डॉ. लोहिया की एक पुस्तक है – Interval during politics. इसमें शिक्षा साहित्य संस्कृति, प्रकृति एवं मानव जीवन से जुड़े अनेक विषयों पर उन्होंने अपने विचार प्रकट किए हैं। उन्होंने राम, कृष्ण और शिव पर लिखा है। राम को वे उत्तर और दक्षिण की एकता का देवता और कृष्ण को पूरब और पश्चिम की एकता का देवता कहते थे। भारतवर्ष का पूरा भूगोल इसमें समा जाता है। शिव उनकी नजरों में असीमित व्यक्तित्व वाले हैं – नन-डायमेंशनल।
डॉ. लोहिया ने निराला के कविता-संग्रह ‘अणिमा’ की समीक्षा अंग्रेजी में लिखी थी, जो उनके द्वारा संपादित पत्रिका Mankind में पहले छपी, फिर Interval during politics में सम्मिलित हुई। मैं नहीं जानता कि आजादी के आस-पास और बाद के भी किसी बड़े राजनेता ने किसी हिंदी कवि की काव्य-पुस्तक की समीक्षा लिखी हो। सन् 50 के आस-पास शुरू होने वाले हिंदी नव-लेखन पर सबसे अधिक प्रभाव लोहिया का है। अज्ञेय, रघुवीर सहाय, डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रो. विजय देव नारायण साही , लक्ष्मीकांत वर्मा, डॉ. रघुवंश, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, कृष्णनाथ, श्रीकांत वर्मा, डॉ. जगदीश गुप्त, प्रयाग शुक्ल, नन्द चतुर्वेदी, अशोक सेकसरिया, डॉ. युगेश्वर आदि अनेक रचनाकार लोहिया की सांस्कृतिक विचार-यात्रा के सहचर रहे। उन्होंने चित्रकूट में जब ‘रामायण मेला’ लगाने की कल्पना की थी तो इनके अलावा उस प्रसंग में आचार्य नलिन विलोचन शर्मा और प्रो. केसरी कुमार से भी विमर्श किया था।

लोहिया ने ही चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसेन को खड़ा किया था। देश और दुनिया के कला-जगत को यह लोहिया की बड़ी देन है। एक बार अपने मित्र बदरी विशाल पित्ती के साथ वे बम्बई से हैदराबाद लौट रहे थे। रास्ते में कार में कुछ खराबी आ गयी। एक गैरेज के सामने गाड़ी रुकी । लोहिया की नजर एक नौजवान पर पड़ी जो किसी पुरानी कार को पेंट कर रहा था। उसके हाथ का ब्रश कुछ ऐसे कलात्मक अंदाज में चल रहा था कि लोहिया देर तक देखते रहे। फिर कुछ पूछताछ की और अपने साथ हैदराबाद लेते गये। फिर क्या था – अपने मित्र बदरी विशाल पित्ती जो राजा साहब के नाम से विख्यात थे, उनसे कह कर मकबूल फिदा हुसेन को कला की शिक्षा के लिए पेरिस भेजवा दिया। हुसेन जितने साल वहाँ रहे खर्च पित्ती साहब उठाते रहे। सड़क किनारे के एक मामूली गैरेज में काम करने वाला लड़का पेरिस से मकबूल फिदा हुसेन बन कर लौटा और दुनिया के कला-जगत में छा गया। आज लोहिया के साथ हुसेन भी याद आ रहे हैं। दोनों को नमन !

