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सामदाम- दंडभेद सब अपनाकर भी पिछड़ा फासीवाद, आगे की षड्यंत्री संभावनाएं 

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        ~ पुष्पा गुप्ता 

     फ़सीवादी-पूँजीवादी शोषकों के विपक्ष को तोड़ने, पंगु बनाने और कुचलने के तमाम प्रयासों, चुनावों के पहले मोदी द्वारा खुले तौर पर आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाते हुए किये गये साम्‍प्रदायिक व दंगाई प्रचार, ईवीएम मशीनों द्वारा किये गये हेर-फेर, मतगणना के दिन तमाम इलाकों में सरकारी मशीनरी का इस्‍तेमाल कर नतीजों में की गयी गड़बड़ी के बावजूद, भाजपा व मोदी-शाह जोड़ी अपने बूते पर बहुमत तक नहीं पहुँच पाई।

      2019 के आम चुनावों के मुकाबले 63 सीटों की कमी के साथ भाजपा 240 सीटों तक पहुँच सकी। अगर हम ऊपर बताये गये सभी कारकों को हटा दें तो भाजपा के लिए 200 सीटों तक पहुँचना भी मुश्किल था। चुनावों से पहले इलेक्‍टोरल बॉण्‍ड के महाघोटाले के द्वारा भाजपा ने अपनी आर्थिक शक्तिमत्‍ता को, जो पहले ही अन्‍य सभी पूँजीवादी चुनावी दलों से कई गुना ज्‍़यादा थी, और भी प्रचण्‍ड रूप से बढ़ा लिया था और हम सभी जानते हैं कि पूँजीवादी चुनावों में धनबल की केन्‍द्रीय भूमिका होती है.

       चुनावों से पहले प्रमुख पूँजीवादी विपक्षी दल कांग्रेस के खातों को सील कर उसे आर्थिक रूप से पंगु बना दिया गया था; आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेतृत्‍व के अच्‍छे-ख़ासे हिस्‍से को जेल में डाल दिया गया था; अन्‍य कई विपक्षी पार्टियों के नेता जेल में थे या उन पर जेल जाने की तलवार लटकाकर रखी गयी थी; कई विपक्षी पार्टियों को धनबल व केन्‍द्रीय एजेंसियों का इस्‍तेमाल करके तोड़ दिया गया था और कइयों को भाजपा की बी-टीम में तब्‍दील कर दिया गया था.

     चुनाव की प्रक्रिया शुरू से ही केचुआ द्वारा इस प्रकार बनायी गयी थी कि भाजपा को फ़ायदा पहुँचे; सात चरणों की पूरी व्‍यवस्‍था ही इसी प्रकार की गयी थी; ईवीएम मशीनें कतई शक़ के दायरे में हैं और कई इलाकों से आ चुकी ख़बरों से स्‍पष्‍ट है कि उनके बूते भी चुनाव के नतीजों में हेरफेर हुआ है; केचुआ ने पहले दो चरणों के वोटिंग के आँकड़ों तक को 5 से 7 प्रतिशत तक बढ़ा दिया; इसके अलावा, प्रशासनिक मशीनरी का इस्‍तेमाल कई जगहों, मसलन, फूलपुर, बाँसगाँव आदि में भाजपा को जितवाने के लिए किया गया; समूचा गोदी मीडिया शुरू से ही भाजपा और मोदी के पक्ष में झूठे प्रचार कर राय बनाने के प्रयासों में पिला हुआ था.

       सिरे से झूठे एक्जि़ट पोल देकर गणना के दिन हेराफेरी के ज़रिये जनादेश के चुराये जाने के लिए माहौल तैयार करने में लगा हुआ था; संक्षेप में, किसी भी तरह से इन लोकसभा चुनावों को पूँजीवादी औपचारिक मानकों से भी बराबरी के मैदान पर हुआ चुनाव नहीं माना जा सकता। 

      सभी इस बात को जानते हैं और अधिकांश इस बात को मानते हैं। इसके बावजूद, भाजपा बहुमत के निशान से दूर है। और उपरोक्‍त सभी कारकों को हटा दें तो उसका 200 सीटों के आँकड़े तक पहुँच पाना भी मुश्किल था। लेकिन जो नतीजा आया भी है, उससे मोदी की अपराजेयता का पूँजीवादी मीडिया द्वारा अरबों ख़र्च करके पैदा किया गया मिथक ध्‍वस्‍त हो गया है। 

