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‘आतंकवाद का फर्जी ठप्पा’…..आतंकवादी होने के फर्जी ठप्पे के खिलाफ लड़ाई की दास्तान

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आकांक्षा आज़ाद

‘आतंकवाद का फर्जी ठप्पा’ जैसा कि नाम से ही अंदाजा लगाया जा सकता है, यह एक नौजवान लड़के की खुदपर आतंकवादी होने के फर्जी ठप्पे के खिलाफ लड़ाई की दास्तान है। यह साल 2016 में आई किताब ‘फ्रेम्ड एज ए टेररिस्ट’ का हिंदी अनुवाद है। हिंदी अनुवाद से पहले अंग्रेजी में आई इस किताब का तमिल, तेलुगु समेत कई अन्य भाषाओं में अनुवाद हो चुका था लेकिन इसके हिंदी अनुवाद का हमसब के बीच आना 2024 में ही हो पाया। 

पुलिसिया तंत्र, खुफिया विभाग और न्याय व्यवस्था के कार्यप्रणाली से अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए इस किताब की दुनिया किसी दूसरी दुनिया जैसी लगेगी, जिसको न ही उन्होंने सुना है न ही कभी देखा है। यह किताब पुरानी दिल्ली के एक निर्दोष 18 वर्षीय नौजवान की कहानी है जहां उसने 14 साल खूंखार आतंकवादी होने का ठप्पा झेला और यह भी इस कारण क्योंकि वह एक अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाला व्यक्ति हैं। आज भारत समेत पूरे विश्व में मुसलमानों के खिलाफ नैरेटिव गढ़ा गया है – क्रूर, खूंखार और आतंकवादी होने का नैरेटिव। मोहम्मद आमिर इसी नैरेटिव का शिकार होते है और साजिशकर्ता है भारतीय खुफिया एजेंसियां और पुलिस तंत्र। 

किताब के माध्यम से आमिर अपनी जिंदगी के उन घटनाक्रमों का जिक्र करते है  जिसने उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी और एक खूंखार आतंकी होने का ठप्पा लगा दिया। यह घटनाक्रम वह है जब उन्हें भारतीय खुफिया एजेंसी में कार्यरत किसी ‘गुप्ता जी’ द्वारा पाकिस्तान से कुछ गुप्त फोटो और कुछ दस्तावेज लाने का काम दिया गया। लेकिन पाकिस्तान में अपनी यात्रा के दौरान इस काम को करने में वो एक ‘अनाड़ी जासूस’ साबित हुए और वाघा बॉर्डर पर चेकिंग में पकड़े जाने के डर से उन्होंने दस्तावेज फेंक दिए। पाकिस्तान जल सेना मुख्यालय की जो गुप्त तस्वीरें लेनी उन्हें लेनी थी उस काम में वह घबरा कर पहले ही असफल हो चुके थे। 

एक आम इंसान को अंदाजा भी नहीं हो सकता है कि नादानी और सरकारी नौकरी और आर्थिक सहायता मिलने की उम्मीद में ‘गुप्ता जी’ को किए गए वादे और डर के मारे उसे पूरा न करने का अंजाम क्या हो सकता है। आमिर ने इस अंजाम को सात दिन की अंतहीन यातना के रूप में झेला, जब 20 फरवरी 1998 को सादी वर्दी में पुलिस और खुफिया एजेंसी के लोगों ने उनका रात 9 बजे के बाद बीच सड़क से अपहरण कर लिया।

किताब इस बात का बेहतरीन तरीके से जिक्र करती है कि कैसे खुफिया एजेंसियां किसी भी अन्य तंत्र के प्रति जवाब देह नहीं हैं, इसकी कार्यप्रणाली देश की अखंडता और सुरक्षा को बनाए रखने के नाम पर पूरी तरह गुप्त है। किसी भी खुफिया विभाग का जासूस अगर किसी अन्य देश में पकड़ा जाता है तो यह एजेंसियां उनकी जिम्मेदारी तक नहीं लेती और वह जासूस उस देश की जेलों में सड़ता रहता है। ना जाने कितने मासूम लोगों को इन एजेंसियों ने बलि का बकरा बनाया है और कोई जवाबदेही न होने के कारण इन पर कोई कानूनी कारवाई भी नहीं होती है। 

