आजादी के 30-40 साल बाद से राजनीतिक नेतृत्व ने दलितों को छलना शुरू कर दिया। ऊंच-नीच पर आधारित सामंती समाज व्यवस्था ने फिर पैर फैलाना शुरू कर दिया । शोषण नये तरीकों और नये रूप में होने लगा ।
जो दलित नेतृत्व उभरकर आया था उसी ने समाज सुधार और उस वर्ग में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक वर्ग चेतना की शिक्षा फ़ैलाने के स्थान पर सत्ता और धन पाने के लालच में शोषक वर्ग की राजनीतिक सत्ता से ही हाथ मिला लिया और संपूर्ण आंदोलन को केवल आरक्षण की मांग तक सीमित कर दिया ।
आज सावित्रीबाई फुले को और उनके कामों को याद करना बहुत आवश्यक है । वह 1831 में महाराष्ट्र के एक दलित परिवार में पैदा हुई थी । 18 साल की उम्र में सावित्रीबाई ने दलित महिलाओं को शिक्षित बनाना, छुआछूत को मिटाना, विधवा की शादी करवाना और महिलाओं को समाज में सही स्थान दिलवाने जैसे कामों की शुरुआत की ।
हम उस समय के सामाजिक पिछड़ेपन के हालातों के बारे में केवल पढ़कर ही अंदाज लगा सकते हैं ।
बात 1848 की है । पुणे में पहला स्कूल खोलने के बाद महाराष्ट्र में 18 स्कूल खोले । इस घटना के विवरण से उस समय के सामाजिक हालातों का अंदाजा लगाया जा सकता है ।
सावित्रीबाई स्कूल पढ़ाने को जाती थी तो वह एक झोले में एक साड़ी साथ रखकर जाती थी क्योंकि रास्ते में ऐसे लोग जो यह मानते थे कि शूद्र को पढ़ने का अधिकार नहीं है इसलिए उन पर गोबर फेंका जाता था जिसकी वजह से उनके कपड़े गंदे और बदबूदार हो जाते थे । स्कूल जा कर वह अपने साथ लाई साड़ी बदलती थी फिर दलित बच्चियों को पढ़ाती थी ।
इस मौके पर और संदर्भ में शहीदे आज़म भगत सिंह का जेल का किस्सा भी याद करते हैं ।
विजय दलाल