(लेखक पटना विवि में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे। संप्रति बिहार विधानसभा परिषद के सदस्य।)
डॉ.राममनोहर लोहिया ने 71 साल पहले हिंदुत्व पर क्या लिखा था
हिंदू बनाम हिंदू
डॉ.राममनोहर लोहिया
(जन्म -23 मार्च1910-12 अक्टूबर1967)
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई , पिछले पांच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अन्त अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गयी जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रखकर हिन्दुस्तान के इतिहास को देखा जाए, उसे बुना जाय। लेकिन देश में जो कुछ होता है , उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है। सभी धर्मों में किसी-न-किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है । लेकिन हिन्दू धर्म के अलावा वे बंट गये , अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद , वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गये । हिन्दू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है । जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की । खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ, लेकिन झगड़ा आजतक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुन्ध छा गयी है। ईसाई , इस्लाम और बौद्ध , सभी धर्मों में झगड़े-विभेद हुए । कैथोलिक मत में एक समय इतने कट्टर पंथी तत्त्व इकट्ठा हो गए कि प्रोटेस्टेंट मत ने जो उस समय उदारवादी था , उसे चुनौती दी । लेकिन सभी लोग जानते हैं कि सुधार आन्दोलन के बाद प्रोटेस्टेंट मत में खुद में कट्टरता आ गयी । कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट मतों के सिद्धान्तों में अब भी बहुतेरे फर्क हैं लेकिन एक को कट्टर पंथी और दूसरे को उदारवादी कहना मुश्किल है । ईसाई धर्म में सिद्धान्त और संगठन का भेद है तो इस्लाम धर्म में शिया-सुन्नी का बंटवारा इतिहास से सम्बन्धित है । इसी तरह बौद्ध धर्म हीनयान और महायान के दो मतों में बंट गया , और उनमें कभी रक्तपात तो नहीं हुआ , लेकिन उनका मतभेद सिद्धान्त के बारे में है , समाज की व्यवस्था से उसका कोई सम्बन्ध नहीं ।

हिन्दू धर्म में ऐसा कोई बंटवारा नहीं हुआ अलबत्ता वह बराबर छोटे-छोटे मतों में टूटता रहा है । नया मत उतनी ही बार उसके एक नये हिस्से के रूप में वापस आ गया है । इसीलिए सिद्धान्त के सवाल कभी साथ-साथ नहीं उठे और परिभाषित नहीं हुए , सामाजिक संघर्षों का हल नहीं हुआ । हिन्दू धर्म नये मतों को जन्म देने में उतना ही तेज है जितना प्रोटेस्टेन्ट मत , लेकिन उन सभी के ऊपर वह एकता का एक अजीब आवरण डाल देता है जैसी एकता कैथोलिक संगठनों ने अन्दरूनी भेदों पर रोक लगा कर कायम की है । इस तरह हिन्दू धर्म में जहां एक ओर कट्टरता और अन्धविश्वास का घर है , वहां नई-नई खोजों की व्यवस्था भी है । हिन्दू धर्म अब तक अपने अन्दर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका , इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले , जो बुनियादी दृष्टिभेद हमेशा रहा है , उस पर नजर डालना जरूरी है । चार बड़े और ठोस सवालों – वर्ण , स्त्री , सम्पत्ति और सहनशीलता के बारे में हिन्दू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारीबारी से लेता रहा है ।
चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिन्दुओं के कान में दूसरे हिन्दुओं के द्वारा सीसा गलाकर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी । क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढे या सुने नहीं । तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मन्त्री बनायेगा ताकि हिन्दू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके । करीब दो सौ वर्ष पहले, पनीपत की आखिरी लड़ाई में जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान पर अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ , एक हिन्दू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह, अपने वर्ण के अनुसार ऊंची जमीन पर तम्बू लगाना चाहता था ।
