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*कथ्य और तथ्य : क्या गांधी ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के लिए फांसी मांगी थी?*

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          ~ पुष्पा गुप्ता

सवाल नया नहीं है, गांधी विरोधियों का बहुत पुराना और प्रिय हथियार रहा है.  जवाब भी नया नहीं है- गांधी ने पूरी कोशिश की, अंत तक. सफल नहीं हुए! पर फिर से कुछ सावरकर भक्तों ने यही सवाल हवा में उछाल दिया है- वो भी आजीवन कांग्रेसी रहे पट्टाभि सीतारमैया की किताब- “कांग्रेस का इतिहास-(1885-1947) खंड-1” का संदर्भ निकाल कर। 

*दावा :*

     पट्टाभि के मुताबिक उस रोज गांधी ने वायसराय लार्ड इरविन से भगत सिंह की फांसी को लेकर ये कहा था-“भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी देनी है तो कराची के अधिवेशन के बाद देने के बजाए, पहले ही दे दी जाए। ताकि देश को पता चल जाए कि वस्तुत: उसकी क्या स्थिति है और लोगों के दिलों में झूठी आशाएं नही बंधेंगी।”

   *सच~ 1:*

  सवाल तो यह भी होना चाहिए कि भगत सिंह की सजा रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (तब 6 साल हो गए थे स्थापना के) और सावरकर- उन्हें माफ़ी मांग अंडमान से 1921 में रिहा होने के बाद 10 साल हो चले थे. गांधी हिंसा के विरोधी थे, इस झूठे दावे के बावजूद वह सच में भगत सिंह और साथियों की रिहाई की मांग न भी करते तो समझ में आता- संघ, सावरकर और हिन्दू महासभा ने भगत सिंह की रिहाई के लिए क्या किया? 

     यह उनकी कुछ नहीं किये होने की शर्म है जो बार बार ऐसे कुत्सित झूठों से निकल आती है! 

  *सच~ 2 :*

गांधी की ताकत ही यही है कि गांधी का लिखा, बोला कुछ भी समझने के लिए गांधी ही पर्याप्त हैं- उनकी ज़िन्दगी ही खुली किताब है. यहाँ भी  पट्टाभि सीतारमैया को ही उद्धृत किया जा रहा है- पर पूरा सन्दर्भ हटा कर झूठ फैलाने के लिए! 

     भगत सिंह को जब सजा हुई तब गांधी जेल में थे. 26 जनवरी 1931 को गांधीजी रिहा हुए। उसके बाद मार्च में गांधी-इरविन समझौता हुआ।

     इस समझौते के पहले काफी गुप्त रखी गई लंबी बातचीत में गांधी ने बार बार इरविन से भगत सिंह और साथियों की फांसी की सजा माफ़ कर उसे उम्रकैद में तब्दील करने का आग्रह किया- बार बार!  

     गांधी ने इस मामले में इरविन को 3 चिट्ठियाँ लिखीं- 8 फरवरी, 19 मार्च और 23 मार्च 1931 को. 

*पहली चिट्ठी में मुख्य बात :*

      “इस मुद्दे का हमारी बातचीत से संबंध नहीं है. मेरे द्वारा इसका जिक्र किया जाना शायद अनुचित भी लगे. लेकिन अगर आप मौजूदा माहौल को बेहतर बनाना चाहते हैं, तो आपको भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा खत्म कर देनी चाहिए. वायसराय को मेरी बात पसंद आई. उन्होंने कहा – मुझे खुशी है कि आपने इस तरीके से मेरे सामने इस बात को उठाया है. सजा कम करना मुश्किल होगा, लेकिन उसे फिलहाल रोकने पर विचार किया जा सकता है.” 

     किसी भी ईमानदार आदमी को साफ़ दिखाई देगा कि हिंसा के अपने विरोध के बावजूद गांधी सजा ख़त्म करने की मांग कर रहे हैं और इरविन बात बदल रहे हैं. 

