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रेडलाइट एरिया के वाशिंदों की पहली जीत….‘मैं धंधेवाली की बेटी हूं, धंधेवाली नहीं’

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नसीमा खातून की कामयाबी की कहानी, उनकी ही जुबानी 

नसीमा ख़ातून पिछले दो दशकों से यौनकर्मियों की संतानों की पहचान और अस्मिता को लेकर संघर्ष और जन-जागृति का काम कर रही हैं। वह यौनकर्मियों के बच्चों के शिक्षा व अधिकारों के लिए काम करती रही हैं और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सलाहकार समिति की सदस्य हैं। इसके साथ ही वो यौनकर्मियो का सामुदायिक संगठन ‘परचम’ का संचालन करती हैं। इतना ही नहीं, वह यौनकर्मी समुदाय की आवाज़ और पहचान को अभिव्यक्ति देने के लिए हस्तलिखित त्रैमासिक पत्रिका ‘जुगनू’ निकालती हैं। इन सबके अलावा वह राजस्थान नागरिक मंच महिला प्रकोष्ठ की महासचिव भी हैं। यह उनकी ही कहानी है और उनकी ही जुबानी है।

मेरा नाम नसीमा ख़ातून है। मैं मूलतः बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर जिले की हूं। वहां एक प्राचीन मंदिर है– चतुर्भुज स्थान। वह बहुत फेमस एरिया है, लेकिन मंदिर के कारण नहीं, बल्कि रेड लाइट एरिया के कारण। रेड लाइट एरिया जानते हैं न आप? वहीं जहां स्त्रियां देह व्यापार करती हैं। वहां मेरा ददिहाल है। वहीं मेरी परवरिश हुई। वहीं मैं पली-बढ़ी। वैसे तो मेरी पैदाइश सीतामढ़ी के रेडलाइट एरिया बोहाटोला में हुआ। मेरी मां का वहां मायका था। मेरे परिवार में 7 दादियां थीं। अभी एक जीवित हैं। उनका नाम है– शांति बीबी। मेरे तीन नानियां थीं। रेडलाइट एरिया बोलने पर महिलाओं की सबसे पहली छवि जो दिमाग में आती है वह यही कि वह धंधेवाली महिला है और वहां पर देह व्यापार होता है।

बिहार में ज़्यादातर रेडलाइट ब्रोथल एरिया है। इसका मतलब लोग वहीं रहते हैं, वहीं खाते-पीते हैं, वहीं पर उनका पूरा जीवन चलता है और वे वहीं पेशा करते हैं। मैं नसीमा ख़ातून उसी परिवार से आती हूं। वहां एक पूरी परंपरा होती है। उसमें जो बच्चे जन्म लेते हैं, उसी माहौल में जीते हैं।

मेरा एडमिशन जब स्कूल में कराया गया तब मैं छोटी थी। लेकिन घर में हमें यह बताया गया था कि आप अपना पता किसी से भी नहीं बताओगे। जब आपके बारे में कोई नहीं जानता तो उसे छुपा लेना आसान होता है। लेकिन जब आप किसी गांव या बस्ती में आने-जाने लगते हैं तो सभी को दिखता है कि आप वहां से आ रहे हैं या फिर वहां जा रहे हैं। फिर उसको छुपाना बड़ा मुश्किल होता है। तो हमारे लिए बड़ा कठिन था क्योंकि स्कूल जाना और बाक़ी बच्चों को देखना कि वे सब नॉर्मली अपने बारे में बता देते हैं और हमें बताने की इज़ाज़त नहीं थी। मनाही थी कि आप अपना परिचय नहीं दे सकते हैं। आप अपने बाक़ी दोस्तों को नहीं बता सकते कि मेरा घर भी वहां है। ये सब बहुत अटपटा था मेरे बचपन में कि क्यों नहीं बता सकते। बाक़ी बच्चे तो बता देते हैं, मैं क्यों नहीं बता सकती।

मेरे माता-पिता, दोनों एक ही ब्रोथल इलाके के थे। मेरे मां की मां भी पेशे में थी और पिता की मां भी पेशे में थीं। दोनों का बाल-विवाह हुआ था। उस वक्त तो बाल विवाह बहुत होते थे। उस इलाके में भी शादी की परंपरा है तो इन दोनों की शादी कर दी गई और मेरी मां मुज़फ्फ़रपुर आ गई। यहां मेरे पांच भाई-बहन का जन्म हुआ। मेरे जन्म के कुछ सालो बाद ही मां अलग हो गई। किसी और के साथ उनका अफेयर हुआ और वह चली गई हम सभी को छोड़कर। उस वक्त मेरी उम्र 7 साल थी। फिर पिता भी किसी और के साथ चले गए। हमारे पास 7 दादियां बचीं। सातों दादियों में पेशे के बहनापा का रिश्ता था। हमलोगों को 7 दादियों ने पाला और फैसला लिया कि साथ रखेंगे पर बच्चिंयों को पेशे में नहीं आने देंगे, चाहे कुछ भी हो जाए। इसके लिए दादियों ने बहुत संघर्ष किया। वह दादी जो ज़िंदा है, उनका नाम शांति बीबी है। यह नाम हिंदू-मुस्लिम साझा संस्कृति की मिसाल है।