संघर्षधर्मी जनचेतना के सबसे जानदार सिपहसालार यानी डॉ. राममनोहर लोहिया
भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अहम व्यक्तित्व से फॉलोअप रुबरू कराना चाहता है। साबरमती का संत नाम से 50 क़िस्त के मार्फत महात्मा गांधी को समझने की कोशिश की गई थी। वहीं सदी के महाचिंतक स्वामी विवेकानंद पर केंद्रित करीब 20 क़िस्त भी आपने पढ़े होंगे। अब धुर समाजवादी लीडर डॉ .राममनोहर लोहिया के बारे में पहले आप दो किस्त पढ़ चुके हैं। आज सेगांधीवादी वरिष्ठ लेखक कनक तिवारी की क़लम से नियमित आपको पढ़ना मयस्सर होगा। आज पढ़िये तीसरी क़िस्त-संपादक
कनक तिवारी, रायपुर:
बीसवीं सदी के भारत का इतिहास सबसे ज्यादा घटना प्रधान हुआ है। इसी सदी में नवोदय या नवजागरण काल परवान चढ़ा और इसी सदी ने स्वाधीन भारत को जन्म दिया। इसी सदी में निर्वाचित करीब तीन सौ प्रतिनिधियों द्वारा विदेशों, मुख्यतः यूरो-अमेरिकी देशोंं से प्रभावित सामूहिक लेखन के जरिए संविधान रचा गया। नए बौद्धिक आयामों के प्रतिमानों से लकदक संसद, योजना आयोग, हरित क्रांति, श्वेत क्रांति, चुनाव, आणविक ऊर्जा, विदेश नीति, औद्योगीकरण वगैरह के जरिए भारत धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी में वैश्वीकरण के युग में ला ही दिया गया है। विवेकानन्द, तिलक, गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष बोस, सरदार पटेल, जिन्ना, मौलाना आज़ाद, जयप्रकाश नारायण, इंदिरा गांधी, राजेन्द्र प्रसाद और डाॅ. राममनोहर लोहिया जैसे शीर्ष स्वतंत्रता संग्राम के नेता भारत के भविष्य का जन-चरित्र लिखने की कोशिशें करते रहे हैं। इनमें विवेकानन्द और लोहिया ने समकालीन दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका और गांधी ने भारत के सत्ताधीश रहे इंग्लैंड से सीधी मुठभेड़ करते न केवल अपने सवालों के उत्तर खुद ढूंढ़े, बल्कि पश्चिमी नस्ल की शैतानियत का मुखौटा नोचकर फेंक दिया। लोहिया ने भी यूरो-अमेरिकी कई प्रजातांत्रिक देशों से जो उम्मीदें बांध रखी होंगी, वे गहरी निराशा में तब्दील हुईं।

लोहिया की शख्सियत कई नेताओं से जुदा और उनके समानान्तर बहुआयामी रही है। तिलक, गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद जैसे शीर्ष नेता भी बहुमुखी प्रतिभा के हैं। तिलक में पुरातन संस्कारों और आदर्शो के महिमामंडन के साथ ही उनके पुनर्मूल्यांकन का लगातार आग्रह है। गांधी को तिलक के बनिस्बत अतीत के युग-मूल्यों की अप्रासंगिकता पर भी विचार करने से परहेज नहीं है। उन्होंने अपने विचारों में इस्लाम तथा ईसाइयत के भी कई मूल्य अपनाए। नेहरू मोटे तौर पर आधुनिक पश्चिमी सभ्यता के नज़रिए से भी सरोकार रखते अपनी नायाब अतीत दृष्टि से नया भारत-बोध तराशने के शिल्पकार थे। उम्र के लिहाज से लोहिया इन सबके कनिष्ठ रहने के बावजूद उनके प्रभामंडल से बार बार छिटककर मौलिक अवधारणाएं और रास्ते गढ़ते रहे। वे ज्यादातर अपनी बनाई समानान्तर वैचारिक पगडंडी पर ‘एकला चलो‘ कहते चलते रहे। उस जनपथ पर अवाम चल नहीं पाया अन्यथा लोकतांत्रिक मंज़िल तक जा सकता था। लोहिया पर इतिहास ने भी अपनी नज़र संतुलित और आनुपातिक आधार पर नहीं डाली है। कई बौद्धिकों का उत्तर-गांधी युग में असाधारण प्रभाव अनदेखा हो गया है। उनकी इंद्रधनुषी शख्सियत का वस्तुपरक, तटस्थ और उर्वर आलोचनात्मक मूल्यांकन होना अब भी अधूरा है। उनमें लोहिया को समझने की जुगत करना बीसवीं सदी में इतिहास और देशज परंपराओं सहित अधुनातन पश्चिमी विचार को खंगालने के संयुक्त साहसिक उपक्रम का एडवेंचर हो सकता है।
