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बीमार उत्तर प्रदेश : स्वास्थ्य के बजाए सांप्रदायिक एवं भावनात्मक मुद्दों पर गोलबंदी के प्रयास

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उत्तर प्रदेश अभी भी बीमारू की श्रेणी में है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि प्रदेश स्वास्थ्य के तमाम मानदंडों पर अभी भी बीमार है। वहीं राजनीतिक बहसें स्वास्थ्य के बजाए सांप्रदायिक एवं भावनात्मक मुद्दों पर केंद्रित हैं। यही प्रदेश का दुर्भाग्य है। बता रहे हैं आतिफ रब्बानी

देश में सर्वाधिक जनसंख्या वाला सूबा उत्तर प्रदेश चुनावी रणक्षेत्र बना हुआ है। करीब 24 करोड़ की आबादी वाला यह सूबा अगर अलग देश होता, तो दुनिया का पांचवां सबसे बड़ी आबादी वाला देश होता। यहां विधानसभा की भी सर्वाधिक 403 सीटें हैं। चुनावी नैतिकता को धता बताते हुए धर्मऔर संप्रदाय के आधार पर मतदाताओं की गोलबंदी के प्रयास किये जा रहे हैं।

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इन सबके बीच, सबसे महत्वपूर्ण स्वास्थ्य का मुद्दा सभी चुनावी बहसों में सिरे से गायब है। वह भी तब, जब पिछले दो वर्षों से देश कोविड की महामारी से भी जूझ रहा हो। और प्रदेश को इस महामारी की विभीषिका का सामना करना पड़ा हो और गंगा में लाशों का खौफनाक मंजर सारी दुनिया ने देखा हो। वैसे भी भारतीय राजनीति की यह शाश्वत समस्या है कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे कभी भी चुनावी राजनीति का सरोकार नहीं बनते।

अस्सी के दशक में, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री व जनसांख्यिकीविद् आशीष बोस ने हिंदी पट्टी के तमाम प्रदेशों को ‘बीमारू’ सूबों की संज्ञा दी थी।[1] बीमारू से आशय है – भारत के बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के सूबे। ये वे प्रदेश थे जो कई वर्षों से विकास की दौड़ में लगातार पीछे हो रहे थे। आय, स्वास्थ्य और अन्य सामाजिक सूचकों पर इन प्रदेशों का खराब प्रदर्शन था।

इन बीमारू राज्यों में उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जो, विकास के कई सूचकों के आधार पर, आज भी सचमुच बीमार है। स्वास्थ्य संबंधित नवीनतम आंकड़े तो यही हालात दिखाते हैं।

हाल ही में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) की रिपोर्ट जारी की गई है। स्वास्थ्य एवं पोषण के विभिन्न संकेतकों में प्रदेश का प्रदर्शन उत्साहवर्धक नहीं है। कई आंकड़े तो काफी निराशाजनक स्थिति को दर्शाते हैं। ऐसी स्थिति दिखलाते हैं कि हम मध्य-अफ्रीकी देश रवांडा से भी पीछे हैं।

गौर तलब है कि आईएमआर यानी शिशु मृत्यु दर को अर्थशास्त्री ‘फ़्लैश इंडिकेटर’ का नाम देते हैं।[2] शिशु मृत्यु दर अपने निकटस्थ, मध्यवर्ती और दूरस्थ – तीन कारकों पर निर्भर होती है। संक्रमण, बीमारी आदि निकटस्थ श्रेणी के कारक हैं। मध्यवर्ती में शुद्ध पेयजल व साफ सफाई आदि आते हैं। और सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शिक्षा आदि दूरस्थ कारक हैं।[3] इस संकेतक में कई कारकों का समावेशन है। अस्तु, महज़ इस एक संकेतक, आईएमआर, से ही विकास का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अधिक आईएमआर का मतलब होगा स्वास्थ्य, शिक्षा, उपभोग सहित तमाम आर्थिक-सामाजिक हालात भी ख़राब स्थिति में हैं।

एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में आईएमआर 50 है। शहरी क्षेत्र के लिए यह दर 42 और ग्रामीण के लिए 53 है। मतलब प्रदेश में जन्म लेने वाले प्रति 1000 बच्चों में 50 बच्चे अपनी पहली वर्ष गांठ देखने से पहले ही काल का ग्रास बन जाते हैं। आईएमआर का राष्ट्रीय औसत 35 है।[4] प्रदेश का प्रदर्शन इस राष्ट्रीय औसत से भी बहुत पीछे है।

ध्यान रहे, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (एनएचपी)-2017 के अनुसार 2025 तक, आईएमआर को 23 पर लाने का लक्ष्य रखा गया है।[5] इस लक्ष्य को पाने में उत्तर प्रदेश पूरी तरह नाकाम दिख रहा है। स्वास्थ्य के इस सूचक के आधार पर हम तीसरी दुनिया के इन देशों – हैती (47) और यमन (46) के साथ खड़े नज़र आते हैं। जबकि रवांडा (30) से काफी पीछे।[6]