पुलिस और मीडिया सबसे बड़े विलेन हैं

दादी की वजह से हम पेशे में नहीं आए, लेकिन एक सवाल मेरे मन में था कि पुलिस कभी भी रेड डाल देगी। वहां पर कोई क़ानून नहीं है, क्योंकि देह व्यापार बोलकर तो सब कहते हैं कि वह एरिया गंदा है। वहां अच्छे लोग आते नहीं हैं। पुलिस और मीडिया का एक पूर्वाग्रह रहता है कि उस एरिया में जो हैं, सब देह व्यापार ही करते हैं। तो जब भी हम किसी के सामने आते तो वे लोग बोल देते कि यह सेक्स वर्कर है। यह हमारी दादी और घर में लोगों को पसंद नहीं था, क्योंकि सब लड़कियां उस इलाके में सेक्स वर्कर नहीं हैं। लेकिन सामने वाले लोगों की तो यही समझ और जानकारी है कि इस इलाके में रहने वाली सभी सेक्स वर्कर हैं। इससे दादी और घर के लोग बहुत डरते थे कि हम लोगों को कहीं नहीं जाना और किसी से भी नहीं मिलना। पुलिस आने पर भाग जाना, छुप जाना। पुलिस रात में रेड करती तो दादी उठाकर बैठा देती और हाथ में किताब थमा देती कि पढ़ो ताकि कोई भी पुलिसवाला अंदर आए तो उसे पता चले कि तुम पढ़ने वाली बच्ची हो। वह खुद बहुत डरती थी। हमेशा कहती कि कुछ मत बोलना, चुप रहना नहीं तो वे कहीं से भी डंडा से पीट देंगे, कहीं से भी डंडा डाल देंगे और बेइज़्ज़ती हो जाएगी। फिर कैसे क्या होगा?

इन सबसे बचपन में बहुत डर लगता था। एक तो यह था। दूसरा यह कि हम किसी को बता नहीं सकते। कोई कुछ भी आकर बोल देगा। हम सच नहीं बोल सकते थे। बहुत अजीब-सी जिंदगी लगती थी। हमें लगता कि क्यों हो रहा है हमारे साथ ऐसा? बहुत छोटी थी और मेरे दिमाग़ में बहुत सारे सवाल थे। मैंने एक बार सबको बोला कि ऐसा क्यों नहीं है कि हम भी बात कर सकें बाक़ी बच्चों की तरह। तो उन्होंने भी कहा कि नहीं कर सकते, क्योंकि यहां पर जो धंधा है, वह गंदा है। मुझे लगा कि ऐसा क्या गंदा है, क्योंकि मेरे लिए तो सब कुछ वैसे ही था जैसे बाक़ी बच्चों के लिए उनका परिवार होता है। सब नॉर्मल ही लग रहा था मुझे। तो हमने कहा कि ऐसा क्यों लगता है? बड़ा एक सवाल था मन में।

नसीमा खातून, सदस्य, राष्ट्रीय मानवाधिकार सलाहकार समिति

बदलाव की पहली रोशनी

सन् 1995 में डीएम राजबाला वर्मा चतुर्भुज स्थान पर आईं। उन्होंने एक बहुत अच्छा पहल किया। वह अपने साथ ‘अदिति’ नामक एक संस्था को लेकर आईं और उस इलाके में एक-एक घर जाकर ज़मीन पर बैठकर महिलाओं से बात की। ट्राइसेम योजना के तहत क्रोशिया (क्रूस के जरिए धागों के सहयोग से बुनना), बिंदी बनाने जैसे छोटे-छोटे काम शुरू किये और काफी लोग उससे जुड़े। चूंकि कलेक्टर भी महिला थीं, महिला ऑर्गेनाइजेशन होने के नाते और मुद्दा भी महिलाओं का था तो वहां पर यह योजना खूब चली। दादी को लगा कि कुछ नहीं सीखेगी तो कम से क्रम क्रोशिया वगैरह तो सीख लेगी। शादी जब होगी तो देने में अच्छा रहेगा और इसके हाथ में हुनर भी रहेगा। यह कहकर दादी ने मेरा नाम लिखा दिया। मुझे क्रोशिया पहले से आता था तो थोड़ा सा प्रशिक्षण पाकर अच्छे स्पीड से बनाने लगी। दो-तीन महीने काम किया था कि मेरे पिता वापिस आ गए और बोले कि यहां का माहौल ठीक नहीं है, आए दिन पुलिस छापे मारती है। और मैं नानी के यहां सीतामढ़ी चली गई। उस वक्त मेरी उम्र 11 साल थी। वहां लोगों को मनाने के बाद अदिति संगठन के स्थानीय शाखा में कुछ समय के लिए काम किया।