      370 या 400 तो दूर 240 पहुँचने में ही भाजपा हाँफ गयी, वह भी तब जबकि सारा मीडिया, सारी सरकारी मशीनरी, केचुआ, और पूँजीपति वर्ग का अकूत धनबल उसके पक्ष में था। 

        इस नतीजे का मुख्‍य कारण यह था कि बेरोज़गारी, महँगाई, भयंकर भ्रष्‍टाचार, साम्‍प्रदायिकता से जनता त्रस्‍त थी। यही वजह थी कि आनन-फ़ानन में अपूर्ण राम मन्दिर के उद्घाटन करवाने का भी भाजपा को कोई फ़ायदा नहीं मिला और फ़ैज़ाबाद तक की सीट भाजपा हार गयी, जिसमें अयोध्‍या पड़ता है। 

        उत्‍तर प्रदेश के नतीजों ने सभी को चौंकाया, लेकिन चुनावों से पहले आरडब्‍ल्‍यूपीआई के नेतृत्‍व में चली ‘भगतसिंह जनअधिकार यात्रा’ के दूसरे चरण में ही हमने यह महसूस किया था कि उत्‍तर प्रदेश में ऐसे नतीजे आने की पूरी सम्‍भावना है। साथ ही, दो ऐसे राज्‍यों में जहाँ क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग के ऐसे नुमाइन्‍दे थे, जो भाजपा के ख़िलाफ़ हमेशा अवसरवादी चुप्‍पी साधे रहते थे और केन्‍द्र में अक्‍सर भाजपा की मदद किया करते थे, वहाँ से उनका पत्‍ता ही साफ़ हो गया। 

       ओडिशा में नवीन पटनायक की बीजद और आन्‍ध्रप्रदेश में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस। केरल में भाजपा अपना खाता खोलने में कामयाब रही, जो माकपा की सामाजिक-जनवादी व संशोधनवादी राजनीति के कुकर्मों का ही नतीजा है। बिहार और कर्नाटक के नतीजे कइयों के लिए चौंकाने वाले थे। लेकिन इनमें से ज्‍़यादा लोग वे हैं जो भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति के आधार को कम करके आँकते हैं। 

       मध्‍यप्रदेश, गुजरात, उत्‍तराखण्‍ड, हिमाचल प्रदेश जैसे प्रदेशों में भाजपा ने लगभग सभी सीटें जीतीं हैं। निश्चित ही, इसमें ईवीएम और प्रशासनिक मशीनरी द्वारा चुनावी हेरफेर की एक भूमिका है, लेकिन उसके बिना भी इन राज्‍यों में भाजपा अधिकांश सीटें जीतने की स्थिति में थी। यह सच है कि देश के पैमाने पर भाजपा की सीटों में भारी कमी आयी है, लेकिन अभी भी वह सबसे बड़ी पार्टी है। 

       विशेष तौर पर पिछले चार दशकों में संघ परिवार व भाजपा ने जिस व्‍यवस्थित तरीके से समाज के एक विचारणीय हिस्‍से में साम्‍प्रदायिक आम सहमति का निर्माण किया और टुटपुँजिया वर्गों के प्रतिक्रियावादी फ़ासीवादी आन्‍दोलन को खड़ा किया है, यह उसी का नतीजा है। यह इतनी आसानी से समाप्‍त नहीं होने वाला है और दीर्घकालिक मन्‍दी के दौर में और क्रान्तिकारी राजनीति के प्रभुत्‍वशाली न बनने की सूरत में यह स्थिति बदलने वाली भी नहीं है, चाहे फ़ासीवादी शक्तियाँ सरकार में रहें या न रहें।

इसमें कोई दोराय नहीं है कि इण्डिया गठबन्‍धन के तमाम दल भी पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्‍से की नुमाइन्‍दगी करते हैं। देश को इन चुनावों में लटकी हुई संसद मिली है। एनडीए के कुछ घटक दल जिन्‍हें मोदी-शाह बाँह मरोड़कर एनडीए में लाये थे, उनके पाला बदलकर इण्डिया गठबन्‍धन में जाने की सम्‍भावनाएँ सामने आ रही हैं। 

