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‘फ़िल्मिस्तान’ की फ़िल्मों का एक ही मक़सद था- मनोरंजन

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  • यासिर उस्मान
  • ,फ़िल्म इतिहासकार

हॉलीवुड के स्टूडियो सिस्टम से प्रेरित हिंदी सिनेमा के संगठित स्टूडियो सिस्टम में जब दरारें पड़ीं, तो प्रभात फ़िल्म कंपनी और बॉम्बे टॉकीज़, जैसे बड़े फिल्म स्टूडियो का पतन हुआ.न्हीं दोनों स्टूडियोज़ से टूट कर दो और प्रमुख स्टूडियो निकले- वी. शांताराम का राजकमल कला मंदिर और शशधर मुखर्जी का फ़िल्मिस्तान. ये दोनों लगभग उसी दौर में शुरू हुए राज कपूर के आरके स्टूडियोज़ की तरह एक व्यक्ति की रचनात्मक सोच पर टिके थे.आज हम बात करेंगे फ़िल्मिस्तान की, जिसे सिनेमा के इतिहास में शायद उतना याद नहीं किया जाता जितना इसका योगदान है.’फ़िल्मिस्तान’ की फ़िल्मों का एक ही मक़सद था- मनोरंजन.

अब तक हर स्टूडियो की अपनी एक अलग पहचान रही थी. प्रभात फ़िल्म कंपनी पौराणिक और देशभक्ति की कहानियों पर आधारित फ़िल्में बनाती थी, वहीं बॉम्बे टॉकीज़ मनोरंजक अंदाज़ में सामाजिक मुद्दों को सामने लाती थी.

लंबे स्वतंत्रता संग्राम के बाद देश आज़ाद हुआ था और फ़िल्मों में गांव, समाजवाद और देशभक्ति जैसे विषय ज़्यादा थे.लेकिन फ़िल्मिस्तान ने इससे अलग राह पकड़ी.उसने हर शैली की फ़िल्में बनाई, लेकिन हर फ़िल्म का एक ही उद्देश्य था —मनोरंजन.

रोमांस, नाच-गाना, स्टाइलिश कपड़े, शहर की कहानियां और नए स्टार्स को लॉन्च करना- बॉलीवुड जिन चीज़ों के लिए आज जाना जाता है उनकी नींव फ़िल्मिस्तान में ही पड़ी.

बॉलीवुड के पहले ‘स्टार मेकर’ शशधर मुखर्जी

देवानंद, मनोज कुमार एंड प्राण
,देवानंद जैसे कलाकार को बनाने में फ़िल्मिस्तान की बड़ी भूमिका मानी जाती थी

इसी स्टूडियो से अनारकली, मुनीमजी, पेइंग गेस्ट, शहीद, नागिन और तुमसा नहीं देखा जैसी ब्लॉकबस्टर फ़िल्में निकलीं.दिलीप कुमार, देव आनंद, शम्मी कपूर, प्रदीप कुमार, साधना, वैजयंती माला जैसे स्टार्स की शुरुआती हिट फिल्में फ़िल्मिस्तान की ही रहीं. बेहद कामयाब स्क्रीनराइटर-फ़िल्मकार नासिर हुसैन, नितिन बोस और रमेश सैगल के करियर को भी फिल्मिस्तान ने ही पंख दिए.

रोशनी में नहाए सितारे सबको याद रहते हैं, मगर उन्हें गढ़ने वाले कारीगरों के नाम अक्सर धुंधले से रह जाते हैं. पर्दे के पीछे रहे फ़िल्मिस्तान के मुखिया शशधर मुखर्जी ऐसे ही कारीगर थे जिन्होंने दिलीप कुमार, देव आनंद, प्रदीप कुमार, वैजयंती माला और शम्मी कपूर जैसे सितारों के करियर को तराशा.सही मायने में, वह बॉलीवुड के पहले ‘स्टार मेकर’ थे.

