– डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
द्वितीर्थी या द्विमूर्तिका से आशय है एक ही शिलाफलक में दो समान आकर की मूर्तियाँ। सबसे सुन्दर द्विमूर्तिका तीर्थंकर प्रतिमा खण्डगिरि की गुफा से मिली है और संप्रति लन्दन (९९) में सुरक्षित है। जिनों की पीठिका पर ऋषभ और सिंह लांछन उत्कीर्ण है। इस प्रकार यह ऋषभ और महावीर की द्वितीर्थी मूर्ति है। ऋषभ जटामुकुट से शोभित है पर महावीर के केशों की रचना गुच्छकों (कुंचित केश) के रूप प्रदर्शित है। खजुराहो और देवगढ़ में भी कुछ द्वितीर्थी प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। शिवपुरी संग्रहालय में एक द्वितीर्थी प्रतिमा प्रदर्शित है। रायपुर म्यूजियम में एक द्वितीर्थी प्रतिमा प्रदर्शित है जो जो तीर्थंकर अजितनाथ और संभवनाथ की प्रतिमाएँ हैं। एक द्वितीर्थी प्रतिमा प्रिंस ऑफ बेल्स संग्रहालय में संरक्षित है, जिसमें एक प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ और द्वितीय चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की प्रतिमा है। ऐसीं द्वितीर्थी जिन मूर्तियों के किसी प्रकार के उल्लेख प्रतिमाशास्त्रों में मूर्तिनिर्माण संबंधी जैन ग्रन्थों में नहीं मिले हैं। इन मूर्तियों का निर्माण नवी से बारहवीं शती ई. के मध्य हुआ माना जाता है। तीन द्विमूर्तिका प्रतिमाएँ गन्धर्वपुरी (देवास) म. प्र. के स्थानीय राजकीय संग्रहालय में संग्रहीत है। ये प्रतिमाएँ अन्यत्र से भिन्न व अनूठी हैं।
प्रथम द्विमूर्तिका प्रतिमा-
दो तीर्थंकर प्रतिमाएँ एक बलुआ पत्थर के शिलाखण्ड में निर्मित हैं। ये समपादासन में कायोत्सर्गासनस्थ हैं। पूर्ण पादपीठ अदृष्ट होने से लांछन या शासनदेव-देवी की जानकारी नहीं हो पाती है, इस कारण ये किन तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं, यह निर्णीत नहीं हो पाता है। दोनों प्रतिमाओं के अलग-अलग चॅवरवाहक हैं। एक प्रतिमा के चॅवरी के चॅवर ढुराने वाले हाथ ऊपर की ओर हैं तो दूसरी प्रतिमा के चॅवरवाहकों ने चॅवर ढुराते हुए हाथों को वक्ष के पास किया हुआ है। इन तीर्थंकर प्रतिमाओं की हथेलियों पर चक्र उत्कीर्णित हैं। पाषाण क्षरित हो जाने से श्रीवत्स चिह्न के मात्र निशान रह गये हैं। कुंचित केश, उष्णीस और प्रभावल दोनों के समान हैं। इसका वितान महत्वपूर्ण था जो खण्डित हो गया है। किन्तु शीर्ष पर एक पद्मासन लघुजिन और उनके दोनों ओर एक-एक कायोत्सर्ग लघु जिन मूर्तियां दृष्ट हैं।
द्वितीय द्विमूर्तिका प्रतिमा-
यह द्विमूर्तिका भी सपरिकर है। घुटनों से नीचे का भाग खण्डित और अप्राप्त होने पर भी मध्य, और ऊर्ध्व भाग का परिकर देखा जा सकता है। इस द्विमूर्तिका के तीर्थंकरों के बाह्य भाग के किनारों पर तीन-तीन पद्मासनस्थ लघुजिन प्रतिमायें उत्कीर्णित हैं। भग्न भाग में लघु जिन प्रतिमाएं कितनी रहीं होंगी, कहा नहीं जा सकता। चॅवरधारी, माल्यवाहक-युगल, प्रभावल, उष्णीष, छत्रत्रय, मृदंगवादक देव और छत्रत्रय के दोनों ओर गजलक्ष्मी के हाथी दर्शाये गये हैं। ये परिकर दोनों प्रतिमाओं के अलग-अलग हैं। इनमें यह विशेषता है कि दोनों के केश कुण्डल्याकार में स्कंधों पर लटकते हुए दर्शाये गये हैं। प्रायः ऋषभनाथ की प्रतिमाओं में स्कंधों पर केश-लटिकाएँ दर्शाने की परम्परा रही है, किन्तु अन्य तीर्थंकरों के स्कंधों पर केश-लटें दर्शाये जाने के भी अनेकों उदाहरण हैं। इसलिए इन्हें केवल स्कंधावलम्बित केश-लटिकाओं के आधार पर ऋषभदेव की प्रतिमाएं घोषित नहीं किया जा सकता। सम्भावना यह है कि दोनों प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की होंगी।
तृतीय द्विमूर्तिका प्रतिमा-
यह द्विमूर्तिका संभवतः लाने में खण्डित हो गई होगी, क्योंकि इसके अन्य खण्डित स्थानों की अपेक्षा शिला के दो भागों में टूटने के निशान अपेक्षाकृत नवीन हैं। गंधर्वपुरी के स्थानीय राजकीय संग्रहालय में इसके दोनों भाग पास-पास में रखे गये हैं। चित्र में हमने दनों भागों को मिलाकर एक दर्शाया है। इस द्विमूर्तिका का सबसे ऊपर का शिलाखण्ड खण्डित और अप्राप्त है। इस द्विमूर्तिका में भी चॅवरधारी, माल्यवाहक, छत्रत्रय, मृदंगवादक एकल – एकल देव और छत्रत्रय के दोनों ओर गजलक्ष्मी के गज सामान्य रूप से उत्कीर्णित हैं। इसमें विशेषता है कि दोनों प्रतिमाओं के किनारे की ओर के हाथ की कुहनी की बराबरी पर एक एक अंजलिबद्ध आराधक है और दोनों मुख्य प्रतिमाओं के मध्य एक कायोत्सर्ग लघु जिन उत्कीर्णित हैं।
गंधर्वपुरी की उपरोक्त तीनों द्वितीर्थी मूर्तियों में दो समान बड़ी मूर्तियों के अतिरिक्त कोई समानता नहीं है। प्रथम में वितान में तीन या अधिक लघु जिन उत्कीर्णित हैं। द्वितीय में बाह्य पार्श्व में तीन-तीन या अधिक लघु जिन आमूर्तित हैं और तृतीय द्वितीर्थी में दोनों के मध्य एक लघुजिन उर्त्कीिर्णत किये गये हैं। अष्टप्रातिहार्यों का यथासक्य सभी में समावेश किया गया है।
इस तरह गंधर्वपुरी की तीनों द्विमूर्तिका प्रतिमाएँ भिन्न-भिन्न व अनूठी हैं। ये बलुआ पाषाण में निर्मित हैं। इनका समय 12वीं – 13वीं शती ईस्वी अनुमानित किया गया है।
डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
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