राममनोहर लोहिया ने जनक्रांतिधर्मी जीवन जिया, लेकिन शायद डाॅक्टरी लापरवाही के कारण सत्तावनवें वर्ष में अकाल मौत पाई। उनका संक्षिप्त जीवन इतिहास का धधकता दस्तावेज हुआ। गांधी तथा मार्क्स के चिंतन से दीक्षित क्रांतिकारियों जैसा ओजमय साहस, संस्कृति के आयामों की खोजी लेकिन बौद्धिक मौलिकता सहेजे लोहिया आज़ादी के लिए जद्दोजहद करते देश के अवाम के लिए सिद्धांतों और कर्म के अग्निमय नायक हुए। वे शोषितों के प्रवक्ता, अन्यायी, विदेशी तथा भारतीय हुकूमतशाही के विरोधी और गांधी की तरह निहायत मामूली और गरीब आदमी के प्रतिनिधि-प्रतीक हो गए। मौलिक अवधारणाएं लिए मुक्त मानव के मसीहा लोहिया अंतरराष्ट्रीय समस्याओं की बारीकियों और सांख्यिकी की शोधपूर्ण जानकारियों से लैस होकर सामाजिक-राजनीतिक मंच पर जीवन्त रहे। उनकी गैरमौजू़दगी में राजनीतिक चिंतन समाजविमुख और समाजवादी आंदोलन स्पंदनहीन हो गया दीखता है। स्वतंत्र होने जा रहे भारत में साधारण नागरिक का उदासीन अजनबीपन खत्म कर उसकी आत्मा को देश के अस्तित्व के साथ तादात्म्य करने की जोरदार कोशिश ने लोहिया को राजनीति में सबसे ज्यादा नई राहें तोड़ने मजबूर किया। उनका जीवन गूढ़ और गोपनीय बना दिए जाते सियासी मसलों को भी अवाम की बहस मुबाहिसे के चौपाल में डाल देने की लगातार कोशिशों का सबूत है। लोहिया के लिए राजनीति का खुला आसमान था। फिर भी संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान अर्थात मनुष्य का बहुविध अस्तित्व ही उनके दायरे में था। प्रख्यात अंग्रेज दार्शनिक, लेखक, विधिवेत्ता बेकन की तरह लोहिया घोषणा करते थे-All Knowledge is my province यह कि पूरा ज्ञान लोक मेरी चिन्तन परिधि में है। मौलिक चिंतक होने के साथ साथ लोहिया ताजिन्दगी अतुलनीय लगन के साथ अपने आश्वस्त आदर्शो को साकार करने की दिशा में लगातार परेशानदिमाग भी रहे। आज़ाद हिन्दुस्तान में उनसे बड़ा सेनापति लगता जनसैनिक ढूंढ़ने से भी नहीं मिलता। उनके जाते जाते देश ने संघर्षधर्मी जनचेतना के सबसे जानदार सिपहसालार के रूप में उन्हें स्वीकारा भी।
यूसुफ मेहर अली मज़ाक़ में लोहिया को कहते थे बंजारा समाजवादी
कनक तिवारी, रायपुर:
भारत के तीर्थ, भारत की नदियां, हिमालय, भारत की संस्कृति, भाषा, भारतीय जन की एकता, भारत का इतिहास लेखन आदि कोई ऐसा विषय नहीं, जिसे उनकी शोधपरक नजर ने नहीं खंगाला। उनके कथन की विशेषता यही है कि उनका पाठक पढ़ने के बाद एक नया नज़रिया विकसित कर पाता है। यदि वे राजनीति में न आते तो भारत क्या दुनिया को एक शीर्ष अध्यवसायी, शोधकर्ता विद्वान लेखक मिल जाता। लेकिन शायद नियति ने उन्हें ऐसी राजनीति में प्रतिष्ठित किया जिसमें उन्हें पूर्णतः समझ पाने वाले भी विरले थे। लोहिया इसलिए मानसिक दृष्टि से आहत भी होते गए और अन्त में वह मूल्यवान जीवन असमय समाप्त हो गया। अन्याय से संघर्ष के लिए वे अकेले ही एक सेना की तरह थे। वे सदा कहते थे कि वे नास्तिक हैं। मनुष्य में विश्वास और उसके कल्याण में आस्था रखने वाला परम आस्तिक ही होता है। दबे, पीड़ित, हरिजन, नारी जैसे व्यक्तियों के वे मसीहा थे। जो अपनी पीड़ा की बात कहना भूल चुके थे, उनके कहे में उन्होंने वाणी दी। लोहिया की टक्कर के कई बौद्धिक कुदरत ने पैदा किए होंगे, लेकिन उनकी जैसी मन वचन कर्म की शख्सियत के कई ढांचे कुदरत के पास नहीं रहे थे।