इसी तरह के किसी खुफिया एजेंसी के ‘गुप्ता जी’ का काम पूरा न करने के एवज में आमिर को पाकिस्तानी एजेंट होने का तमगा भी मिला है। सात दिन तक उनका अपहरण करने के बाद जिस तरह से उनको यातनाएं दी गई उससे इस क्रूर, सांप्रदायिक और मानव विरोधी व्यवस्था से भरोसा उठ जाता है। उन्हें भूखा रखा गया, बार-बार बेहोश हो जाने तक मारा-पीटा गया, नाखून नोच लिए गए, पीट-पीट कर जबड़ा तोड़ दिया गया, पानी के नाम पर सर्फ घुला पानी पीने के लिए दिया गया। पैरों और घुटनों को तोड़ने के लिए रोलर चलाया गया, बिजली के झटके दिए गए, साथ में सांप्रदायिक गालियों की अनगिनत बार बौछार होती रही।

इससे साफ होता है कि मुसलमान विरोधी विचार संस्थागत रूप ले चुकी है और पुलिस जैसी तमाम एजेंसियां मुसलमानों को इंसान मानती ही नहीं है इसलिए उनपर इस हद तक जुल्म ढाए जाते हैं। यातना के दौर में पुलिस वालों ने यह जरूर ध्यान रखा कि आमिर के जेल जाने के दौरान मेडिकल में उनके चोट के निशान न दिखें इसलिए उन्हें बीच-बीच में दवाई दी गई, इस तरह पीटा गया की कोई सबूत न छूटे। रही सही कसर मेडिकल करने वाले डॉक्टरों ने कर दी। यह डॉक्टर सिर्फ कोटा पूरा करते हैं और जख्म देखकर भी सफेद झूठ लिखते हैं। किताब इसका रूपक है कि आखिर इस व्यवस्था ने सबको कितना गैर मानवीय बना दिया है चाहे पुलिस हो, खुफिया तंत्र के लोग या कोर्ट ने बैठे जज। 

इन सब के बीच दो महत्वपूर्ण बातें समझने लायक हैं। पहली कि यह दौर भाजपा के 2014 वाले शासन का दौर का नहीं है बल्कि उससे करीब 16 साल पहले की बात है। इसका मतलब की पूरे समाज में मुसलमान द्वेषी भावनाएं आज की उपज नहीं है और इसे भाजपा का शासन खत्म करने से बदला नहीं जा सकता है। यह एक वैश्विक नैरेटिव का हिस्सा है और यह आम लोगों के दिमाग में जड़ जमा चुका है। इसका उदाहरण हम इस रूप में समझ सकते हैं जब आमिर जिक्र करते हैं कि केस के शुरुआत में जज का रवैया आमिर के प्रति मानवीय था, जब उनके पिता अस्पताल में थे उन्होंने उनसे मुलाकात करने की भी इजाजत दी। लेकिन भारतीय संसद पर हमले और अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले ने सारे मुसलमानों के प्रति प्रशासन का रवैया बदल दिया।

इस कारण जेल में कई बार मुसलमान कैदियों को मार-पीट का भी सामना करना पड़ता था। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि आमिर पर जिस तरह का कहर बरपाया गया है, आम जनमानस में भारतीय सिनेमा द्वारा इस प्रकार के पुलिसिया जुल्म का सामान्यीकरण किया गया है। जहां पुलिसकर्मी जो न्यायोचित प्रक्रिया से इतर मार-पीट कर आरोपी से जुर्म स्वीकार करवाता है, थर्ड डिग्री यातनाएं देता है, उसे हीरो की तरह दिखाया जाता है। फिल्मों का आम जनता पर गहन प्रभाव पड़ता है। आज भी जब तमाम आरोपियों पर बिना मुकदमा चलाए ‘बुलडोजर न्याय’ के तहत उनके घर गिरा दिए जा रहे या उनकी सम्पत्ति छीन ली जा रही, उनके साथ मारपीट की जा रही है तो आम जनता खुश होती है और पुलिस के लिए तालियां बजाती है। निश्चित तौर पर यहां पीड़ित पक्ष अल्पसंख्यक, दलित,  पिछड़े ही है।