कैसे बना फ़िल्मिस्तान?

साल 1940 में हिमांशु राय के निधन के बाद उनकी पत्नी देविका रानी ने बॉम्बे टॉकीज़ की बागडोर संभाली, लेकिन जल्द ही स्टूडियो में दरारें पड़ने लगीं. वहां गुटबाज़ी तेज़ हुई और हिमांशु राय के क़रीबी शशधर मुखर्जी ने बग़ावत कर दी.

उनके साथ बॉम्बे टॉकीज़ के सबसे बड़े सितारे अशोक कुमार थे, जो रिश्ते में शशधर के साले भी थे. स्टूडियो की सबसे कामयाब फ़िल्म ‘किस्मत’ निर्देशित करने वाले ज्ञान मुखर्जी भी इनके साथ हो लिए.

ये तीनों कुछ और लोगों को साथ लेकर स्टूडियो से अलग हो गए. बॉम्बे टॉकीज़ कभी इस झटके से उबर नहीं पाया और कुछ साल बाद बंद हो गया. लेकिन 1943 में शशधर मुखर्जी ने अपनी इस टीम के साथ मिलकर एक नए स्टूडियो का आगाज़ किया- फ़िल्मिस्तान.

इससे पहले यहां पर ‘शारदा’ स्टूडियो हुआ करता था, जो आग में जलकर बर्बाद हो गया था. मुंबई के गोरेगांव पश्चिम में उसी जगह फ़िल्मिस्तान ने ली. लगभग पांच एकड़ में फैला ये स्टूडियो वक़्त के थपेड़े झेलता आज भी मौजूद है.इसमें सात शूटिंग फ्लोर, एक शिव मंदिर और एक हरा-भरा बाग़ भी है, जिसे आप हजारों फ़िल्मों में देख चुके हैं.

फ़िल्मिस्तान के मुख्य स्तंभ शशधर मुखर्जी थे, निर्देशक थे ज्ञान मुखर्जी और प्रमुख स्टार अशोक कुमार. इसके आर्थिक प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गयी बॉम्बे टाकीज़ से उनके साथ आए चुन्नीलाल कोहली को जो महान संगीतकार मदन मोहन के पिता थे.

अशोक कुमार
फ़िल्मिस्तान की पहली फ़िल्म थी ‘चल चल रे नौजवान’ (साल 1944), जिसमें अशोक कुमार प्रमुख अभिनेता थे. (सांकेतिक तस्वीर)

फिल्में बनाने का मॉडल काफ़ी हद तक बॉम्बे टॉकीज़ से ही लिया गया था. फ़िल्मिस्तान की पहली फ़िल्म थी ज्ञान मुखर्जी निर्देशित अशोक कुमार और नसीम बानो अभिनीत ‘चल चल रे नौजवान’ (साल 1944). मगर इसकी पहली ही फिल्म फ्लॉप हो गयी.

फ़िल्मिस्तान की शुरुआती फिल्मों में एक और फ़िल्म थी ‘आठ दिन’ (साल 1946) जो कामयाब तो नहीं थी लेकिन इस बात के लिए याद रखी जाती है कि मशहूर उर्दू लेखक सादत हसन मंटो ने ना सिर्फ इसके लेखन में योदगान दिया बल्कि इसमें एक एयरफोर्स अफसर का रोल भी अदा किया.

ये वो दौर था जब बंगाली सिनेमा का सुनहरा दौर ढलान पर आ रहा था और वहां के बड़े नाम अब बंबई फिल्म इंडस्ट्री की राह पकड़ रहे थे और फ़िल्मिस्तान ने इस मौक़े को भांप लिया.निर्देशक नितिन बोस पहले आए और उनके बाद आए एक संगीतकार जिन्होंने शुरुआत फ़िल्मिस्तान से ही की और आगे चलकर हिंदी सिनेमा के महान संगीतकार के रूप में जाने गए- एसडी बर्मन.

