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तानाशाह, साहित्य-संस्कृति के मेले और चुप्पियां

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सुधा सिँह

(1). तानाशाह और…मेले

हालाँकि हर चुनाव में उसका जीतना तय होता था
लेकिन फिर भी तानाशाह कम से कम
चुनाव तो करवाता ही था
अपार धन और ताकत ख़र्च करके
जनता से अपनी ताकतवर सत्ता के लिए
सहमति हासिल करने के लिए
एकदम संवैधानिक और लोकतांत्रिक तरीके से I
अपने लिए बस थोड़ा सा ही लेकर तानाशाह
सभी उद्योगपतियों-व्यापारियों को दोनों हाथों से धन बटोरने की
छूट देता था ताकि वे देश की तरक्की में
खुलकर योगदान कर सकें I
तानाशाह अपने संघर्षों की कहानियाँ
युवाओं को प्रेरित करने के लिए
बार-बार बताता था और इस विश्वास को
पुख़्ता बनाता था कि अगर लगन हो तो
कोई चोर, रंगसाज़, सड़क का गुण्डा, तड़ीपार
या चाय बेचने वाला भी
सत्ता के शीर्ष तक पहुँच सकता है
और देश की बहुमूल्य सेवा कर सकता है
बशर्ते कि इस महान लक्ष्य के लिए उसमें
कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत हो,
सड़कों पर ख़ून की नदियाँ बहाने देने का,
आगज़नी, दंगों और बलात्कारों की
झड़ी लगा देने का दृढ़निश्चय हो,
जगत सेठों का दिल जीत लेने का हुनर हो
और लाखोलाख गुण्डों, मवालियों, लंपटों को
धर्मयोद्धा बना देने का जादू हो!
तानाशाह ने लोकतंत्र और संविधान के प्रति
अपनी निष्ठा को सिद्ध किया,
न्याय और शासन-प्रशासन के
नये मानक बनाये,
यहाँ तक कि इतिहास और विज्ञान के क्षेत्र में भी
उसने अपनी विलक्षण प्रतिभा का प्रदर्शन किया I
इसतरह तानाशाह ने अपने सारे सपने पूरे किये
लेकिन फिर भी उसके दिल में एक मलाल था,
एक कसक थी I
तानाशाह चाहता था कि उसे कला-साहित्य के क्षेत्र में भी
जनवादी मूल्यों का संरक्षक और उन्नायक माना जाये
और आलोचना की स्वतंत्रता के मामले में उसकी
सहिष्णुता और उदारता
इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो!
फिर क्या था!
तानाशाह के संस्कृति मंत्रालय ने
और उसके विश्वसनीय मीडिया घरानों ने
और चुनिंदा सांस्कृतिक एजेंटों ने
देश भर में साहित्य-कला के रंगारंग जलसे करवाये
और उनमें अपने ख़ास सांस्कृतिक प्रचारकों
और बौद्धिकों के साथ
सत्ता-विरोधी और प्रगतिशील मानी जाने वाली
नामचीन हस्तियों को भी सादर बुलाया
और मंच पर सजाया I
वहाँ सबसे पहले देश के संस्कृति-निर्माताओं के नाम
तानाशाह का शुभकामना संदेश पढ़ा गया I
फिर जैसा कि पुरज़ोर आग्रह था आयोजकों का,
उन नामचीन जनवादी हस्तियों ने मंच से
शांति, मनुष्यता, प्यार, लोहे की धार,
समुद्र पर हो रही बारिश आदि-आदि के बारे में
कविताएँ एवं कथाएँ सुनाने के साथ ही
तानाशाह और तानाशाही की, आतंक और दमन की
सुन्दर कलात्मक आलोचनाएँ भी कीं I
इसतरह तानाशाह की सहिष्णुता और लोकतांत्रिक मिज़ाज की
और जनवादी साहित्य की प्रगति में उसके योगदान की
ख्याति दिग-दिगंत में गुंजायमान हुई I
इतिहास में भी दर्ज हुई I
देश के उन्नत चेतना वाले, अमनपसंद और तरक्कीपसंद
बहुतेरे भद्र सुसंस्कृत नागरिकों ने अपने बैठकख़ानों में
मेज पर हाथ पटकते हुए कहा कि
“आखिर हमें तमाम ऐसे मंचों पर जाकर
अपनी बात क्यों नहीं कहनी चाहिए,
आखिर हमें ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर
ऐसी लोकप्रिय, लोकतांत्रिक, प्रबुद्ध निरंकुशता को
स्वीकार क्यों नहीं कर लेना चाहिए
जो फ़ासिज़्म तक को ‘रीडिफ़ाइन’ कर रही हो
और ख़ास तौर पर तब, जब हमारे सामने
विकल्प भी कोई और न हो!
बल्कि हमें तो आगे बढ़कर
ऐसी हुकूमत की मदद तक करनी चाहिए और
इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र, सौन्दर्य शास्त्र आदि की
किताबें भी फिर से लिखनी चाहिए!”

(2).चुप्पियां
कोई खोज ले हमको
बस इसी आस में
खोए हुए हैं हम सब
अपने स्व के अरण्य में,

तकते हैं इक दूजे की ओर
जैसे एक अंधेरा दूसरे अंधेरे में
और एक चुप्पी दूसरी चुप्पी में
तलाश रही हो इक सहारा

दूर तलक देखने पर भी
जब दिखता नहीं कोई
कहीं दूर से भी
आती नहीं आवाज कोई

थक हार कर हम फिर
ओढ़ लेते हैं इस अरण्य को
और हर बार शायद
पहले से कहीं अधिक

क्या खो जायेंगे हम सभी
एक दिन इस स्व के अरण्य में
सामने वाला पहले बोले
बस इसी प्रतीक्षा में

इससे पहले कि बदल जाएं
ये चुप्पियां भंयकर सन्नाटों में
और खो दें हम अपनी आवाजें
तोड़कर चुप्पी कुछ तो बोलो

आखिर कुछ तो फर्क रहे
इंसान और बुत में.

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