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सदाबहार सवाल : सत्य ही ईश्वर तो ‘असत्य’ का निर्माण क्यों?

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 सुधा सिंह 

 _सत्य ही ईश्वर है, तो असत्य कौन है? असत्य को ईश्वर ने क्यों बनाया? इससे ईश्वर की सारी सृष्टि परेशान है._

       हमारे विचार से सत्य ईश्वर नही है. ईश्वर सत्य और असत्य से परे है। सत्य और असत्य मनुष्य का आचरण है, धृति है। इसे मनुष्य धारण करता है।

 जब हम सत्य आचरण करते हैं तो भय नही होता और जब असत्य का आचरण करते हैं तो हमेशा भयभीत रहते हैं। इसे अपने जीवन मे प्रयोग करके स्वयं जाना जा सकता है,पर सत्याचरण अधिक नैतिकता और परमात्मा की ओर Lead अवश्य करता है।

     _श्रीकृष्ण के अनुसार (गीता/१८/२९) सत्य बुद्धि का स्वभाव है,सत्य बुद्धि का वृत्तिविशेष है।_

        *सत्येन लभयस्पसा ह्येष आत्मा.*

   ~मुण्डकोपनिषद /३/१/५)

    सत्य आचरण से आत्मा लभ्य हो सकता है यानी यह जीव का गुण कहलाया।

    *सत्यमेव जयति नानृतं,सत्येन पन्था विततो देवयानः।*

   *येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा,यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम्।।*

      ~मुण्डक/३/१/६

       _अर्थात् सत्य की विजय होती है झूठ की नही। सत्य एक पन्थ है जिस पर चलकर आप्तकाम ऋषि लोग (आक्रमन्ति) गमन करते हैं जो सत्यस्वरूप परमात्मा का निधान ( धाम) है।_

     इस प्रकृति मे सत्य और असत्य दोनो की सत्ता है। शास्त्र विधियाँ मनुष्य के कल्याण के लिए बनाई गयी हैं। सभी उपदेश मनुष्य के आचरण को शुद्ध बनाकर सत् पर चलने के लिए इसीलिए बनें है।

     _असत्य की सत्ता को तिरोहित करने के लिए प्रारंभ से मनुष्य को सावधान करने वाले शास्त्रों से शासित राष्ट्र अधिक सुखी होते देखे गये है।_

     चन्द्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक,समुद्रगुप्त विक्रमादित्य इसके स्पष्ट प्रमाण हैं।

       कानून का शासन पहली बार मैग्नाकार्टा चार्टर   (१२१५) द्वारा लाया गया। क्रमिक रूप से विकसित आज अनेक देशों मे जो संविधान बने वह भी सिद्धांततः कल्याणकारी राष्ट्र की कल्पना पर आधारित हैं।

     _पर तुलनात्मक रूप से शास्त्रों का शासन अपेक्षाकृत ज्यादा कल्याणकारी सिद्ध हुआ,जबकि वर्तमान कल्याणकारी स्वरूप झूठ,कपटछल पर आधारित होकर मानव संव्यवहारों को सत्य के पन्थ पर ले जाने मे पूरी तरह से असफल सिद्ध हुआ है।_

      विवेकानन्द ने वेदों की ओर लौटने के लिए विश्व को आगाह किया लेकिन उनकी बात केवल आदर्श के रूप मे अख्तियार की गयी।

    यहाँ इस सिस्टम पतञ्जलि के योगदर्शन को देखिए. प्रेक्टिकल कीजिए स्पष्ट प्रमाण मिल जाएगा बहस करने की आवश्यकता ही नही होगी। कानून की आवश्यकता ही नही पड़ेगी।

     _हमारा अभिप्राय यह है कि सत्य  और असत्य प्रकृति है। सत्याचरण करने और स्वानुशासन मे रहने से भगवान् भले न मिलें पर अधिक शांति,संतोष और सुख अवश्य मिलेगा।_

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