नितिन बोस ने अगली फ़िल्में निर्देशित की जिसका नाम था मज़दूर. लेकिन एस डी बर्मन के संगीत वाली फ़िल्म शिकारी (साल 1946) बड़ी हिट रही और स्टूडियो चल निकला.शशधर मुखर्जी को अंदाज़ा हो चुका था कि अच्छे गीत-संगीत फिल्मों की कामयाबी की गारंटी है. इसलिए एसडी बर्मन के बाद सी रामचंद्र और हेमंत कुमार को भी फ़िल्मिस्तान के साथ जोड़ा.

इस स्टूडियो की ‘म्यूजिक सिटिंग्स’ उस दौर में इंडस्ट्री में काफी मशहूर थीं और यहां की फ़िल्मों सात-आठ गीत होना आम बात थी.बंकिम चंद्र चटर्जी का लिखा ‘वंदे मातरम’ भारत का राष्ट्रीय गीत जो साल 1950 में बना था, लेकिन बेमिसाल गीत सच्चे अर्थों में देशभर में गूंजा दो साल बाद. जब साल 1952 में फ़िल्मिस्तान की आनंद मठ में इसे हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध किया.

दिलीप कुमार बने फ़िल्मिस्तान के स्टार

सायरा बानो, दिलीप कुमार और वैजयंती माला
,दिलीप कुमार जैसे कलाकार को फ़िल्मिस्तान ने स्टार के रूप में स्थापित किया

कुछ मतभेद के चलते अशोक कुमार साल 1946 में फ़िल्मिस्तान छोड़कर वापस बॉम्बे टॉकीज़ चले गए थे और वहां कुछ हिट फिल्में भी बनायीं. लेकिन फ़िल्मिस्तान को उनके बाद अब एक नए बड़े स्टार की दरकार थी.

अशोक कुमार के जाने के एक साल बाद, फ़िल्मिस्तान में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल की फ़िल्म ‘नदिया के पार’ हिट हुई. लेकिन असली धमाल मचाया साल 1948 में आई उनकी फिल्म ‘शहीद’ ने जो उस साल की सबसे कामयाब फिल्म साबित हुई.

इसके बाद, कामिनी कौशल के साथ फ़िल्मिस्तान की उनकी तीसरी फ़िल्म शबनम भी हिट रही. फ़िल्मिस्तान के अलावा दिलीप कुमार ने दूसरे निर्माताओं के साथ मेला और अंदाज़ जैसी सुपरहिट फिल्में भी दीं.इन दो सालों ने दिलीप कुमार को हिंदी सिनेमा सबसे बड़े स्टार अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया.

जब शशधर मुखर्जी ने फ़िल्मिस्तान स्टूडियो छोड़ दिया

माधुरी दीक्षित
एक समय ऐसा भी आया जब शशधर मुखर्जी ‘फ़िल्मिस्तान’ छोड़कर चले गए

फ़िल्मिस्तान की कामयाबी के बीच एक बड़ा मोड़ आया जब 1950 में शशधर मुखर्जी ने अपने स्टूडियो के शेयर बिज़नेसमैन तोलाराम जालान को बेच दिए.ये वो दौर था जब मुंबई में एक के बाद एक पुराने स्टूडियो बंद हो रहे थे.

कई साल फिल्में बनाने के बाद थक चुके थे और ब्रेक लेना चाहते थे. वो इंग्लैंड चले गए और तोलाराम जालान फ़िल्मिस्तान के मुख्य निर्माता बन गए. लेकिन जालान ने जो फिल्में बनायी वो कुछ ख़ास चलीं नहीं.

जालान की समझ में आ गया कि फिल्में दूसरे व्यापारों से अलग हैं. फ़िल्मिस्तान को शशधर मुखर्जी के क्रिएटिव इनपुट की कमी खल रही थी.आखिरकार, शशधर मुखर्जी वापस लौटे और उनके साथ फ़िल्मिस्तान की सफलता भी लौट आयी.