अगर पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर देखी जाए तो यह दर भी राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक है। प्रदेश में यह दर 60 है जबकि देश में 42 है। ज्ञातव्य है एनएचपी में वर्ष 2025 तक पांच वर्ष से कम की उम्र के बच्चों की मृत्यु दर को 23 प्रति हजार जीवित जन्म पर लाने का लक्ष्य है। यहां भी प्रदेश फिसड्डी साबित हो रहा है।

जानना दिलचस्प होगा कि जम्मू-कश्मीर स्वास्थ्य के इस पैमाने पर उत्तर प्रदेश से कहीं बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। वहां यह दर 9.8 है। यानी उत्तर प्रदेश में पांच साल से कम उम्र के प्रति हज़ार बच्चों पर 60 बच्चे मौत के मुंह में समा जाते है जबकि जम्मू कश्मीर के महज़ 10 बच्चे! स्वास्थ्य के इस सूचक में भी उत्तर प्रदेश का साथ यमन (59) के साथ है, वहीं रवांडा (34) से भी बदतर स्थिति में हैं।

एनएफएचएस-5 के बाल पोषण संकेतक तो और भी निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। प्रदेश के पांच वर्ष से कम उम्र के 40 फीसदी बच्चे स्टंटिंग का शिकार हैं। वहीं 6-59 महीने की उम्र के 66.4 प्रतिशत बच्चे एनीमिया (खून की कमी) की गिरफ्त में हैं। एनीमिया के लिए यह आंकड़ा एनएफएचएस-4 के 63.4 प्रतिशत से भी बदतर हो गया है।

एनएफएचएस-5 के अनुसार, उत्तर प्रदेश में की हर दूसरी महिला रक्ताल्पता (एनीमिया) से ग्रसित है। प्रजनन आयु-वर्ग (15-49 वर्ष) की 50.4 प्रतिशत महिलाओं में रक्ताल्पता की समस्या है। जबकि इस आयु-वर्ग की महिलाओं में रक्ताल्पता का राष्ट्रीय औसत 57 प्रतिशत है। 2019 में विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार रवांडा की प्रजनन आयु-वर्ग की 23.5 प्रतिशत महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रस्तित थीं। स्वास्थ्य के इस सूचक में प्रदेश पीछे है।

लैंसेट में प्रकाशित जाह्नवी दरू के शोध के अनुसार सामान्य महिलाओं के मुकाबले रक्ताल्पता से ग्रसित महिला की प्रसव के दौरान मृत्यु होने की आशंका दो गुनी होती है।[7] देश में मातृत्व मृत्यु के लगभग आधे मामले इसी से जुड़े होते हैं। शोध यह भी बताते हैं कि रक्ताल्पता से ग्रसित मां से जन्म लिए बच्चों में आईक्यू का स्तर पांच से दस प्रतिशत तक कम हो सकता है।

उत्तर प्रदेश ऐसा राज्य है जहां क्षयरोग या तपेदिक (टीबी) के सबसे अधिक मामले हैं। देश का हर पांचवा टीबी रोगी उत्तर प्रदेश का निवासी है।[8] राष्ट्रीय पुनरीक्षित तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीपीसी) के अनुसार 2018 में प्रदेश में टीबी के 4.2 लाख से अधिक मामलों का पता चला था। एमएचपी का लक्ष्य 2025 तक क्षयरोग का उन्मूलन करना भी है। ऐसी स्थिति में इस लक्ष्य की प्राप्ति भी दूर की कौड़ी लगती है।

उत्तर प्रदेश अभी भी बीमारू की श्रेणी में है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि प्रदेश स्वास्थ्य के तमाम मानदंडों पर अभी भी बीमार है। वहीं राजनीतिक बहसें स्वास्थ्य के बजाए सांप्रदायिक एवं भावनात्मक मुद्दों पर केंद्रित हैं। यही प्रदेश का दुर्भाग्य है।

संदर्भ :

[1] https://wap.business-standard.com/article/current-affairs/ashish-bose-the-man-who-coined-bimaru-tried-to-make-things-simple-114040701234_1.html

[2] https://jech.bmj.com/content/57/5/344

[3] https://www.who.int/bulletin/volumes/81/2/PHC0203.pdf

[4] http://rchiips.org/nfhs/factsheet_NFHS-5.shtml

[5] www.nhp.gov.in/nhpfiles/national_health_policy_2017.pdf

[6] https://data.unicef.org/country/hti/

[7] https://doi.org/10.1016/S2214-109X(18)30078-0

[8] https://tbcindia.gov.in/showfile.php?lid=3538

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