श्रीमती रेखा शर्मा,
लगभग एक दशक से आम नागरिकों के एक बड़े वर्ग के भीतर यह भावना बनी हुई है कि देश में तानाशाही की प्रवृत्ति बढ़ रही है और ऐसे में एक मजबूत और निष्पक्ष न्यायपालिका की जरूरत है। जब भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने अपना पदभार संभाला, तो लोगों ने उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जो इस सड़ांध को रोकने और ज्वार को मोड़ देने में सक्षम साबित हो सकता है। लेकिन उनका यह पूर्वानुमान गलत साबित हुआ।
हालाँकि यह भविष्यवाणी कर पाना अभी कठिन है कि भावी पीढ़ी उनके बारे में कैसा आकलन करती है, लेकिन बहुत कुछ ऐसा किया है जिसमें अभी भी सुधार की गुंजाइश है। निश्चित रूप से, वे सुप्रीम कोर्ट में लोगों का विश्वास बहाल करने के लिए और ज्यादा काम कर सकते थे। हजारों की संख्या में लोग बगैर जमानत और सुनवाई के देश की जेलों में सड़ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट में भी कई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं और जमानत याचिकाएं लंबित हैं। उमर खालिद की जमानत याचिका व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति अदालतों की उदासीनता का प्रतीक बन चुकी है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने अर्नब गोस्वामी को जमानत देते हुए कहा था कि “अगर यह अदालत आज हस्तक्षेप नहीं करती है, तो हम व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विनाश के रास्ते पर चल रहे हैं”। क्या ये शब्द केवल कुछ चुनिंदा लोगों के लिए आरक्षित थे? उन्होंने यह भी कहा था कि उन्होंने अर्नब से लेकर जुबैर तक को जमानत दी है। उनके प्रति अत्यंत सम्मान के साथ इस बात की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगी कि, देश में ऐसे कई अर्नब और जुबैर हैं जो इसी तरह की राहत पाने की बाट जोह रहे हैं। क्या उन्हें अपनी टिप्पणियों के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए समर्पित पीठों का गठन नहीं करना चाहिए था, भले ही इसके लिए संविधान पीठों की स्थापना का काम पीछे रह जाता?
जस्टिस चंद्रचूड़ को एक ऐसे मुख्य न्यायाधीश के तौर पर याद किया जाएगा, जिन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद मामले में वाराणसी के जिला न्यायाधीश के आदेश को बरकरार रखते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाई थी, जिसमें पहले से मौजूद हिंदू मंदिर के बारे में दावों की सत्यता का पता लगाने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा मस्जिद परिसर का वैज्ञानिक सर्वेक्षण करने की अनुमति प्रदान की गई थी।
इस आदेश को पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 के बावजूद पारित किया गया था, जिसका मकसद सद्भाव को बनाये रखने की खातिर ऐसे सभी दावों को शांत करना था। क्या यह आदेश कुछ अन्य हिंदू संगठनों को बाकी के मस्जिदों पर भी इसी तरह के दावे करने के लिए प्रोत्साहित नहीं करेगा, और इस प्रकार सांप्रदायिक सद्भाव के लिए खतरा उत्पन्न नहीं होगा?
महाराष्ट्र विधानसभा मामले पर विचार करें तो यहां पर उनकी ओर से एकनाथ शिंदे को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के लिए तत्कालीन राज्यपाल की कड़ी आलोचना की गई थी, लेकिन वहीं जब उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री के रूप में फिर से स्थापित करने की बात आई, तो उन्होंने इस आधार पर राहत देने से इंकार कर दिया कि उन्होंने फ्लोर टेस्ट का सामना करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था। क्या उन्हें छल-कपट और चालाकी से अस्तित्व में आई सरकार को बने रहने देना चाहिए था?
चंडीगढ़ मेयर चुनाव मामले में, रिटर्निंग ऑफिसर को मतपत्रों में हेराफेरी करते हुए कैमरे पर पकड़ा गया था। सीजेआई चंद्रचूड़ ने इसे लोकतंत्र की हत्या कहा, लेकिन इसके बावजूद सीआरपीसी की धारा 340 के तहत उसके खिलाफ सिर्फ जांच का आदेश देकर छोड़ दिया।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम मामले में, जहां एक तरफ इस योजना को असंवैधानिक करार दिया गया था, वहीं दूसरी ओर कॉर्पोरेट और राजनेताओं के बीच लेन-देन के आरोपों की जांच करने के लिए एसआईटी का गठन तक नहीं किया गया। यही नहीं, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अदालत से एक आंशिक तौर पर चल रही सुनवाई वाले मामले को अचानक से उनकी सेवानिवृत्ति की पूर्व संध्या पर वापस क्यों ले लिया गया? यह रहस्यपूर्ण खामोशी अपने आप में बहुत कुछ कहती है।
प्रधानमंत्री के द्वारा गणपति पूजा के लिए पूर्व सीजेआई के घर पर जाने के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है। उनके द्वारा इसे न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सामाजिक स्तर पर जारी बैठकों का एक हिस्सा बताकर इस यात्रा को उचित ठहराने की कोशिश की गई। कथित तौर पर उनकी ओर से कहा गया: “इस तरह से सौदे नहीं किए जाते”।
लेकिन यह सारी बातें औपचारिक शिष्टाचार के बारे में थीं। यह प्रचलित मान्यता में शामिल है कि न्यायाधीशों को राजनीतिक वर्ग से एक हद तक दूरी बनाए रखनी चाहिए – क्योंकि न्यायाधीश सार्वजनिक भरोसे वाले पद पर होते हैं, और पूर्व में लिए गये फैसले अक्सर बाद के दौर में जांच के दायरे में आते हैं। दो लोगों के बीच की कोई भी निजी बातचीत न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को हिला कर रख सकती है। लेकिन पूर्व सीजेआई को ऐसी बैठकों में कुछ भी गलत नहीं लगा। इस प्रकार न्यायाधीशों ने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे एस वर्मा के नेतृत्व में स्वेच्छा से अपने लिए जो आचार संहिता अपनाई थी, उसे कचरे में डाल दिया गया है।
और आखिर में, उनकी ओर से यह रहस्योद्घाटन कि उन्होंने अपने ईष्टदेव से मार्गदर्शन हासिल करने के बाद अयोध्या का फैसला लिखा, यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि: देश के संविधान और कानूनों का क्या होगा?
अलविदा, मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़।
(यह लेख आज के इंडियन एक्सप्रेस से साभार हिंदी अनुवाद किया गया है, जिसकी लेखिका श्रीमती रेखा शर्मा, दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश रह चुकी हैं।)
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