नवारुण प्रकाशन से हाल ही में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार हरजिंदर की किताब ‘चुनाव के छल -प्रपंच- मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार’ से लिया गया यह हिस्सा किताब के पांचवें अध्याय ‘फ़ेक न्यूज़ की राजनीति’ से लिया गया है। मौजूदा माहौल में यह किताब बहुत सारी दुविधाओं को सुलझाने का माध्यम बनती है।-संपादक)
यह बात 1967 की है, जब भारत अपनी चौथी लोकसभा को चुन रहा था। इस आम चुनाव में कांग्रेस ने लखनऊ से देश के सबसे बड़े शराब कारोबारी कर्नल वेद रत्तन मोहन को टिकट दिया था। वे देश की सबसे बड़ी शराब बनाने वाली कंपनी मोहन मीकिंस के चेयरमैन थे। राजनीति और कारोबार की दुनिया के वे काफी सम्मानित शख्स थे। उन्हें ओल्ड मॉन्क जैसी रम और गोल्डेन ईगल जैसी बियर के उस दौर के सबसे मशहूर ब्रांड शुरू करने का श्रेय भी दिया जाता है।
कर्नल वी.आर. मोहन की जीत तकरीबन पक्की मानी जा रही थी। वे लगातार दो बार से लखनऊ शहर के मेयर रह चुके थे और शहर की सबसे चर्चित शख्सियतों में थे। उद्योगपति होने के कारण यह भी माना जा रहा था कि उनके पास संसाधनों की भी कोई कमी नहीं है। शहर के बीचों-बीच से बहने वाली गोमती नदी का अगर आप डालीगंज पुल पार करें तो वहीं बाईं ओर उनकी एक बहुत बड़ी फैक्ट्री थी जहां से मोहन मीकिंस के उत्पाद पूरे देश में भेजे जाते थे।
एक और चीज यह भी थी कि लखनऊ की लोकसभा सीट कांग्रेस की परंपरागत सीट थी और हालांकि उस चुनाव में पहली बार कांग्रेस पूरे देश में थोड़ी कमजोर दिख रही थी लेकिन लखनऊ सीट पर उस हवा का असर नहीं था। उस चुनाव में एक और महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि लखनऊ लोकसभा सीट से 1957 और 1962 में लगातार दो चुनाव हारने वाले भारतीय जनसंघ के सबसे लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी इस बार वहां से चुनाव नहीं लड़ रहे थे। अपने लच्छेदार भाषणों से भारी भीड़ बटोरने वाले वाजपेयी का लखनऊ से चुनाव न लड़ना भी कांग्रेस को आश्वस्त कर रहा था। कर्नल मोहन के सामने एकमात्र मजबूत उम्मीदवार थे आनंद नारायण मुल्ला। वकील और विद्वान होने के साथ ही वे उर्दू शायर भी थे।
भले ही उनका नाम उतना चर्चित नहीं था जितना कि उनके प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस उम्मीदवार का था। लेकिन फिर भी वे जाना-पहचाना नाम थे। वे निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे थे और कांग्रेस की संगठनात्मक ताकत व कर्नल मोहन के निजी रुतबे के सामने कोई निर्दलीय उम्मीदवार टिक भी सकेगा, इसकी कोई उम्मीद नहीं थी। एक और चीज थी जो आनंद नारायण मुल्ला के खिलाफ जाती थी। लखनऊ से लगभग 25 किलोमीटर दूर काकोरी नाम के एक कस्बे के पास नौ अगस्त 1925 को एक ट्रेन डकैती हुई थी। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों ने इसे अंजाम दिया था।