लेकिन मेरी जेहन में यह बात थी कि कभी नानी के यहां, कभी दादी के यहां क्यों जाना पड़ता है? कहीं भी घर में भी आप चैन से नहीं रह सकते। सवाल उठता था कि कब तक मैं ऐसे भागती रहूंगी? यह सब डर मेरे दिमाग में चल रहा था कि कैसे क्या होगा? इसी बीच अदिति संस्था के लोगों ने मुझसे पूछा कि आप क्या चाहती हो, वापिस मुज़फ्फ़रपुर लौटकर काम करना है या यहां (सीतामढ़ी) में करना है? मैंने उनसे कहा कि मैं बार-बार आना-जाना नहीं करना चाहती और कब तक भागूंगी। मुझे कहीं तो रुकना होगा। और मेरे मन में बहुत सारे सवाल हैं, उनके जवाब मुझे ढूंढ़ने हैं। इस पर उन्होंने कहा फिर क्या करना है? मैंने उन लोगों से पूछा कि क्या मैं आप लोगों के साथ कुछ दिन रह सकती हूं?

हालांकि मुझे कोई काम नहीं आता था। जबकि अदिति संस्था उस समय ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं संग एग्रीकल्चर, अधिकारों को लेकर, बच्चों की शिक्षा आदि पर बहुत सारे काम कर रही थी। न तो मैंने इस तरह के काम के बारे में सुना था, न ग्रामीण इलाका देखा था। मुझे दुनिया में बस मेरा घर और क्रोएसिया सेंटर पता था। तो मैंने कहा कि मुझे तो कुछ नहीं आता, मैं क्या करुंगी। इस बात पर उन लोगों ने मुझसे कहा कि वे तो हमलोग कर लेंगे, आप यहां रह सकती हो। उस वक्त उऩका एक प्रोजेक्ट चलता था– ‘रिफ्लेक्ट’। उसमें प्रौढ़ शिक्षा के ज़रिए कैसे लोगों को उनके अधिकारों के बारे में सशक्त किया जाए और उन्हें साक्षर भी बनाया जा सके, उस कार्यक्रम को देखने के लिए उन्होंने मुझे सुपरवाइजर के काम पर रखा और दस दिन की ट्रेनिंग दी। फिर धीरे-धीरे जानकारी का दायरा बढ़ा तब नई चीजें सामने आईं। वहां छह साल तक काम करते हुए मुझे लगा कि मैं इसमें पूरा अपने आपको लगा दूं और नई चीजों को सीखूं। बिल्कुल भूल जाऊं कि जिस दुनिया में थी, वहां का सवाल क्या था। ‘रिफ्लेक्ट’ के तहत बढ़िया से काम किया। अब मैं प्रशिक्षक बन गई थी। लेकिन एक समस्या तब वहां भी थी और वह थी पहचान की समस्या। जिस संस्था में थी, वे तो मेरे बारे में जान रहे थे, लेकिन मैं जिन लोगों के लिए काम कर रही थी, वे सब लोग मेरे बारे में केवल इतना ही जानते थे कि मैं संस्था में काम कर रही हूं। वे यह नहीं जानते थे कि मैं इस इलाके से हूं, तो मेरे लिए छुट्टी में घर जाना और घर से वापिस आना बड़ा मुश्किल होता था। क्योंकि वो इलाका सीतामढ़ी में मेरे घर के पास में था। वहां जाने का मतलब था कि जितने लोग गांव के हैं, वे भी उस इलाके में जाते हैं तो वे मुझे भी देखेंगे ही। और उनको भी डर होता था कि नसीमा जी मुझे देख लेंगी। तो एक पहचान की क्राइसिस वहां भी थी। मेरे लिए बहुत छुप-छुपकर काम करने वाली स्थिति थी। काम तो मैं सशक्तिकरण का कर रही थी, लेकिन पहचान को लेकर मैं अंदर-अंदर बहुत डरी रहती थी। वही जो बचपन वाली डर थी। जब मैं सीतामढ़ी गई थी तब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ रही थी। कुछ समय के लिए पढ़ाई छूट गई। सीतामढ़ी में मैं जिस संस्था में काम कर रही थी, उन्हीं की मदद से विद्यापीठ से मैट्रिक खुद से किया। इग्नू से इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरा करने के बाद अब स्नातक कर रही हूं।