        ऐसे में, यदि इण्डिया गठबन्‍धन की भी सरकार बन जाये, तो जनता शिक्षा, रोज़गार, आवास, भोजन, सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा के क्षेत्र में व्‍यापक पैमाने पर जनपक्षधर नीतियों की उम्‍मीद नहीं कर सकती है। ज्‍़यादा से ज्‍़यादा कुछ दिखावटी कल्‍याणकारी नीतियों, नवउदारवादी नीतियों के कार्यान्‍वयन की रफ्तार में कुछ कमी और उसके तौर-तरीकों में कुछ बदलाव और सतही तौर पर उत्‍पीडि़त अल्‍पसंख्‍यकों व जनसमुदायों के प्रति कुछ अलग रुख़ की ही उम्‍मीद की जा सकती है। 

       ऐसी स्थिति में, फ़ासीवादी पार्टी भाजपा तात्‍कालिक तौर पर सरकार से बाहर जा सकती है। लेकिन राज्‍यसत्‍ता के तमाम निकायों में और समाज के भीतर उसकी सुदृढ़ीकृत अवस्थितियाँ कमोबेश बरक़रार रहेंगी। साथ ही, सरकार बनाने पर भी इण्डिया गठबन्‍धन की सरकार फ़ासीवादी भाजपा व संघ परिवार पर लगाम कसने के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठायेगी। 

        सवाल राहुल गाँधी, अखिलेश यादव, तेजस्‍वी यादव जैसे नेताओं की इच्‍छाशक्ति होने या न होने का नहीं है बल्कि यह है कि क्‍या देश का पूँजीपति वर्ग इण्डिया गठबन्‍धन की किसी सम्‍भावित सरकार को, जो कि उसकी ही नुमाइन्‍दगी करेगी, इस बात की इजाज़त देगा? नहीं। 

         वजह यह है कि दीर्घकालिक मन्‍दी के दौर में और आम तौर पर आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में फ़ासीवादी शक्तियाँ पूँजीपति वर्ग और पूँजीवाद की स्‍थायी आवश्‍यकता हैं, चाहे वे सरकार में रहें या न रहें। साथ ही, फ़ासीवादी शक्तियाँ भी आम तौर पर दो कारणों से आपवादिक स्थितियों को छोड़कर पूँजीवादी लोकतन्‍त्र के खोल को बरक़रार रख फ़ासीवादी प्रोजेक्‍ट को आगे बढ़ाने का रास्‍ता चुनेंगी। पहला कारण : आज के नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में पूँजीवादी राज्‍यसत्‍ता में उतनी भी जनवादी सम्‍भावनाएँ नहीं बचीं हैं, जितनी बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में बची थीं; दूसरा कारण : फ़ासीवादियों ने भी बीसवीं सदी के अपने पुरखों की ग़लतियों से सीखा है और यह नतीजा निकाला है कि पूँजीवादी लोकतन्‍त्र के खोल को फेंकने के साथ यह निर्धारित हो जाता है कि उनकी नियति भी देर-सबेर पूर्ण विध्‍वंस के रूप में सामने आती है, क्‍योंकि उसके बाद और कोई विकल्‍प बचता भी नहीं है। 

       नतीजतन, राज्‍य का फ़ासीवादीकरण आज आम तौर पर एक ऐसी परियोजना में तब्‍दील हो चुका है, जो कभी पूर्णता पर नहीं पहुँचेगी बल्कि सतत् जारी रहेगी, यानी हमेशा एक ‘ऑनगोइंग प्रोजेक्‍ट’ बनी रहेगी। इसलिए फ़ासीवाद राज्‍यसत्‍ता और समाज में एक प्रतिक्रियावादी धुर जन-विरोधी शक्ति के तौर पर बना रहेगा, चाहे वह सरकार में रहे या न रहे; दूसरा, वह दीर्घकालिक मन्‍दी के दौर में बार-बार पहले से अधिक आक्रामकता के साथ सरकार में पहुँचेगा क्‍योंकि हर दिखावटी कल्‍याणवाद के दौर के बाद नवउदारवादी नीतियों को धक्‍कड़शाही व तानाशाहाना तरीक़े से आगे बढ़ाना पूँजीपति वर्ग की ज़रूरत होगी।