     21 मार्च को गांधी ने इरविन से मुलाकात भी की. उन्होंने फिर से अपनी अपील दोहराई।वे 22 मार्च को इरविन से फिर मिले। फिर मांग दोहराई-  23 मार्च को उन्होंने अगली चिट्ठी भेजी– यह आखिरी कोशिश थी क्योंकि फांसी का दिन अगला था- 24 मार्च। 

इस चिट्ठी में गांधी ने खुद अपनी ही विचारधारा से आगे जाकर अपील की- जिस गांधी ने विचारों के आगे जनमत की कभी परवाह नहीं की- वह चाहे असहयोग आंदोलन वापस लेना हो, या नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ पट्टाभि को अपना उम्मीदवार बना देना- वही गांधी इस चिट्ठी में 

“निजी तौर पर, एक दोस्त के नाते” 

अपील दोहरा रहे थे – जनता का मूड, माहौल, शांति, क्रांतिकारियों को हिंसा के रास्ते से लौटा लाने की उम्मीद जैसी तमाम वजहें गिनाकर गांधी ने अपील की. कहा, सजा रोक दीजिए. इस चिट्ठी की भाषा देखें- विश्वास नहीं होता कि यह गांधी की भाषा है- जनमत के लिए. वह दया की प्रार्थना कर रहा है!

      “‘जनमत चाहे सही हो या गलत, सजा में रियायत चाहता है. जब कोई सिद्धांत दांव पर न हो तो लोकमत का मान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है. …मौत की सजा पर अमल हो जाने के बाद तो वह कदम वापस नहीं लिया जा सकता. यदि आप यह सोचते हैं कि फैसले में थोड़ी सी भी गुंजाइश है, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करूंगा कि इस सजा को, जिसे फिर वापस नहीं लिया जा सकता, आगे और विचार करने के लिए स्थगित कर दें. …दया कभी निष्फल नहीं जाती.’

बाकी इरविन के सजा न रोक पाने के अपने कारण थे- भगत सिंह अंग्रेजों के लिए एक हत्या के आरोपी थे, खुद उनके साथ रहे एक क्रांतिकारी के वादामाफ गवाह बन जाने के बाद सबूत भी थे. 

     दूसरे एक राजनैतिक फैसले के लिए फांसी रोकना- प्रिवी कौंसिल के इंकार के बाद- तकनीकी तौर पर संभव नहीं था- क्षमादान का अधिकार चला गया था. 

फिर भी गांधी ने कोशिश की और अंत तक की! 

अब आएं इस सवाल पर कि क्या उन्होंने इरविन के यह कहने पर कि सजा कांग्रेस अधिवेशन तक टाली जा सकती है- पर वही कहा होगा जो पट्टाभि बता रहे हैं?

     गांधी इसीलिए गांधी हैं- बेशक कह सकते हैं! जनता को झूठी उम्मीद दिखा कराची अधिवेशन सफल बनाने के बदले फांसी के बाद का जान आक्रोश झेलने को तैयार होना- यह गांधी ही कर सकते हैं! 

*फिर से उद्धरण देखिये- जिसमें बड़ी सफाई से निकाल लिया गया है :*

     “भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी देनी “ही” है तो कराची के अधिवेशन के बाद देने के बजाए, पहले ही दे दी जाए। ताकि देश को पता चल जाए कि वस्तुत: उसकी क्या स्थिति है और लोगों के दिलों में झूठी आशाएं नही बंधेंगी।”

झूठी आशाएं नहीं बंधेंगी! यह कह रहे है गांधी!  

उन्होंने कराची में गुस्से में आये समर्थकों के सवालों पर निडरता से जवाब भी दिया : 

      ‘मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा था, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया. मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी. भगत सिंह की परिवारवालों के साथ निश्चित आखिरी मुलाकात के दिन यानी 23 मार्च को सवेरे मैंने वाइसराय को एक खानगी (अनौपचारिक) खत लिखा. उसमें मैंने अपनी सारी आत्मा उड़ेल दी थी. पर सब बेकार हुआ.’  

    खैर- जनता तब भी गांधी के साथ ही रही ये खुद अपने आप में एक बड़ा जवाब है!

*बड़ा सवाल :*

    बड़ा सवाल यह कि संघ, सावरकर और हिन्दू महासभा ने भगत सिंह को बचाने के लिए क्या किया? आरएसएस के देशद्रोहियों ने भगत सिंह को श्रद्धांजलि तक नहीं दी थी। 

    गांधी ने तो बाद में 29 अप्रैल, 1931 को सी विजयराघवाचारी को भेजी चिट्ठी में बताया कि वे क्या क्या कर रहे थे : 

     इस सजा की कानूनी वैधता को लेकर ज्यूरिस्ट सर तेज बहादुर ने वायसराय से बात की. लेकिन इसका भी कोई फायदा नहीं निकला.  

      खैर- गांधी-इरविन समझौते के बाद करीब 90 हजार राजनीतिक कैदियों की रिहाई हुई। उनमें से एक भी संघी या हिन्दू महासभा का नहीं था. ये भी एक जवाब है।

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