पुलिसकर्मियों के इसी यातना के फलस्वरूप ही पुलिस ने आमिर से 100-150 सादे पन्नों पर हस्ताक्षर करवाकर और अंततः 7 दिन के अपहरण के बाद पुलिस उन्हें 1997 से लेकर 1998 तक में हुए बम धमाकों में शामिल आतंकवादी के रूप में कोर्ट में पेश करती है। आपको बताते चलें कि यह सीरियल बम धमाके दिल्ली, हरियाणा समेत उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में हुए थे। 20 फरवरी से 26 अप्रैल तक आमिर के जेल जाने तक पुलिस तमाम फर्जी सबूत और कहानियां गढ़ती रही। पुलिस कस्टडी में लेने के बाद पुलिस आमिर को उन सभी जगहों पर ले गई,  जहां से बम खरीदने या अन्य शामिल लोगों से मिलने की बात साजिशन उन्होंने अपने कहानी में लिखी थी। पुलिस ने कई फर्जी गवाह भी बनाए हालांकि यह गवाह कोर्ट में अपने बयानों से पलट गए और उन्होंने आमिर के खिलाफ बयान देने से इंकार किया। यह आमिर के बरी होने का मुख्य आधार भी बनी। 

किताब के दूसरे मुख्य पहलू पर बात करें तो यह किताब जेल की वैश्विक स्थिति, इसको खत्म करने के लिए उठ रही आवाजों को, भारत में देशद्रोह कानूनों जैसे POTA, TADA की सच्चाई को भी सामने लाती है। 2024 में आई हिंदी अनुवाद इस किताब  के बहाने से ही फिर से इन सभी मुद्दों परदेश भर के सिविल सोसायटी में एक बड़ी चर्चा चलनी चाहिए थी और इन मुद्दों पर सड़क पर उतरना चाहिए था हालांकि ऐसा होते हुए नहीं देखा गया। उस दौर में सरकारों के पास टाडा और पोटा था, आज सरकारों के पास यूएपीए है जिसका वह भरपूर इस्तेमाल कर रही। न्यूजक्लिक पर दमन हो या भीमाकोरेगांव केस या बस्तर के आदिवासी जो जल-जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ रहे, उनपर यूएपीए का प्रयोग हो रहा। 

1947 के बाद से ही हम देखते है कि जनांदोलनों को रोकने और विरोध करने वाले लोगों को एफआईआर, जेल और सजा का डर दिखाने के लिए तरह तरह के जन विरोधी कानून बनाए गए। इनको कानूनों को बनाने में अलग-अलग पार्टियों की सरकार रही। समय-समय पर इनमें संशोधन भी किए गए और कानूनों को ज्यादा कठोर बनाया गया। इनमें निश्चित रूप से सभी सरकारों का एक ही मकसद था- लोगों के उभरते गुस्से को डर में बदलना। देशद्रोह जैसे आरोप लग जाने के बाद समाज के लोग आपसे कट जाते और इस तरह लोगों को मनोबल भी तोड़ दिया जाता है ताकि वह विरोध ना करे। जीवनपर्यंत एक ठप्पा आपके साये की तरह चलता रहता है जैसे की आमिर के साथ हुआ। आमिर बताते हैं कि जब उनके परिवार को साथ की सबसे जायदा जरूरत थी तब समाज के लोगों ने उनका साथ छोड़ दिया, बीमार माता-पिता किसी तरह बेटे के रिहाई के लिए लड़ते रहे। रिहाई के बाद भी नौकरी के लिए उन्हें दर-दर भटकना पड़ा। और सबसे दुखदाई बात है कि यह आमिर की तरह ही हजारों मुसलमानों को सच्चाई भी है। 