प्रदीप कुमार को बनाया स्टार

फ़िल्मिस्तान
‘नागिन’ फ़िल्म की धुन आज भी अमर है

अनारकली (साल 1953) में एक नए हीरो प्रदीप कुमार को लॉन्च किया. अनारकली साल की सबसे कामयाब फ़िल्म रही. वो कहानी जिसपर सात साल बाद के आसिफ ने मुग़ल-ए-आज़म बनायी.

अनारकली के साथ एक और स्टार का जन्म हुआ. ये थे स्क्रिप्टराइटर नासिर हुसैन जो आगे चलकर बॉलीवुड के बेहद कामयाब निर्माता-निर्देशक बने. प्रदीप कुमार को हीरो लेकर ही बनी अगली फ़िल्म नागिन (साल 1954) जो साल की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर रही और प्रदीप कुमार को स्टार बना दिया.अभिनेत्री वैजयंती माला की भी ये पहली सफल हिंदी फ़िल्म थी.

नागिन के गीत ज़बरदस्त हिट थे और उसकी “नागिन धुन” आज भी अमर है. यहां तक कि देश के सपेरे भी अपनी बीन पर उसी धुन को बजाते हैं. ख़ास बात ये है कि फ़िल्म के लिए वो धुन बीन पर नहीं बल्कि क्लैविओलाइन नाम के यंत्र पर बजाई गई थी.साल 1954 फ़िल्मिस्तान का सुनहरा साल था. इस साल नागिन के साथ-साथ नास्तिक और जागृति भी टॉप हिट फिल्मों में शुमार हो गई.

जागृति में कवि प्रदीप के लिखे गीत- आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल और हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इन सभी गीतो नें धूम मचा दी.आपको ये जानकर हैरानी होगी कि ‘अजान्त्रिक’ और ‘मेघे ढाका तारा’ जैसी अमर फिल्में बनाने वाले देश के बड़े बंगाली फिल्मकार ऋत्विक घटक ने भी 1955 में बतौर स्क्रिप्टराइटर फ़िल्मिस्तान जॉइन किया था.

लेकिन ना तो उन्हें फ़िल्मिस्तान रास आया ना ही बंबई शहर. उनका झुकाव हमेशा कलात्मक और प्रयोगात्मक फिल्मों की ओर था, जबकि फ़िल्मिस्तान की दिलचस्पी कामयाब कमर्शियल फिल्में बनाने में.इसलिए कुछ ही समय में घटक ये नौकरी छोड़ वापस कलकत्ता लौट गए.

शहरी जीवन से जुड़ी फ़िल्में

फ़िल्मिस्तान स्टूडियो
,साल 2011 में ली गई फ़िल्मिस्तान स्टूडियो की एक तस्वीर

आज़ादी के बाद देश में वो दौर था जब लोग गांवों और छोटे शहरों से काम की तलाश में बड़े शहरों की ओर रुख़ करने लगे थे.शहरों में संघर्ष, सपने, रोमांस और सफलता की नई कहानियां सिनेमा में उभरने लगीं. शशधर मुखर्जी भी ऐसी शहरी कहानियों पर आधारित, मनोरंजक और कमर्शियल फ़िल्मों का निर्माण करना चाहते थे.

शुरुआत हुई देव आनंद की मुनीमजी से. फ़िल्म को लिखा नासिर हुसैन ने और निर्देशित किया शशधर के छोटे भाई सुबोध मुखर्जी ने. फ़िल्म हिट रही और अगली फिल्म में भी यही टीम थी और हीरो भी देव आनंद ही थे.