फिर जब हमें छला गया

वर्ष 2002 में मुज़फ्परपुर में दीपिका सोढ़ी नामक एक अतिरिक्त पुलिस निरीक्षक (एएसपी) आईं। वह ट्रेनिंग पीरियड में थीं और उस समय मैं छुट्टी पर गई थी। पटना में एक ट्रेनिंग दिलाने गई थी तो मैंने सोचा कि मुज़फ्फ़रपुर में सबसे मिलती चलूं। मैं गई तो मेरी थोड़ी तबीअत खराब हो गई और मैं वहीं रुक गई। उस समय वहां पर रेड हुआ। हमारा जो एरिया है, वहां पर पुलिस ने सभी महिलाओं को इकट्ठा किया। उऩको वहां पर बिठाया और वहां पर उन्होंने एक कमेटी बना ली। समाज सुधार कमेटी, जिसमें कुछ एनजीओ के लोग, कुछ पत्रकार, कुछ पुलिस के लोग थे। फिर सारी महिलाओं को एक जगह बिठाया और बोला कि देखो आपको ये धंधा छोड़ना होगा और हम आपको अगरबत्ती, मोमबत्ती, सिलाई-कढ़ाई करना बताएंगे। वह एचआईवी उन्मूलन से जुड़ा कोई कार्यक्रम था। धंधा बंद करने के सवाल पर महिलाओं ने कहा कि ठीक है, लेकिन इसको शुरू करने में कितना समय लगेगा। संस्था वाले लोगों ने कहा कि छह महीने में हमारा प्रोजेक्ट चालू हो जाएगा और उसके बाद हम आपके साथ रिहैबिलिटेशन (पुनर्वास) का काम कर सकते हैं। महिलाओं ने कहा कि देखिए हमारा भी परिवार है, हमारे बच्चे स्कूल जाते हैं, हम भी रेंट देते हैं, हमारे ऊपर कर्ज़ भी है, और तमाम तरह के ख़र्चे हैं जो हमारी दिनचर्या में शामिल हैं, तो जो आप छह महीने बोल रहे हैं तो हमें भी छह महीने दे दीजिए। छह महीने बाद हम भी आपके रिहैबिलिटेशऩ प्रोजेक्ट में जुड़ने को तैयार हैं। बस इतनी-सी बात पर जो प्रशासन और कमेटी के लोग थे, उनको लगा कि यह तो बहुत बड़ी बात बोल दी। ये तो देह व्यापार करने वाली महिलाएं हैं। इनकी इतनी हिम्मत कैसे हो गई? उन्होंने कहा कि नहीं, आप लोगों को तो यह धंधा अभी छोड़ना पड़ेगा। इस पर महिलाओं ने भी कहा कि हम अभी नहीं छोड़ सकते क्योंकि हमारे पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है और आपका जो काम होगा वो छह महीने बाद होगा। बस इतनी-सी बात पर उनलोगों ने पुलिस वैन बुलाया, उसमें सभी औरतों-बच्चों को ठूंसा और ले गए।