         इसलिए, इण्डिया गठबन्‍धन की सरकार बन भी जाये, तो यह फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी, बल्कि फ़ासीवाद के लिए एक शासनान्‍तराल, या, वक्‍़फ़ा-ए-हुक्‍़मरानी, होगा। एक ऐसा अन्‍तराल जिसमें राज्‍यसत्‍ता व समाज में पहले से ही मज़बूती से मौजूद फ़ासीवादी शक्तियाँ पहले से भी आक्रामक तरीक़े से सरकार में आने के लिए अपनी शक्तियाँ संचित करेंगी। 

        दूसरी सम्‍भावना, जो कि प्रबल सम्‍भावना है, वह यह है कि भाजपा विशेष तौर पर नीतीश कुमार की जद (यू) और चन्‍द्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी को साथ रखने में कामयाब होती है और सारत: भाजपा-नीत गठबन्‍धन सरकार सत्‍ता में आती है। ऐसे में, तीन सम्‍भावनाएँ सामने होंगी : पहला, मोदी सरकार की फ़ासीवादी आक्रामकता विशेष तौर पर गठबन्‍धन के उपरोक्‍त दो घटकों को साथ बनाये रखने की बाध्‍यता से पैदा होने वाली सीमाओं के कारण परिमाणात्‍मक रूप से कुछ कम हो जाये और कई नीतिगत मसलों पर मोदी सरकार वे कदम न उठा पाये जो वह पूर्ण बहुमत में होने पर उठाती, मसलन, सीएए-एनआरसी पर, यूनीफॉर्म सिविल कोड पर, इत्‍यादि। जहाँ तक संविधान को संशोधित करने की बात है, हमें नहीं लगता कि पूर्ण बहुमत में होने पर भी, कम-से-कम पूर्वानुमान-योग्‍य भविष्‍य में मोदी सरकार वास्‍तव में ऐसा कुछ करने जा रही थी, क्‍योंकि उसे उसकी कोई ज़रूरत नहीं है।

         भारतीय संविधान में ऐसी कोई भारी जनवादी सम्‍भावनासम्‍पन्‍नता नहीं है जो आज के दौर में भारतीय फ़ासीवादियों को ऐसा कुछ भी करने से रोक पाये जो वे करना चाहते हैं। दूसरे, ऐसा करने के फ़ायदे के मुकाबले क़ीमतें ज्‍़यादा होतीं। दूसरी सम्‍भावना यह है कि यदि मोदी सरकार नीतीश व नायडू जैसे घटकों को किसी वजह से अनुशासित और नियन्त्रित रखने में कामयाब होती है, तो वह कमोबेश पहले जैसी आक्रामकता के साथ फ़ासीवादी एजेण्‍डा को आगे बढ़ा सकती है।

       तीसरी सम्‍भावना यह है कि गठबन्‍धन में सरकार बनाने पर मोदी सरकार उस पैंतरे का इस्‍तेमाल कर सकती है, जिसका जनादेश कम होने पर हिटलर ने इस्‍तेमाल किया था। यानी, मोदी-शाह-डोवाल तिकड़ी ‘राइख़स्‍टाग में आग’ जैसी किसी घटना के ज़रिये देश में आपातकाल जैसी कोई स्थिति पैदा कर सकते हैं और फिर तत्‍काल ही सरकार पर पूर्ण नियन्‍त्रण के लिए कदम आगे बढ़ा सकते हैं। 

       देश की प्रगतिशील ताक़तों को बाद वाली दोनों स्थितियों के लिए विशेष तौर पर तैयार रहना होगा। भाजपा के जनादेश में कमी से पैदा होने वाले किसी भी हर्षातिरेक से बचना होगा और चौकस रहना होगा। ऐसी कोई गारण्‍टी नहीं है कि गठबन्‍धन में सरकार बनाने की सूरत में मोदी-शाह नीत भाजपा की फ़ासीवादी आक्रामकता में अनिवार्यत: कोई कमी ही आने वाली है। 