इस बार तो शहरी थीम ही नहीं बल्कि फ़िल्म का नाम भी अंग्रेजी था- पेइंग गेस्ट. उस दौर में ये बिलकुल नए अंदाज़ की फ़िल्म थी और बड़ी हिट रही. किशोर कुमार-आसा भोसले के गाए गीत- छोड़ दो आंचल, माना जनाब ने पुकारा नहीं और निगाहें मस्ताना आज तक याद किए जाते हैं.

इसी साल फ़िल्मिस्तान की अगली फ़िल्म ‘तुमसा नहीं देखा’ के साथ लेखक नासिर हुसैन को निर्देशक बनने का मौक़ा मिला. हीरो के लिए देव आनंद से बात की गई.

किसी वजह से उन्होंने मना कर दिया और फ़िल्म के हीरो बने अब तक इंडस्ट्री में संघर्ष कर रहे अभिनेता शम्मी कपूर जिन्हें इस ब्लॉकबस्टर म्यूजिकल फ़िल्म से अपनी पहली बड़ी कामयाबी मिली.

लेकिन इस फ़िल्म के साथ स्टूडियो की क़िस्मत ने एक बार फिर करवट ली. ये फ़िल्म फ़िल्मिस्तान की आख़िरी हिट फ़िल्म साबित हुई.तोलाराम जालान और शशधर मुखर्जी के बीच कुछ हुआ जिसके बाद मुखर्जी ने एक बार फिर फ़िल्मिस्तान छोड़ दिया. इस बार वो लौटे नहीं. उनके बाद संस्कार, बाबर, दूज का चांद जैसी फ़िल्में तो बनीं मगर उनमें वो बात नहीं थी जो पिछली टीम की बनायी फ़िल्मों में थी.

साल 1943-57 तक शशधर मुखर्जी ने फ़िल्मिस्तान के लिए 27 फ़िल्में बनाई जिनमें से 19 हिट रहीं. इस दौर में जब आमतौर पर स्टूडियोज़ की कमान एक्टर-निर्देशक (राज कपूर, वी शांताराम) के हाथों हुआ करती थी, शशधर मुखर्जी ने बतौर प्रोड्यूसर अपना सिक्का जमाया.

ना सिर्फ फ़िल्में बनाईं बल्कि कई स्टार्स को खड़ा किया. आगे चलकर मुखर्जी ने फ़िल्मिस्तान स्टूडियो स्थापित किया.

मुखर्जी परिवार की पीढ़ियां

अशोक कुमार
,अशोक कुमार का शशधर मुखर्जी से पारिवारिक रिश्ता था

शशधर मुखर्जी का ख़ानदान हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री के प्रमुख परिवारों में रहा और आज तक फ़िल्मों से जुड़ा है.

शशधर मुखर्जी के छोटे भाई फ़िल्म निर्देशक सुबोध मुखर्जी और फिल्म निर्माता प्रबोध मुखर्जी थे. शशधर के चार बेटे- जॉय मुखर्जी, देब मुखर्जी, शोमू मुखर्जी और शुबीर मुखर्जी थे.

देब मुखर्जी के बेटे अयान मुखर्जी आज कामयाब निर्देशक हैं. शोमू की बेटी अभिनेत्री काजोल हैं. शशधर के बड़े भाई तो फ़िल्मों में नहीं थे लेकिन उनकी पौत्री रानी मुखर्जी हैं.वहीं सुनहरा दौर बहुत पीछे छोड़ चुका फ़िल्मिस्तान स्टूडियो मुंबई के गोरेगांव में अब भी मौजूद है और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है.

यहां टीवी सीरियल्स और विज्ञापनों की शूटिंग होती है. जो हालात हैं उन्हें देखकर यही लगता है कि कुछ साल में इसका अंजाम भी आरके स्टूडियो की तरह होगा. यहां भी फ़िल्म स्टूडियो की जगह कोई नया कॉम्प्लेक्स बन जाएगा. लेकिन स्टूडियो रहे ना रहे, फ़िल्म इतिहास में इसकी कामयाबी की कहानी रहेगी.

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