उस वक्त मैं अपने घर के दरवाजे से बैठकर यह सभी चीजें देख रही थी। मुझे लगा कि ये तो ग़लत हैं। जब खुद आपके पास कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है और आप किसी को कह रहे हो कि तुम जीना छोड़ दो तो यह बात बहुत ग़लत है। लेकिन वहां पर स्थिति अलग थी। गांव में यदि कोटेदार अंत्योदय योजना का अनाज नहीं दे रहा है तो हम हल्ला बोल देंगे, कोटेदार को जाकर 10 महिलाएं खदेड़ देंगी, लेकिन यहां स्थिति सीधे-सीधे यह नहीं थी कि हम सीधे प्रशासन को जाकर बोल देंगे, क्योंकि मुझे तो कोई नहीं जानता था। मैं उस इलाके की एक मामूली लड़की थी। वे जो कमेटी बना रखे थे, वह दादाओं की टोली थी। तो मेरे लिए उनसे सीधे जाकर भिड़ना सही नहीं था। फिर कोई एनजीओ या मीडिया जानती भी नहीं थी तो मुझे लगा कि यदि डायरेक्ट जाकर भिड़ती हूं तो पंगा हो जाएगा। फिर तो मैं कुछ नहीं कर पाउंगी। महिलाएं तो जेल चली गईं। मुझे डर था कि वे लोग मेरे साथ भी कुछ करेंगे। फिर दिमाग में विचार आया कि मैं अकेले नहीं कर सकती, पर लोगों के साथ में मिलकर तो कर सकती हूं। उस वक्त मेरी उम्र 16-17 साल रही होगी। तो वहां हमारी उम्र की जितनी लड़कियां थीं, मेरी सहेलियां थीं, जिऩकी मां, भाई सब गिरफ्तार हो चुके थे, जिनकी बहनों को भी उठाकर ले गए थे, मैंने उनसे मिलना शुरू किया। वहां से फिर बात हुई कि हम लोग ऐसे कब तक जीएंगे, कब तक भागेंगे, कब तक डरेंगे? एक ही सवाल का जवाब बार-बार दिमाग में आ रहा था कि हम जो छुपाते हैं, जो डरते हैं कि नहीं जाएंगे सामने, वही हमारे लिए सबसे बड़ा पत्थर है रास्ते का और इसे हटाना होगा। तो हटेगा कैसे? तो हम सभी लड़कियों ने रोज मिलना शुरू किया। बात करना शुरू किया। वे डरती थीं कि नहीं होगा। वे हमलोगों को मारकर फेंक देंगे अगर हम लोग थोड़ा-सा भी बोलेंगे तो। इसलिए यह कहना तो आसान है कि रेड लाइट इलाके के लोग सुधरते नहीं है, लेकिन पहल नहीं होती उस तरह से। वे तो बोलते थे कि प्रोजेक्ट का काम करेंगे और हम लोगों को तो लगातार लड़ाई लड़नी होगी। तो जो होगा हम उसको छोड़कर, अभी की सोचते हैं। हमने सोचा कि ये जो रेड हुआ, ग़लत हुआ। यह नहीं होना चाहिए था और यह इसलिए हुआ क्योंकि वे सच नहीं जानते। बहुत-से लोग सच नहीं जानते। हमें लोगों को सच बताना होगा। तो हम लोगों ने एक तैयारी की कि हम लोग अपने आपको ये इंट्रोड्यूस करेंगे कि– मैं रेडलाइट एरिया की बेटी हूं। अंग्रेजी में हम कहते कि “आई ऍम डॉटर ऑफ ए सेक्स वर्कर।” मुझे कोई दिक्कत नहीं है यह कहने में और इस बात का गर्व है। इससे लोगों को पता चलेगा कि यहां पर सेक्स वर्कर्स की बेटियां भी हैं, बच्चे भी है। लोग तभी जानेंगे हमें। यह कहकर हम लोगों ने कैंपेन शुरू किया। चुनौती यह थी कि सब को तो ‘सेक्स वर्कर’ शब्द सुनने की आदत है, तो लोग ‘डॉटर’ शब्द खा जाते थे और सेक्स वर्कर बोल देते थे, कि ये सब सेक्स वर्कर हैं। तो इसके लिए बहुत लंबे समय तक हम लोगों ने बोल-बोल कर लोगों की ग़लतफहमियां दूर की। अब यह स्थिति हो गई है कि हम लोगों ने वहां पर अपना एक संस्था बनाया है– ‘परचम’।

यौनकर्मी, सेक्स वर्कर, धंधेवाली, वेश्या इन्हीं शब्दों से समाज और व्यवस्था हमें संबोधित करते आ रहे हैं। हमने कोई शब्द बदले नहीं। न ही हमने कोई नया शब्द गढ़ा अपने समुदाय के लिए। समाज ने जो भी अपनी मानसकिता बना रखी है, हमने बस उन शब्दों की सत्यता के बारे में बात की कि आप यौनकर्मी या सेक्स वर्कर बोल रहे हैं तो वह क्या है। मैंने शुरू में बताया कि मैं जहां से आती हूं, वो समाज ब्रोथल बेस्ड है, वहीं पर उनका जीवन चलता है। वहां पर उनका पूरा परिवार और पूरा इको सिस्टम काम करता है। ये बात लोग नहीं जानते हैं कि यहां भी शादी विवाह होते हैं, यहां भी बच्चे होते हैं। यहां भी बेटी होती है, यहां भी बहुएं होती हैं। वे तो बस एक ही बात जानते हैं कि रेड लाइट एरिया मतलब धंधेवाली। यह सत्यता बताने के लिए ही हमने काम किया। ये चीज लोगों और समाज के लिए नया है कि ‘धंधेवाली की बेटी’ बोल रही है। जबकि हम तो अपना सच बता रहे हैं कि मैं एक धंधेवाली की बेटी हूं। मेरी परवरिश उसी इलाके में हुई है तो इसमें दिक्कत क्या है। पहले हमें दिक्कततलब लगता था कि सामने वाला हमें स्वीकार नहीं करेगा। अब हमने उसे हटा दिया कि मत करिए हमें स्वीकार। हमें तो कोई दिक्कत नहीं है, मैं तो बोलूंगी। हम लोग तो शुरू से ही परेशानियों का सामना करते आ रहे थे। तो अब कमर कस लिया था हम लोगों ने। लेकिन दिक्कत सामने वाले लोगों को थी, जब हम बोलते कि उनकी बेटी हूं और फिर उनकी प्रतिक्रिया और चेहरा पढ़ने लगते हम, कि वे कैसे देख रहे हैं, क्या सोच रहे हैं और फिर हम लोग इसको हंसी में लेने लगे।