देशद्रोह के कानूनों की बात करें तो कई बदनाम जनविरोधी कानून हैं- यूएपीए (1967) यानी गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, टाडा 1985, पोटा। इनसभी कानूनों का मकसद गैरकानूनी गतिविधियों को खत्म करने की आड़ में व्यक्ति की गरिमा, न्यायोचित कानूनी प्रक्रिया और लोकतांत्रिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाना ही था। ज्यादातर कानूनों में गैरकानूनी गतिविधि को परिभाषित भी नहीं किया गया था इससे पुलिस के पास असीमित अधिकार होते हैं कि वह अपने विवेक से गतिविधियों को कानूनी और गैर कानूनी करार दें और गैरकानूनी गतिविधि में शामिल लोगों को चिन्हित कर इनपर करवाई करें। किताब में दिए गए एक आंकड़े के अनुसार इन कानूनों और पुलिस की कार्यप्रणाली का उदाहरण इससे मिलता है कि टाडा के अस्तित्व में आने के बाद इसके अंतर्गत 67000 लोगों को हिरासत में लिया गया और मुकदमा सिर्फ 8000 लोगों पर चलाया गया। सजा करीब 725 लोगों को हुई ( कोर्ट और पुलिस की दुर्भावना के आधार पर इसकी भी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाना चाहिए )। बाकी लोग बिना सुनवाई की प्रक्रिया शुरू हुए जेलों में सड़ते रहे। ध्यान देने वाली बात है कि इनमें ज्यादातर धार्मिक अल्पसंख्यक ही थे और मामला सिर्फ गुजरात का था। 

किताब की सकारात्मक पहलू है कि इसमें जेल में व्याप्त गड़बड़ियों को भी अच्छे तरीके से विस्तारित किया गया है। किताब पढ़कर जेल के लिए भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला मुहावरा सटीक दिखता है। यानी जो जितना दबे उसे उतना दबाया जाए। जेल में कमजोर बंदी को अक्सर जेल प्रशासन के शह पर मारा-पीटा जाता है, नौजवान युवकों का बलात्कार होना भी आम है। 

असल में हमारी न्यायिक प्रक्रिया न्याय देने की प्रक्रिया नहीं है। यहां अभियोजन यह साबित नहीं करता की आप दोषी हैं, बल्कि यह बचाव पक्ष के ऊपर डाल दिया जाता है कि आप खुद को निर्दोष साबित करो। एक तरफ पूरा तंत्र जिसके पास तमाम हथियार हैं झूठे गवाह, झूठे सबूत, मीडिया ट्रायल, झूठी कहानी और एक तरफ है आप जिसपर अगर आतंकी या माओवादी होने का आरोप लग जाए तो अक्सर आपके साथ आपका परिवार और समाज भी नहीं होता है। और खुद को निर्दोष साबित करने की यह प्रक्रिया बेहद खर्चीली है। एक आम परिवार को न्याय पाने के लिए चप्पल घिसने पड़ जाते हैं। कानूनी जानकारी न होने के कारण वकीलों की फीस भरते- भरते परिवार सर से लेकर पैर तक कर्ज में डूब जाते है। इंसान के बाद कैदी को मानसिक रूप से तोड़ने का और बड़ा हथियार बनाया गया है – अंडा सेल यानी तन्हा कोठरी, जहां कैदी को 22 से 23 घंटे तक वहां रखा जाता है और आम तौर पर सिर्फ 1 घंटे के लिए बाहर लाया जाता है वह ताकि मानवीय संवेदना और मानवीय उपस्थिति से पूरी तरह कट जाए। एक लोकतांत्रिक देश में यह मानसिक प्रताड़ना का कानूनी तरीका है तो हम कैसे कह सकते है कि हम एक लोकतंत्र में रहते हैं। 

