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शैक्षणिक कुपोषण: देश के टॉप 100 कॉलेजों में हिंदी पट्टी के राज्यों का एक भी कॉलेज शामिल नहीं

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हेमन्त कुमार झा,

एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

पिछले महीने कोई रिपोर्ट आई थी जिसमें बताया गया था कि भारत देश के टॉप 100 कॉलेजों में हिंदी पट्टी के राज्यों का एक भी कॉलेज शामिल नहीं है. कल एक दूसरी रिपोर्ट में बताया जा रहा था कि राम मंदिर को लेकर भाजपा की जो भी राजनीतिक शोशेबाजियां हैं, उनका सबसे अधिक असर हिंदी पट्टी में ही देखा जा रहा है.

हाल में आई एक तीसरी रिपोर्ट बताती है कि युनिवर्सिटी और कॉलेजों के परिसरों में जितनी गुंडई और जितनी अराजकता हिंदी पट्टी में है, उसका देश के किसी भी अन्य क्षेत्र से कोई मुकाबला नहीं है. अच्छे कॉलेजों और सोच विचार करने की अच्छी क्षमता के बीच जो संबंध है वह इन तीन अलग-अलग रिपोर्ट्स के विश्लेषण से पता चल सकता है.

हिन्दी पट्टी, जिसे बहुत सारे विश्लेषक किसी हिकारत की भावना से या किसी निराशा की भावना से गोबर पट्टी भी कहा करते हैं, कभी अपने शानदार शैक्षणिक संस्थानों के लिए जाना जाता था, आज वे किस खस्ताहाल में हैं यह बताने की भी जरूरत नहीं रह गई है. सब जानते हैं, सब मानते हैं कि इनमें अपने बच्चों को पढ़ाना उनका करियर बर्बाद करना है. साधन संपन्न और चतुर लोग अपने बच्चों को दिल्ली भेजते हैं, जिस अकेले महानगर के 31 कॉलेज देश के टॉप 100 कॉलेजों में शामिल हैं.

अपने बच्चों को यहां न पढ़ा कर दिल्ली और हैदराबाद आदि जगहों पर भेजने वालों में ऐसे लोग सबसे आगे हैं जो हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों में ऊंचे और प्रभावी पदों पर हैं और किसी दीमक की तरह उसे कुतर कुतर कर बर्बाद कर रहे हैं. बिहार तो इसमें सबसे आगे है. यहां जिनकी थोड़ी भी आर्थिक हैसियत है, जिनके बच्चे की पढ़ाई-लिखाई का स्तर सामान्य से थोड़ा भी बेहतर है, उच्च शिक्षा के लिए वे सीधा बाहर का रुख ही करते हैं.

जितना स्वच्छंद, जितना निर्बाध, जितना निर्लज्ज भ्रष्टाचार इधर के विश्वविद्यालयों में है उसका देश तो क्या, दुनिया में शायद ही कोई सानी हो. पता नहीं, बुरुंडी, कांगो, नाइजर या ग्वाटेमाला आदि निर्धन और अल्पविकसित देशों के विश्वविद्यालयों का क्या हाल होगा ! लेकिन इतना तो यकीन के साथ कह ही सकते हैं कि प्रशासनिक मनमानियों और भ्रष्टाचार में जितने निडर और जितने इनोवेटिव हमारे विश्वविद्यालयों के शीर्ष पर काबिज लोग हैं, उनका कोई मुकाबला नहीं.

हालांकि, किसी समारोह में, किसी सेमिनार आदि में इन शीर्ष अधिकारियों के व्याख्यान सुनें तो अलग तरह का ही प्यार उमड़ता है, अलग तरह की ही श्रद्धा जगती है…’राज्य को शिक्षा की ऊंचाइयों पर ले जाना है, नालंदा, विक्रमशिला आदि के गौरव को पुनः प्राप्त करना है, नए दौर की नई चुनौतियों के अनुकूल अपनी शिक्षा प्रणाली को ढालना है आदि आदि.’

लेकिन, इक्के दुक्के अपवादों को छोड़ हमारे संस्थान हर वर्ष बड़ी मात्रा में शैक्षणिक रूप से कुपोषित प्रोडक्ट ही उगलते हैं. बीमार और संस्कारहीन तंत्र कुपोषित प्रोडक्ट ही तो पैदा करेगा.

तभी तो, लिटरेचर और सोशल साइंस ही नहीं, हमारे साइंस ग्रेजुएट भी बड़ी संख्या में कांवड़ यात्राओं में शामिल होते हैं, उनमें से बहुत सारे तो यात्रा के दौरान बाबा भोलेनाथ के नाम पर खूब नशा भी करते हैं और हुडदंग मचाते हुए धर्म की ध्वजा को उठाए रखने का दंभ पालते हैं.

वैसे, आजकल इन युवाओं में से अधिकतर का एक प्रिय नारा है – ‘जय श्रीराम.’ जब माथे पर भगवा पट्टी बांधे, हाथों में सोंटा या अति क्रुद्ध हनुमान जी की फोटो वाला झंडा लिए, एक एक बाइक पर तीन तीन की संख्या में बैठ कर तेज गति से जाते, जय श्रीराम के जोरदार उदघोष से आसपास के माहौल को प्रकंपित करते युवाओं का समूह गुजरता है तो महसूस होता है कि क्या शानदार उदाहरण है सांस्कृतिक पुनर्जागरण का !

इधर एक तबका, जो अपनी तरह से और बिलकुल अलग तरह से शैक्षणिक कुपोषण का शिकार है, ‘जय भीम’ आदि टाइप के नारों के साथ अलग ही समां बांधता दिखता है. उनके भाषणों को सुनिए, लगेगा जैसे बस अब दुनिया बदलने ही वाली है.

छुटभैये नेताओं के अगल बगल घूमने वाले नाकारा किस्म के युवाओं की जमात जब जमाना बदलने की बातें करती है तो हिंदी पट्टी की क्रांतिकारी जमीन की तासीर पता चलती है.

क्या शिक्षा का तंत्र ऐसे चलता है ? क्या शासन, प्रशासन, राजनीति और समाज अपने विश्वविद्यालयों की दुर्दशा से इस कदर आंखें फेरे रह सकते हैं, जहां अच्छे लोग दिन काटते हुए अपनी नौकरी करने और बचाने में लगे हों. जहां निरंतर अधिकारों का हनन और कानूनों की ऐसी की तैसी होती हो, जहां गलत और अवैध लोगों के हाथों में सूत्रों का संचालन हो वहां शिक्षा का स्तर ऊंचा उठ ही नहीं सकता. देश के शीर्ष अच्छे कॉलेजों में शामिल होने की बात तो छोड़ ही दें, एक कॉलेज के रूप में अपनी सार्थकता भी कैसे पा सकता है कोई संस्थान ?

लेकिन, हिंदी पट्टी का आधा अधूरा सच यही है. हमें यूं ही गोबरपट्टी के अभिशप्त निवासी नहीं कहा जाता। हम अपने संस्थानों का सत्यानाश होते जाने के साक्षी हैं जो हर साल कुपोषितों की जमात उगलते जा रहे हैं.

यह तो तय है कि समय बदलेगा. हमेशा अंधेरों का ही साम्राज्य नहीं रहता. लेकिन, वह समय कब आएगा, तब तक कितनी पीढ़ियां प्रभावित होती रहेंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता.

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