इससे मुश्किल और क्या होगा कि आप पहले मेरे इलाके में गए और मेरे बारे में लिख दिया कि नसीमा वेश्या है। तो मेरे लिए वो ज्यादा मुश्किल था, क्योंकि मैं वो नहीं थी। लेकिन जब मैंने आपको बताया कि मैं नहीं हूं और तब आपने लिखा तो मैं आपको पकड़कर बोलूंगी कि मैं तो वो हूं नहीं, फिर आपने मेरे बारे में ग़लत कैसे लिख दिया। तो उनको लगता था कि ये लोग तो ग़ज़ब हो गए हैं। अब तो बाहर आ गए हैं और अब तो ये हमसे बात भी कर रही हैं। तो वे बहुत बचने की कोशिश करते कि हमारे सामने नहीं आयें, वर्ना ये लड़कियां पकड़ लेगीं। हमलोगों ने भी तय कर लिया था कि जो भी ऐसे लोग हैं जो नहीं समझना चाहते हैं उनको हम जबर्दस्ती तो नहीं करेंगे, लेकिन हम पीछे नहीं हटेंगे। भले ही अब वे हमें देखकर छुप जाएं, लेकिन अब हम न छुपेंगे, न भागेंगे, न डरेगें चाहे पुलिस हो चाहे मीडिया हो, चाहे दुनिया की कोई भी कम्युनिटी हो।

पढ़ें, इसका दूसरा भाग

हमारा पंगा कुछ पत्रकार बंधुओं से भी हुआ। एक पत्रकार ने अपनी पत्रिका में लिखा कि नसीमा धंधे के लिए जन्मी और पली-बनी है। मैंने उनसे पूछा– “भैय्या, यह नसीमा कौन है, जिनके बारे में आपने लिखा है?” तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि आप ही तो हो। तब मैंने उनसे कहा कि वह तो ठीक है कि मैंने आपसे खुलकर सारी बातें बताई थी कि मैं धंधेवाली की बेटी हूं, लेकिन धंधेवाली नहीं, फिर आपने ऐसा क्यों लिखा कि मैं धंधे के लिए ही जन्मी, पली और बनी? इस पर उऩ्होंने शायराना अंदाज में कहा– अरे छोड़िए, आप तो जानती ही हैं कि क्या होता है। तब मैंने भी उनसे पूछा कि क्या होता है? आप पत्रकार हो तो आपका बेटा भी पत्रकार बनेगा क्या? तो वो कहने लगे कि नहीं नहीं, वह तो आईएएस की तैयारी कर रहा है। इस पर मैंने उनसे कहा कि मेरी मां सेक्स वर्कर है तो मैं भी सेक्स वर्कर बनूंगी, यह आपने कैसे तय कर लिया? हो सकता है कि वह भी आईएएस बनना चाहती हो। फिर आप यह क्यों नहीं लिख सकते कि धंधेवाली के बेटी आईएएस बनना चाहती है। 

मेरी ये बातें उनके अहंकार को लग गई और वे कहने लगे कि तो क्या कर लीजिएगा आप मेरा? मैंने कहा कि जैसे आप मेरे बारे में लिखने का अधिकार रखते हैं, वैसे ही मुझे भी बोलने का अधिकार है। 

इस पूरे प्रकरण पर मैंने जिला न्यायालय में काम करने वाले साथियों से बात की कि मेरे साथ ऐसा ऐसा हुआ है, आप लोग बताइए कि आप क्या मदद कर सकते हैं? क्योंकि मैं उनके साथ जुड़ी थी, तो उऩ्होंने कहा कि यह तो ग़लत है। हम सब जानते हैं कि ‘परचम’ बच्चों का ग्रुप है और समाज में निकलकर काम कर रहा है। इसके बाद उन्होंने पत्रकार और पत्रिका को एक सम्मन भेजा कि आप अगले अंक में इसका खंडन कीजिए और 15 दिनों के अंदर जवाब दीजिए, नहीं तो हम आगे की कार्रवाई करेंगे। नोटिस मिलने के बाद पत्रिका के संपादक लोगों ने बहुत अच्छे से बात की और खंडन छापा। इसके बाद फिर 5-6 पन्नों की स्टोरी प्रकाशित की। उन लोगों यह माना कि उनकी सोच और समझ में गड़बड़ी थी। माफ कर दीजिए। तब हमलोगों ने मामले को वहीं रफ़ा-दफ़ा कर दिया।  

इस तरह की चीजें झेलते हुए और कई सफ़र तय करते-करते हम यहां तक पहुचे हैं। ‘परचम’ संस्था के ज़रिए हम अपनी पहचान का जो संकट है, उसे लेकर काम कर रहे हैं। यहां तक पहुंचकर अब हमने जाना कि सिर्फ़ हमलोग ही नहीं डरे हुए हैं। पहले हमें तो लगता था कि केवल हमलोग ही डरे हुए हैं, हमलोग ही भाग रहे हैं, लेकिन जब हम बाहर निकले और लोगों से बात करना शुरू किया तब समझ में आया कि जितना हम डरे हुए हैं, उससे ज़्यादा सामने वाला डरा हुआ है क्योंकि वह चाहता तो है कि इस इलाके के लोगों के लिए कुछ किया जाय, मगर वह इस डर से नहीं करते कि लोग क्या कहेंगे। उन्हें डर लगता है कि कोई उनसे पूछ न बैठे कि तुम वहां क्यों जा रहे हो? 