ट्रेन में ले जाए जा रहे सरकारी खजाने को लूटने की योजना राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक़ उल्लाह खान ने बनाई थी और इस योजना को अंजाम देने में चंद्रशेखर आजाद और राजेंद्र लाहिड़ी जैसे कई क्रांतिकारियों ने भाग लिया था। क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए उनके संगठन को पैसे की जरूरत थी और इसी के लिए ट्रेन डकैती जैसे दुस्साहसी काम को करने का फैसला किया गया था। बाद में जब इस मामले में मुकदमा चला तो सरकार ने अपना वकील बनाया आनंद नारायण मुल्ला के पिता जगत नारायण मुल्ला को। इस केस में आनंद नारायण मुल्ला अपने पिता के असिस्टेंट थे और दोनों को सरकार की ओर से अच्छी खासी फीस मिली थी।
दिलचस्प बात यह है कि इस मामले में क्रांतिकारियों के वकील थे गोविंद वल्लभ पंत और चंद्रभानु गुप्त। ये दोनों ही बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। जब यह आम चुनाव हो रहा था तो उसके कुछ समय पहले तक ही चंद्रभानु गुप्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और चुनाव के कुछ सप्ताह बाद ही वे फिर से प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए। डर यह था कि काकोरी कांड को लेकर आनंद नारायण मुल्ला को चुनाव प्रचार के दौरान कटघरे में खड़ा किया जाएगा। लेकिन ऐन वक्त पर हवा बदल गई। प्रचार यह हुआ कि इस बार कांग्रेस ने लखनऊ से एक शराबी को टिकट दे दिया है।
फिर इस तरह की बातें भी उड़ाई गईं कि कर्नल वी.आर. मोहन जब प्रचार के लिए फलां मुहल्ले पहुंचे तो नशे में एकदम धुत थे। कांग्रेस ने अपना सारा जोर लगा दिया, सारे संसाधन झोंक दिए गए, देश भर के तमाम बड़े नेताओं के दौरे हुए, उस समय के हिसाब से पैसा भी खूब बहाया गया। लेकिन अफवाहों से जो नैरेटिव तैयार हुआ, कुछ भी फिर उसका जवाब नहीं दे सका। चुनाव का नतीजा आया तो आनंद नारायण मुल्ला बहुत आसानी से जीत गए। यह पहला चुनाव था जब लखनऊ लोकसभा सीट से कांग्रेस हारी और अगले चुनाव में कांग्रेस ने फिर से इस सीट को हासिल कर लिया।
लखनऊ का यह चुनाव इस बात का उदाहरण है कि जिसे हम आज फेक न्यूज़ कहते हैं वह कोई नई अवधारणा नहीं है। गंदी राजनीति हमेशा से ही अफवाहों और फेक न्यूज़ के जरिये चुनावों का खेल बिगाड़ती रही है। विरोधियों का चरित्र हनन तब भी होता था, उन पर कीचड़ उछालने का चलन तब भी था, तब भी चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक नैतिकता को दरकिनार कर दिया जाता था। लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक में यह सारी स्थितियां पहले के मुकाबले बहुत आगे चली गईं। अचानक ही हम एक ऐसे मोड़ पर पहुंच गए जहां इस गंदी राजनीति की मुलाकात पोस्ट ट्रुथ एरा यानी सत्योत्तर काल और मोबाइल तकनीक द्वारा उपलब्ध कराई गई चमात्कारिक रूप से तेज प्रसारण तकनीक से हुई।
इस मुलाकात ने राजनीति के स्वरूप को ही एकदम से बदल दिया। पहले अफवाहों, फेकन्यूज़ और चरित्र हनन की जो राजनीति स्थानीय स्तर पर छुटपुट ढंग से होती थी अब उसे बड़े पैमाने और राष्ट्रीय स्तर पर समन्वित और संगठित ढंग से किया जा सकता था। कानोकान फुसफुसाई जानी वाली बातों को अब हर घर में और हर व्यक्ति के पास पहुंचाया जा सकता था। अभी तक जो महज एक राजनीतिक बीमारी थी उसने अचानक एक महामारी का रूप ले लिया था। समाज भी जैसे इसके लिए तैयार था। हम एक ऐसे दौर में पहुंच चुके थे जहां तथ्यों से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भावनाएं हो चुकी थीं।