        इतना स्‍पष्‍ट है कि इण्डिया गठबन्‍धन के सरकार बनाने की सूरत में हमें बेहद सीमित अर्थों में एक मोहलत मिलती। इस मोहलत के दौरान ये प्रमुख कार्यभार होंते जिन्‍हें युद्धस्‍तर पर और बेहद द्रुत गति से अनथक रूप  से पूरा करना होता : पहला, एक देशव्‍यापी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का निर्माण व गठन जो समूची मेहनतकश आबादी की नुमाइन्‍दगी करती हो; दूसरा, मेहनतकश जनता के ठोस मुद्दों पर जुझारू क्रान्तिकारी जनान्‍दोलनों को खड़ा करना जो फ़ासीवाद को पूर्णत: ख़ारिज करते हुए आम तौर पर पूँजीवादी सत्‍ता व मौजूदा सरकार को कठघरे में खड़ा करें, जिसकी तात्‍कालिक अभिव्‍यक्ति होती इण्डिया गठबन्‍धन द्वारा चुनावों से पहले किये गये तमाम वायदों को पूरा करवाने के लिए व्‍यापक जनान्‍दोलन खड़ा करना; तीसरा, व्‍यापक मेहनतकश जनता के बीच व्‍यापक पैमाने पर क्रान्तिकारी सुधारात्‍मक व रचनात्‍मक संस्‍थाओं का निर्माण और एक आवयविक सामाजिक आधार का विकास। 

       अगर इस मोहलत में ये तीन कार्यभार समुचित ढंग से निभाये जाएँ तो ही हम दीर्घकालिक आर्थिक संकट के दौर के अगले राजनीतिक संकट में मौजूद दो सम्‍भावनासम्पन्‍नताओं, यानी प्रगतिशील सम्‍भावनासम्‍पन्‍नता और प्रतिक्रियावादी सम्‍भावनासम्‍पन्‍नता, में से प्रगतिशील सम्‍भावनासम्‍पन्‍नता को वास्‍तविकता में तब्‍दील करने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। 

         यदि मोदी सरकार एक गठबन्‍धन सरकार के रूप में वापस आती है, जिसकी गुंजाइश फिलहाल ज्‍़यादा है, तो उससे पैदा होने वाली तीन सम्‍भावनाओं के आधार पर, हमारा प्रमुख तात्‍कालिक कार्यभार होगा ज़मीनी स्‍तर पर फ़ासीवाद-विरोधी आन्‍दोलन को और मज़बूती प्रदान करना। 

       फ़ासीवादी ताक़तों के खिलाफ़ हर जगह ज़मीनी स्‍तर पर जनता को गोलबन्‍द और संगठित करना, रोज़गार-महँगाई जैसे बुनियादी मसलों पर जनता के जुझारू जनान्‍दोलनों को खड़ा करने के काम को पहले से भी तेज़ रफ़्तार से जारी रखना, जनता के बीच सच्‍चे सेक्‍युलरिज्‍़म के अर्थ और अनिवार्यता को स्‍पष्‍ट करना और साम्‍प्रदायिकता पर चोट करना, जनता के स्‍वतन्‍त्र राजनीतिक पक्ष यानी मेहनतकशों की एक देशव्‍यापी क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण के काम को और आगे बढ़ाना और जनता के बीच व्‍यापक पैमाने पर क्रान्तिकारी संस्‍थाओं का निर्माण कर एक आवयविक सामाजिक आधार का निर्माण करना। 

       तात्‍कालिक तौर पर, जनता के ठोस मुद्दों पर फ़ासीवाद-विरोधी जनान्‍दोलन को खड़ा करना जारी रखना प्रधान कार्यभार होगा और दूरगामी तौर पर देश में क्रान्तिकारी पार्टी निर्माण और जनता के बीच आवयविक सामाजिक आधार का विकास करना दूरगामी कार्यभार होगा। लेकिन इस ‘दूरगामी’ को कालिक अर्थों में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि राजनीतिक अर्थों में समझा जाना चाहिए। 

आने वाले  दिनों में राजनीतिक तौर पर पूरी तस्‍वीर साफ़ होगी। इण्डिया गठबन्‍धन नीतीश और चन्‍द्रबाबू नायडू को अपने पक्ष में करने के प्रयास में हैं। नीतीश और चन्‍द्रबाबू अपने हितों को ध्‍यान में रखने के लिए दोनों गठबन्‍धनों से तगड़ा मोलभाव करेंगे। यह सारा मोलभाव कौन-सा मोड़ लेगा, यह आने वाले दिनों में ही साफ़ होगा। जो भी नतीजा होगा, उसके उपरोक्‍त सम्‍भावनाओं के आधार पर सामने आने की ही गुंजाइश है। उसके आधार पर ही जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को अपने कार्यभारों को तय करने की आवश्‍यकता है।

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