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अमेरिका में महिला आंदोलन में सक्रिय एलिजा बट गम्बल ने डार्विन को गलत साबित किया

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मनीष आजाद

शायद आपको आश्चर्य हो लेकिन यह तथ्य है कि डार्विन महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानते थे. इसके लिए उन्होंने 1871 में प्रकाशित अपनी किताब ‘The Descent of Man‘ में तथाकथित ‘वैज्ञानिक तथ्य’ दिए हैं. इस किताब के आने तक डार्विन की प्रतिष्ठा आसमान छू रही थी. लेकिन अमेरिका में महिला आंदोलन में सक्रिय एलिजा बट गम्बल (Eliza Burt Gamble) को डार्विन के ‘वैज्ञानिक तर्क’ वैज्ञानिक नहीं लगे और उन्होंने डार्विन को उनके ही क्षेत्र में चुनौती देने की ठान ली.

इसके लिए उन्होंने लाइब्रेरी की राह पकड़ी और उस समय तक के जीव विज्ञान का अध्ययन किया. अंत में 1894 में उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण किताब लिखी – ‘The Evolution of Woman: An Inquiry into the Dogma of Her Inferiority to Man’. इसमें उन्होंने डार्विन के तर्क को उन्हीं के विकासवाद के सिद्धान्त के आधार पर काटा और साबित किया कि महिलाएं पुरुषों से किसी भी मायने में हीन नही है. वे उनके बराबर है. जो अंतर हमें दिखता है वे जैविक नहीं बल्कि सांस्कृतिक व सामाजिक है.

लेकिन यह विक्टोरियन युग था, और डार्विन का यह सिद्धांत कि महिलाएं पुरुषों से हीन होती है, उस समय का ‘कॉमन सेंस’ था. इसके अलावा महिलाओं को वैज्ञानिक के रूप में स्वीकार करने का चलन नहीं था. याद कीजिये कि 2 बार नोबेल जीतने वाली मैडम क्युरी को भी फ्रेंच वैज्ञानिक सोसाइटी में प्रवेश नहीं दिया गया था. डार्विन से पहली बार टकराने वाली यह किताब 1950-60 के प्रखर नारीवादी आंदोलनों के कारण ही स्थापित हो सकी और तमाम नारीवादी आंदोलनों का आधार बन सकी.

आज से ठीक 100 साल पहले उनकी मृत्यु हुई. तब से लेकर आज तक भिन्न भिन्न रूपों में डार्विन और एलिजा बट गम्बल की यह लड़ाई जारी है. आज भी तमाम तथाकथिक वैज्ञानिक शोधों में यह साबित करने का प्रयास किया जाता है कि महिलाएं पुरुषों से अलग है. जेंडर और सेक्स का घालमेल आज भी जारी है. लेकिन एलिजा बट गम्बल की परंपरा के वैज्ञानिक विशेषकर महिला वैज्ञानिक आज सफलतापूर्वक उन ‘वैज्ञानिक’ मिथकों को अपने वैज्ञानिक तर्कों से धवस्त कर रहे / रही हैं और भविष्य की नींव रख रहे / रही हैं, जो पूरी तरह महिला-पुरुष समानता पर आधारित है.

एलिजा बट गम्बल की कहानी हमें यही बताती है कि विज्ञान भी जरूरी नहीं कि वैज्ञानिक ही हो. यहां भी समाज की तरह ही तमाम पूर्वाग्रहों की तीखी लड़ाई जारी रहती है. मार्क्स ने इस बारे में बहुत ही सटीक कहा था- ‘तर्क हमेशा होता है, लेकिन जरूरी नहीं कि वो अपने तार्किक रूप में ही हो.’ (Reason has always existed, but not always in a reasonable form.)

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