जयप्रकाश, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन, नरेन्द्र देव, यूसुफ मेहर अली आदि के साथ लोहिया ने समाजवादी आंदोलन की स्थापना की। यूसुफ मेहर अली उन्हें मजाक में बंजारा समाजवादी कहते थे। वे सभी लोग समाजवाद को फकत शासन प्रणाली या जीवन व्यवस्था की समझाइशों के मानिन्द नहीं कहते थे। उनकी राय में समाजवाद अनुशासित, व्यवस्थित और क्रियाशील जीवनदर्शन है। समाजवाद की लोहिया की मान्यता उससे भी ज़्यादा मनुष्यमुखी, प्रगतिशील, जद्दोजहदभरी, आदर्शोन्मुख लेकिन गैरसमझौताशील होती रही। गांधी विचारों के साथ उन्होंने आइन्स्टाइन के वैज्ञानिक चिन्तन और जर्मन नवस्वच्छन्दतावाद को मिलाकर अमलगम भी बनाया था। उनके चिंतन की बेचैनी में पूरे संसार की प्रतिनिधि दार्शनिक चेतना को आंतरिक करने की कोशिश होती थी। बूर्जुआ बुद्धिवादियों को लोहिया का ‘यूटोपिया‘ अव्यावहारिक तथा स्वयम्भू प्रगतिशील वामपंथी विचारकों को अतिआदर्शवादी प्रतीत होता रहा है। अधकचरे, फैशनेबिल, किताबी समाजवादियों की भीड़ से हटकर लोहिया आजीवन समाजवादी सम्भावनाओं की ताकतों के अंतरिक्ष में मनुष्य हितों के एकीकरण के लिए काम करते रहे। आदर्श जनअभिमुखी शासन की स्थापना के लिये ‘चौखम्भा राज्य‘ की उनकी मौलिक परिकल्पना थी।
लोहिया और गांधी के वैचारिक रिश्ते के मायने
राममनोहर का जन्म 23 मार्च 1910को हुआ था और 1919 में जब वह नौ साल के थे, तभी हीरालाल जी उन्हें पहली बार गांधी जी के पास ले गये थे, गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका से भारत आये तब केवल पांच वर्ष ही हुए थे। मां थी नहीं, पिता गांधी जी के खेलों में शामिल होकर असहयोगी बन गये थे, अतः लोेहिया किशोरावस्था में सर्वथा स्वतंत्र रहे, छात्रावासों में रहकर पढ़ाई करते रहे। जन्म स्थान अकबरपुर (फैज़ाबाद उ.प्र.) में प्राथमिक शिक्षा के बाद लोहिया ने बंबई, बनारस और कलकत्ता में पढ़ाई की। इस बीच पिता के साथ वह दो बार कांग्रेस के अधिवेशनों में भी हो आये थे।
मौलिकता के प्रति लोहिया का आग्रह और चिंतन मूलतः आज़ाद होते भारत में औसत नागरिक का देश के साथ तादात्म्य खोजने की कशिश के कारण था। यही कारण है जयप्रकाश नारायण की तरह लोहिया गांधी जी की ओर आकर्षित हुए। इसके बरक्स उनमें कम्युनिस्टों और किताबी गालबजाऊ समाजवादियों से एक तरह का अलगाव बढ़ता गया। उनकी अवधारणाओं से अलग हटकर लोहिया ने नए किस्म के मैदानी प्रयोग भारत की सामाजिक और सड़क आन्दोलनों की संरचना को लेकर किए थे। यही कारण है बाद के वर्षों में सभी प्रमुख उद्योगों के राष्ट्रीयकरण की मांग को तरजीह नहीं देते लोहिया ने एक नया वैचारिक मोड़ देते मांग की जिसका नाम था ‘‘दाम बांधो।‘‘ प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन के दाम से ज्यादा से ज्यादा डेढ़ गुना दरों पर वस्तु उपभोक्ता के रूप में पाने का अधिकार होना चाहिए। लोहिया ने इसी दलील के भी चलते इतिहास प्रसिद्ध अपना भाषण लोकसभा में दिया था। जब उन्होंने कहा था कि 27 करोड़ भारतीयों की औसत दैनिक आमदनी केवल 3 आना है। पूरे का पूरा सरकारी सरंजाम सकते में आ गया था।
जवाहरलाल नेहरू ने भी बहुत कोशिश की होगी लेकिन प्रधानमंत्री की उंगलियां इस विवाद में उलझने के कारण जल सकती थीं। उन्होंने इस विवाद में पड़कर इसे आगे तूल देना मुनासिब नहीं समझा। लोहिया ने आश्वस्त होकर समझ लिया था कि राष्ट्रीयकरण कर दिए जाने से भी देश के सभी प्राकृतिक स्त्रोतों पर तिकड़मबाज अंगरेजियत हांकते ‘एलीट‘ क्लास का ही कब्जा हो जाएगा। उससे आम लोगों का कोई भला नहीं हो सकेगा।
लोहिया गांधी नहीं थे। वे किसी की अनुकृति हो भी नहीं सकते थे। उन्होंने लिखा भी था- ‘मैं मानता हूं कि गांधीवादी या मार्क्सवादी होना हास्यास्पद है और उतना ही हास्यास्पद है गांधी-विरोधी, या मार्क्स-विरोधी होना। गांधी और मार्क्स के पास सीखने के लिये बहुमूल्य धरोहर है, किन्तु सीखा तभी जा सकता है जब सीख का ढांचा किसी एक युग, एक व्यक्ति से नहीं पनपा हो।‘ (गणेश मंत्री)
