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अनुचित है, सरकारी कर्मचारियों की संघीय भागीदारी 

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-सुसंस्कृति परिहार 

 लौह पुरुष सरदार बल्लभभाई पटेल ने 21 अप्रैल 1947 को दिल्ली के मैटकाफ़ हाउस में अखिल भारतीय सिविल सेवा का उद्घाटन करते हुए इसे ‘स्टील फ़्रेम ऑफ़ इंडिया’ कहा था। यानी सिविल सेवा से एक ऐसे इस्पाती ढाँचे के रूप में काम करने की अपेक्षा की गयी थी जिसकी एकमात्र प्रतिबद्धता संविधान और क़ानून का शासन हो। इसके लिए जाति या धर्म की संकीर्णताओं से मुक्त रहना लाज़िमी था। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों को राजनीति से दूर रहना था ताकि सरकारों के आने-जाने से इस ढाँचे पर कोई फ़र्क़ न पड़े।

विदित हो,देश में जारी तमाम उथल-पुथल के बीच 1966 में सरकारी कर्मचारियों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमाते इस्लामी की गतिविधियों में शामिल होने पर रोक लगायी गयी थी। डिप्टी सेक्रेटरी आर.एम.श्रॉफ़ के हस्ताक्षर से जारी ऑफिस मेमोरेंडम में कहा गया था कि इन दोनों संगठनों की गतिविधियों में भाग लेने से सिविल सेवा आचरण नियमावली, 1964 के नियम-पाँच का उल्लंघन होता है जो राजनीति में भागीदारी करने से सरकारी कर्मचारियों को रोकता है।

विगत दिनों सरकारी कर्मचारियों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर 58 साल से लगा हुआ प्रतिबंध इस सरकार ने हटा लिया है। यह केन्द्र सरकार के संपूर्ण भगवाकरण पर लगी हुई फिलहाल एक मात्र औपचारिक रोक ही बची थी जिसे हटाकर  हटा कर वर्तमान सरकार संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ कर रही है हालांकि जैसा कि विगत दस वर्षों में हमने भली-भांति इस बात को समझ लिया है कि भाजपा सरकार संघ का ही एक अनुषंगी संगठन जिसमें संगठन से लेकर पीएम, लोकसभाध्यक्ष वगैरह वगैरह शाखाओं की उपज हैं। इसी विचारधारा से जुड़े लोग बड़ी तादाद में प्रशासन और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण संस्थान में पदस्थ हैं। न्याय पालिका में भी संघ की गहरी पैठ बनी हुई है। यह मायनेखेज है कि शाखा वालों ने अपनी पहुंच हर जगह बना रखी है।

तब देश के करोड़ों कर्मचारी क्यों ना खुलकर संघ की शाखाओं और उनके प्रवचन कार्यक्रमों में जाएं। कोई पर्देदारी ना रहे। संघ के एक आव्हान पर वे जहां  बुलाएं उपस्थित रहें। आगे आप समझदार हैं जिसने आनाकानी की उसकी खैर नहीं। अब सरकारी कर्मचारी तो स्वभावत: सत्तारुढ़ सरकार के गुलाम ही माने जाते रहे हैं लेकिन उनका वोट निष्पक्ष रहता आया है कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं हुई। पिछले तमाम चुनावों में ऐसा ही होता रहा है। किंतु विगत सालों में बढ़ती मंहगाई तथा शासन के अनधिकृत हस्तक्षेप से कर्मचारियों का रुख़ बदला है यह उनके डाक मतपत्रों से उजागर हुआ है जिस पर संघ की नज़र है वे चाहते हैं कि कर्मचारियों की वोट संघ/भाजपा को ही मिले। इसलिए उन्हें अपने से जोड़कर डराने और दबाने के लिए यह छूट दी जा रही है। वे इन्हें सत्ता के गुलाम समझते हैं और यह भी भली-भांति जानते हैं कि इनसे अच्छा सस्ता कार्यकर्ता नहीं मिल सकता। कर्मचारियों का वोट ईवीएम में मिक्स नहीं होता तथा मतदान केन्द्र की वोट का भी खुलासा हो जाता है इसलिए वे दबिश में भी रहते हैं। इस व्यवस्था में सुधार होना चाहिए। जिसमें गोपनीयता नहीं रहती। मतदाता डरते हैं।

बहरहाल, अप्रत्यक्ष तौर पर देश में अप्रत्यक्ष तौर पर संघ का ही साम्राज्य कायम है। ये बात और कि अब गुजरात के अवतारी पुरुष अपने गुरु के साथ ताल ठोकने में लगे हैं गुरु पूर्णिमा पर गुरु को खुश करने के लिए ही भाजपा सरकार ने कर्मचारियों के लिए यह द्वार खोल दिए हैं जो सिर्फ तथाकथित  भाजपा के प्रिय सरदार बल्लभभाई पटेल की ही उपेक्षा नहीं है बल्कि संविधान की मनोभावना की घोर उपेक्षा है। कर्मचारी जो अब तक अपना शासकीय दायित्व मनोयोग से निभा रहा था लेकिन मत मनमर्जी से देता रहा उसे संघ का गुलाम बनने मज़बूर किया जाएगा तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का अवसान सुनिश्चित है। समय रहते इस बदले कानून पर सुको को संज्ञान लेना चाहिए।

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