मोहम्मद आमिर पर दर्जनों फर्जी केस ठोकने के बाद उन्हें कई बार तन्हा कोठरी में रखा गया। उन्हें सर्दी के दिनों में सूरज की रोशनी से दूर रखा गया। उनके कोठरी पर कंबल डाल दिए ताकि उन्हें सूरज की रोशनी भी न दिखाई दे। और यह करीब पांच महीनों पर किया गया। इस उत्पीड़न का नतीजा भी दिखने लगा। आमिर बताते है कि इस कारण उन्हें याददाश्त की दिक्कत होने लगी, आंखों की रोशनी कम हो गई। 7 दिन के अपहरण और थर्ड डिग्री देने के कारण उनके पैरों और घुटने में दर्द रह गया जो 14 साल बाद जेल से छूटने पर भी बना रहा। प्रताड़ना का एक और तरीका है सुनवाई को कोर्ट द्वारा अत्यधिक खींचा जाना जिससे आरोपी पस्त हो जाए। आमिर को खुद को जेल से निकालने में चौदह साल लग गए, उत्तर प्रदेश बम विस्फोट मामले में सुनवाई तेरह साल बाद हुई। इतने सालों की मानसिक प्रताड़ना झेलना कोई सामान्य बात नहीं है।

इसी तरह की प्रताड़ना आज हम दिल्ली के शरजील इमाम, उमर खालिद, भीमाकोरेगांव केस समेत न जाने कितने मामले  में देख रहे जहां बिना किसी जुर्म और सबूत के दर्जनों लोगों को जेल में रखा जा रहा और तरह-तरह से मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा। यहां शकील का जिक्र करना जरूरी है। शकील आमिर का सह आरोपी था जिसने न्यायपालिका के रवैए से तंग आकर जेल में अपने चादर से फांसी लगा ली। उसके मन में न्यायपालिका के उदासीन रवैए के कारण कोई उम्मीद नहीं बची थी और तंग आकर उसने मौत का रास्ता चुन लिया। जेल प्रशासन ने भी इस बात को दबा दिया की शकील ने आत्महत्या क्यों की। और पता नहीं कितने शकील आज भी इसी तरह व्यवस्था के शिकार बन रहे और उनकी कोई सुनवाई नहीं है। 

कुल मिलाकर कहें तो यह किताब निश्चित से पढ़ी जानी चाहिए। मानव विरोधी इस व्यवस्था को समझने और उससे लड़ने के लिए और इसके साथ-साथ आज के निराशा के दौर में आमिर के संघर्षों से उम्मीद लेने के लिए। आमिर का संघर्ष मानवाधिकारों के लिए लड़ने वाले लोगों को ऊर्जा दे सकता है। जेल में रहते हुए उन्होंने कई तरह की पढ़ाई की जिसमें कानून की पढ़ाई के साथ संविधान की पढ़ाई भी शामिल है।

रिहाई के बाद आमिर गैर सरकारी संस्था में काम कर रहे हैं जो सांप्रदायिकता को कम करने, पीड़ितों की मदद करने, अमन और शांति बनाए रखने के लिए काम कर रहें हैं। ( मेरा व्यक्तिगत तौर पर गैर सरकारी संस्था से वैचारिक मतभेद होने के बाद भी इतनी यातनाएं झेलने के बाद भी आमिर का समाज के लिए काम करना अपने आप में बड़ी बात है कि वह टूटे नहीं हैं)। आमिर की किताब निश्चित तौर पर पढ़ी जाए, इसलिए भी कि आगे कोई नौजवान आमिर की तरह यातना का शिकार न हो जाए, ताकि देश द्रोह के कानूनों के खिलाफ मोर्चा तैयार किया जा सके, ताकि हम सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए एक कदम आगे बढ़ा पाए।

(आकांक्षा आज़ाद बीएचयू में भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा की अध्यक्ष हैं।)

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