इस तरह ऐसे बहुत सारे लोग हमें मिलते गए, जिनकी चाहत थी कि हम भी इस [रेड लाइट] इलाके के लिए कुछ करें। वे हमारे साथ जुड़ते चले गए और इस तरह हम लोगों को एक सपोर्ट सिस्टम भी मिलने लगा। लेकिन यह ऐसा नहीं था कि वे लोग कहें कि हम तुम्हारे लिए कर रहे हैं, तुम लोग बैठ जाओ। वे लोग हमारे साथ हमेशा खड़े रहे और हम आगे बढ़ते गए। इसके बाद परचम को लेकर हमलोगों की एक नुक्कड़ नाटक टीम बनी। और ‘परचम’ शुरू करने के साथ ही हमने एक पत्रिका तैयार की– ‘जुगनू’। प्रारंभ में वह छह पन्ने की थी। 

दरअसल तब मीडिया से हमारा बड़ा पंगा होता था, क्योंकि जब हम कहते थे कि हम देह व्यापार करने वालों की बेटी हैं तो वे ‘बेटी’ खा जाते थे और देह व्यापार करनेवाली लिख देते थे। हम सब बहुत डरे हुए थे कि सबसे बात करना तो आसान है, क्योंकि वह कहीं रिकॉर्ड नहीं होता, दर्ज़ नहीं होता। लेकिन मीडिया से बात करना मुश्किल है क्योंकि इनसे हम बात करें तो वे हमारे बारे में ग़लत लिखते हैं। इन कारणों से हम लोग मीडिया से खुल नहीं पा रहे थे। फिर हमें लगा कि क्यों ना हम अपनी बात खुद कहें। लेकिन समस्या थी कि हम कहें कैसे? 

फिर जैसा कि मैंने शुरू में बताया कि सीतामढ़ी में ‘अदिति’ संगठन के साथ जुड़कर गांव में मैंने काम किया था। मेरे दिमाग में एक आईडिया था कि क्यों ना हाथ से अख़बार बनाएं और अपनी बात खुद लिखें और लोगों को पढ़ाएं। अगर वे हमारे बारे में नहीं लिखेंगे, तो हम खुद लिखेंगे। इस तरह ‘जुगनू’ नाम से छह पन्ने के अख़बार का डिजायन सभी लोगों ने मिल-बैठकर तैयार किया। पहला अंक साल 2004 में निकाला था। मुंबई में वर्ल्ड सोशल फोरम का आयोजन हुआ था। हमलोगों ने वहां पर जाकर एक तरह से लोगों के बीच सार्वजनिक किया और लोगों से पांच रुपए की सहयोग राशि लेकर उन्हें फोटोकॉपी करवाकर देते थे। हमारे पास बजट नहीं था, इसलिए तीन महीने पर ‘जुगनू’ का अंक निकालते थे। बहुत से लोगों ने ‘जुगनू’ को देखा तो सराहा और कहा कि यह तो बहुत अच्छा आइडिया है। फिर बहुत से लोगों की सलाह आती गई और हम सलाह के साथ बदलाव करते गए। क्योंकि यह हमारी अभिव्यक्ति का मजबूत स्तंभ है तो हमने इसे और दूर तक ले जाने के बार में सोचा। बहुत सारे पत्रकारों ने बैठकर हमें फीडबैक दिया कि नसीमा, इसे ऐसे करेंगे, वैसे करेंगे। शर्त यही थी कि ‘जुगनू’ हस्तलिखित ही होगा, क्योंकि हमारे लोगों को कंप्यूटर नहीं आता था और न ही हम उस तरह से पढ़ना-लिखना जानते थे। इसलिए हमने तय किया कि हाथ से ही लिखेंगे। अब यह अख़बार 36 पेज का हो गया है। आज हम देश के स्तर पर इसका प्रसार और वितरण करते हैं। 

देश के चार राज्यों के ऐसे बच्चे, जो इसी समाज से संबंध रखते हैं, जिनको बाहरी समाज स्वीकार नहीं करता है, वे इससे जुड़े हुए हैं। इनमें मध्य प्रदेश की बांछड़ा, बेड़िया समुदाय, राजस्थान में कालबेलिया, कंजड़, सांसी, नट, बिहार में नट समुदाय के लोग ज़्यादातर हैं और मुंबई (महाराष्ट्र) में, जहां सब लोग माइग्रेट करके जाते हैं। इन चार राज्यों के बच्चे जुड़े हुए हैं और इस कोशिश में हैं कि पत्रिका के विस्तार के लिए और काम करें।   