लोहिया के अनुयायी और जीवनीकार ओमप्रक दीपक के अनुसार लोहिया जर्मनी में ही थे तो गांधी जी का प्रसिद्ध दांडी मार्च हुआ। फिर धरसाना का ऐतिहासिक नमक सत्याग्रह जिसमें बेहोश हो जाने तक बिना पीछे कदम हटाये मार खाने वालों में लोहिया के पिता हीरालाल जी भी थे। सारे देश में असंतोष की लहरें उठ रही थीं उन्हीं दिनों जेनेवा में राष्ट्र संघ (लीग ऑफ नेशन्स) की बैठक हुई तो लोहिया भी वहां पहुंचे, और जब भारतीय प्रतिनिधि के रूप में बीकानेर के माहराजा गंगा सिंह बोलने को खड़े हुए तो लोहिया ने दर्शक दीर्घा से जोर की सीटी बजायी और व्यंग्य भरी आवाजें कसीं। कुछ देर भवन में हलचल हुई।फिर पहरेदारों ने लोहिया को वहां से हटा दिया, लेकिन उस घटना के बहाने हिंदुस्तान की आज़ादी का सवाल एक बार फिर यूरोप के अखबारों में उठा।
अंगरेजी में लिखे अपने एक महत्वपूर्ण लेख में लोहिया के निकटतम सहयोगी रहे मधु लिमये ने संक्षेप में लोहिया और गांधी के वैचारिक रिश्ते के शुरूआती लक्षणों को लेकर लिखा हैः Dr. Rammanohar Lohia’s contribution to the socialism movement was outstanding. He was the first socialist thinker in India who refused to have his mental horizon limited or dominated by the ideas drawn from the West or the Soviet Union. He took into account the special condition prevailing in the two-thirds of the retarded regions of the world, and especially, India and sought to work out his ideas in consonance with these conditions. Although profounding influenced by Gandhiji’s ideals, he was no slavish follower of Mahatma Gandhi. He was a great votary of the principle of decentralization in all the aspects, but he was sensible enough to say that the solution of India’s problems cannot be acheieved at the technological level of Charkha. He was in favour of an innovative technology involving application of power and small machines which would avoid the pitfalls of centralized prohibition such as concentrarion of wealth, pollution, unemployment, income disparities and so on, and, at the same time, lower costs and raise the productivity and income of ordinary workers, whether working in the fields or in small, family workshops.
अपने सैद्धांतिक एका और कभी कभी मतभेद या अलग।अलग समझ की लाक्षणिकताओं और संदर्भों के बावजूद लोहिया महात्मा गांधी के बहुत अधिक विश्वास पात्रों में थे। उनका रिश्ता बेहद आत्मीय था। उस स्फुरण में लोहिया ने खुद लिखा है ”गांधी जी के सामने कितनी आज़ादी से बात कही जा सकती थी। कोई संकोच नहीं, किसी व्यक्ति का डर नहीं, पूरी आज़ादी। मैं ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जानता जिसका इस विषय में भिन्न अनुभव हो। किसी और से बातें करने में मैं सतर्कतापूर्वक शिष्ट बना रहता था, परंतु गांधी जी से बातें करते समय मैं लापरवाह हो जाता था, क्योंकि वे मेरे भीतर जो कुछ रहता था उसे उगलवा लेते थे, यहां तक कि तीखी और स्पष्ट भाषा थी। यही मेरी उपलब्धि थी, चाहे अच्छी या बुरी। मेरा ऐसा व्यवहार हर दशा में भयरहित होता, क्योंकि वे भारत के संतरी थे और हमारी हरकत पर नज़र रखते थे। काश कि हर राष्ट्र में एक ऐसा ही संतरी होता, निश्चय ही उस योग्यता का नहीं, क्योंकि ऐसा पुरुष तो कई शताब्दियों में एक होता है, लेकिन एक ऐसा संतरी जिसे सभी आदर दें ताकि वह अपने लोगों के कामों में अंकुश बन सके।”
(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं। छत्तीसगढ़ के महाधिवक्ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
Add comment