लोगों ने अपनी धारणाएं सच और यथार्थ के बजाए भावनात्मक अपील से बनानी शुरू कर दी थीं। उदारवादी लोकतांत्रिक राजनीति के मुहावरों से ऊब कर लोग उसके विकल्प तलाशने लगे थे। विभिन्न कारणों से लोकतंत्र की बहुत सी मूल संस्थाओं पर लोगों का भरोसा भी कम होने लगा था। इससे जो खालीपन बना उसने अनुदारवादी और पुनरुत्थानवादी ताकतों को पैर जमाने की जगह दे दी। ये ताकतें बरसों से समाज में जिस ध्रुवीकरण के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहीं थीं, अब उसकी जमीन तैयार हो चुकी थी।
व्यावसायिक मीडिया भले ही आर्थिक रूप से मुनाफा कमा रहा था, लेकिन उसकी साख भी खत्म होने लगी थी। आपको सोशल मीडिया में ऐसी बहुत सी पोस्ट मिल जाएंगी, जिनकी शुरुआत इस वाक्य से होती है- मेनस्ट्रीम मीडिया आपको यह नहीं बताएगा…। यह सिर्फ भारत में ही नहीं, कम या ज्यादा दुनिया भर में हुआ है। राजनीति में लगे नेताओं ने भी इस धारणा को बनाने में अपना पूरा योगदान दिया है। जब कोई खबर उनके अनुकूल नहीं होती तो उसे वे बड़ी आसानी से फेक न्यूज़ कह देते हैं। भले ही ये राजनीतिज्ञ अपना बचाव कर रहे होते हैं लेकिन इसी के साथ वे मुख्यधारा के मीडिया की लगातार घट रही साख में अपना योगदान भी दे देते हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो प्रसिद्ध टीवी चैनल सीएनएन को ही फेक न्यूज़ कह दिया था। दिलचस्प बात यह है कि जिन्हें हम आज फेक न्यूज़ कहते हैं उसका सबसे ज्यादा फायदा भी इन्हीं राजनीतिज्ञों ने उठाया है। पिछले कुछ समय में फेक न्यूज़ अलग-अलग तरह से और अलग-अलग स्वार्थ के हिसाब से इतना ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है कि इसका अर्थ ही खत्म होता जा रहा है। न्यूज़ और फेक न्यूज़ का फर्क बताना भी अक्सर मुश्किल हो जाता है। इसका जो असर हुआ उसे हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं।
पिछले कई दशकों से फुसफुसाहटों और किस्से कहानियों के जरिये यह बात लोगों के दिमाग में डालने की कोशिश होती रही है कि इंदिरा गांधी के पति फीरोज गांधी एक मुसलमान थे। लेकिन लंबे समय तक लोग ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते थे और बहुत आसानी से अफवाह मान कर हवा में उड़ा दिया जाता था। लेकिन पिछले तकरीबन डेढ़ दशक में इस पर यकीन करने वालों की तादाद कई गुना बढ़ चुकी है। अच्छे खासे पढ़े लिखे लोग आपको यही तर्क देते मिल जाएंगे। ऐसे लोग अक्सर ही टेलीविजन न्यूज़ चैनलों की डिबेट में भी बैठे दिखाई देंगे।
लोगों के दिमाग में कई ऐसी पूर्वधारणाएं गहराई तक बिठाई जा रही हैं, जिनका तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं है। भारत में फेक न्यूज़ का सिलसिला 2012 के आस-पास शुरू हुआ जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने तेजी से अपनी साख खोनी शुरू की। एक दूसरी धारणा यह कहती है कि उस सरकार ने अपनी साख इतनी तेजी से सिर्फ फेक न्यूज़ की वजह से ही खोई।
यही वह समय था जब सरकार के खिलाफ एक तरफ इंडिया अगेंस्ट करप्शन जैसे आंदोलन शुरू हुए और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी का कारवां पूरे आत्मविश्वास के साथ दिल्ली की ओर बढ़ रहा था। 2014 का आम चुनाव आते-आते फेक न्यूज़ का सिलसिला एक नई ऊंचाई तक पहुंचने लग गया।