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परिसीमन लागू हुआ तो दक्षिण के राज्यों में विस्फोटक विरोध तय?

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लाल बहादुर सिंह 

सीटों के परिसीमन का मुद्दा एक बेहद संवेदनशील मुद्दा है जिसके हमारी राष्ट्रीय एकता के लिए गहरे निहितार्थ हैं। इसमें सीटें आबादी और क्षेत्र के हिसाब से तय की जाती हैं। संसद में पारित कानून द्वारा परिसीमन आयोग का गठन होता है जो आबादी और क्षेत्र के हिसाब से सीटें तय करता है। पूर्व में 1951,1961,1971में परिसीमन हुआ था।

अंतिम परिसीमन में लोकसभा की 543 सीटें तय की गई थीं, तब देश की आबादी 54.8करोड़ थी। इसके अनुसार आज की जनसंख्या के अनुरूप 848 सीटें होनी चाहिए। लेकिन 1971के बाद से परिसीमन हुआ ही नहीं हुआ। 1976 में संवैधानिक संशोधन द्वारा लोकसभा सांसदों की संख्या को 543 पर freeze कर दिया गया था ताकि बड़े, तेज जनसंख्या वृद्धि वाले राज्य इसका अनुचित लाभ न उठा सकें।

उस समय तर्क यह दिया गया कि जनसंख्या नियंत्रण को प्रोत्साहित करने के लिए यह किया जा रहा है। बहरहाल असली कारण कुछ और ही था। दरअसल विभिन्न राज्यों में जनसंख्या वृद्धि असमान थी। इसलिए उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में तमिलनाडु, केरल, आंध्र जैसे राज्यों में जनसंख्या में कम वृद्धि के कारण सीटों में कम वृद्धि होती और उत्तर भारत के राज्यों में जनसंख्या वृद्धि की दर तेज होने कारण बहुत अधिक वृद्धि होती।

अभी सीटों की संख्या 543 की जगह 848हो जाएगी। गृह मंत्री ने बयान दिया है कि सीटों का विभाजन आनुपातिक (pro rata) आधार पर होगा। इस बयान ने दक्षिण भारतीय राज्यों की चिंता और बढ़ा दी है। अगर 848 सीटों को जनसंख्या के अनुपात में बांटा गया तो जाहिर है दक्षिणी राज्यों का आनुपातिक प्रतिनिधित्व उत्तर भारत की तुलना में बेहद कम हो जाएगा।

अपनी जनता की शिक्षा और संस्कृति का स्तर उन्नत कर वहां जनसंख्या पर नियंत्रण कायम करने का इनाम उन्हें संसद में अपने प्रतिनिधत्व के घटने के रूप में मिलेगा। यह दक्षिण भारत की जनता के बीच विराट असंतोष का कारण बनेगा। इसमें मौजूदा भाषा विवाद को भी जोड़ लिया जाय।

याद रखिए अतीत में भाषा के सवाल पर दक्षिण, विशेषकर तमिलनाडु, में भारी विरोध हो चुका है। दरअसल 1971 के बाद से अब तक परिसीमन न होने का मूल कारण यही रहा है। अगर जनसंख्या के हिसाब से परिसीमन हुआ तो दक्षिणी राज्यों का जो शेयर इस समय 24% है, वह मात्र 5% रह जाएगा। यह देश के संघीय ढांचे की भावना के मूलतः खिलाफ होगा।

जनसंख्या नियंत्रण के सराहनीय प्रयास के बावजूद दक्षिण के राज्यों का संसद में न सिर्फ प्रतिनिधित्व बेहद कम हो जाएगा बल्कि उसी अनुपात में उनका राजनीतिक प्रभाव भी कम हो जाएगा। अमेरिका में 1911 में जनसंख्या 9.4 करोड़ से बढ़कर अब 34 करोड़ हो गई है, लेकिन 1913 से ही संसद में संख्या 435 तय कर दी गई है।

इससे सभी राज्यों की सीटों की संख्या fix हो गई है, जो यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका की संघीय भावना के अनुरूप है। भारत में अगर जनसंख्या के आधार पर सीटें तय की गईं तो इसमें तमाम छोटे राज्यों समेत दक्षिण के राज्य नुकसान में रहेंगे। और यह पूरी तरह संघीय भावना के खिलाफ होगा।

दक्षिण के राज्यों में इस पर भारी नाराजगी है। उनका मानना है कि इससे राष्ट्रीय राजनीति में उनकी राजनीतिक दावेदारी खत्म हो जाएगी, संघीय स्वायत्तता और आर्थिक हिस्सेदारी के लिए यह घातक साबित होगा। हाल ही में एक सर्वदलीय बैठक में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि यह राष्ट्रीय राजनीति में हमारी राजनीतिक प्रासंगिकता पर हमला है। यह जनसंख्या नियंत्रण के सफल प्रयासों के लिए हमें सजा दी जा रही है।

दक्षिण के राज्यों को आशंका है कि इससे उन राज्यों को मिलने वाला सेंट्रल एलोकेशन भी घट जाएगा। सच्चाई यह है कि जनसंख्या के आधार पर 70% से 80% सीटें उन राज्यों के पास चली जाएगी जिनका रिकॉर्ड मानव विकास सूचकांक में सबसे खराब है। तमिलनाडु में प्रजनन दर जहां 1.6 है वहीं उत्तर प्रदेश में यह 2.70 है। केरल में जहां साक्षात दर 96.2% है, वहीं बिहार में यह अभी 61.8% के निम्न स्तर पर है। जाहिरा तौर पर जनसंख्या वृद्धि दर का संबंध शिक्षा और सामाजिक स्तर से है। लेकिन इसकी इन राज्यों को सजा मिले, इसका क्या औचित्य है ?

इसमें असली राजनीतिक पेंच यह है कि जिन राज्यों में सीटें बढ़ेंगी, वे भाजपा के गहरे प्रभाव वाले इलाके हैं जबकि जिन राज्यों की सीटें तुलनात्मक रूप से कम होंगी, वे कर्नाटक को छोड़कर भाजपा के क्षीण प्रभाव वाले इलाके हैं। जाहिर है अगर अभी इसे लागू किया गया तो भाजपा को जबरदस्त राजनीतिक लाभ मिल सकता है और इंडिया गठबंधन को भारी घाटा होगा। स्वाभाविक रूप से भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसे हर हाल में लागू करना चाहता है। हालांकि दक्षिण के राज्यों में विस्तार की उसकी महत्वाकांक्षा इसमें अवरोधक भी है।

बहरहाल अगर यह परिसीमन लागू हुआ तो दक्षिण के राज्यों में इसका विस्फोटक विरोध होना तय है। इसलिए राजनीतिक लाभ हानि के लालच से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता, राज्यों की स्वायत्तता, देश के संघात्मक ढांचे और देश में अमन चैन के पक्ष में यही श्रेयस्कर है कि परिसीमन के नाम पर राज्यवार सीटों के अनुपात से कोई छेड़छाड़ न की जाय।

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