आज ‘परचम’ एक कम्युनिटी आधारित संगठन है। लेकिन ‘जुगनू’ से हम अलग अलग लोगों को ज़ोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। नवंबर, 2022 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मुझे सलाहकार सदस्य नियुक्त किया है। जिस इलाके के लोगों के बारे में मीडिया, पुलिस, समाज ग़लत सोच रखता हो, वहां की बेटी को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपना सलाहकार सदस्य बनाया है, यह बड़ी बात है। 

नसीमा खातून, सदस्य, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

मुझे व्यवस्था, समाज, प्रशासन और मीडिया से कहना है कि अगर आप चाहते तो सेक्स वर्कर्स के बच्चों को स्वीकार करते। अगर आप चाहते तो इनको समाज में जगह देते। अगर आप चाहते तो एक महिला जो एक उम्र के बाद इस पेशे से रिटायर हो जाती है, उनके लिए बात करते। इस इलाके [रेड लाइट एरिया] के दो लोग किसी को नहीं दिखाई देते। एक, जो यहां के लड़के होते हैं और दूसरे जो बुजुर्ग महिलाएं हैं, जो 35-40 साल की उम्र के बाद रिटायर हो जाती हैं। वे लोगों को दिखाई देना बंद क्यों हो जाते हैं? 

इस तरह के इलाके के लिए एचआईवी के बारे में जन-जागरूकता को लेकर नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (एनएसीओ) का ‘लक्षित हस्तेक्षप’ (टार्गेटेड इंटर्वेंशन) नामक एक प्रोजेक्ट चलता है। उसमें एक पंगा है। वे कहते हैं कि 40 साल से कम उम्र की जो महिलाएं हैं, वही उनकी सूची में हैं और वे उनके लिए ही काम करेंगे और प्रोजेक्ट के तहत मिलने वाले सभी लाभ भी देंगे। लेकिन 40 वर्ष की उम्र पार होते ही वे महिलाएं कुछ नहीं होतीं। गोया वे इस दुनिया में ही नहीं हैं। इसलिए उनको राशन भी नहीं देंगे। उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं देंगे। इस बात को मैंने अभी राष्ट्रीय मानावधिकार आयोग में भी उठाया है कि आप क्या चाहते हैं कि 40 बरस के बाद वे लोग जिंदा नहीं रहें। यह मानवाधिकार का सरासर हनन है। जैसे आम समाज में बुजुर्ग होने के बाद लोग मां-बाप को छोड़ देते हैं, वही हाल रेड लाइट एरिया की महिलाओं का है, जिनकी उम्र 40 वर्ष से अधिक हो जाती है। उनकी कोई वैल्यू नहीं होती।   

सामान्य तौर पर सरकार के घर से लेकर एनजीओ और मीडिया तक सिर्फ़ दो की ही बात होती है– सेक्स वर्कर्स और बच्चियां। अब महिलाएं हैं, तो लड़का और लड़की दोनों पैदा करती हैं। तो जो बहुत बड़ा तबका है इन इलाकों में लड़कों का, उनको नजरअंदाज किया गया है। एक तरफ तो लड़कों को कहा जाता है कि आप दलाली छोड़कर कोई और काम करो, और दूसरी तरफ उन्हें परिदृश्य से ही अदृश्य ही कर दिया जाता है। उनके पास क्या विकल्प है? जाहिर तौर पर वे या तो दलाली का काम करेंगे या नशा करेंगे। 

देखा जाय तो लड़कों के एक बड़े ग्रुप को नजरअंदाज किया गया, वह कहां गया? वे अपराध की दुनिया में ही गए न? मई, 2022 में सुप्रीम कोर्ट का दिशा-निर्देश आने के बाद हमारे इलाके में कलक्टर और जज साहेब सब बात करने आए। उन्होंने मुझसे पूछा कि नसीमा क्या किया जाय, तो मैंने अपने यहां यानि मुज़फ्फ़रपुर के 15 बच्चों की सीवी (जिसमें बाकायदा मेंशन था कि ये बच्चे कितना पढ़ें हैं और क्या कर रहे हैं) पकड़ाया कि आप इन बच्चों को जॉब दे दीजिए। मैंने उनसे कहा कि अभी आप 15 बच्चों को जॉब देंगे तो बाक़ी लोग भी आएंगे। तो उन्होंने हमसे कहा कि अभी हमारे पास ऐसा कोई भी प्रोजेक्ट नहीं है नसीमा। अभी उनको यह प्रोजेक्ट सोचने में ही बहुत टाइम लगेगा। अभी तक तो जजमेंट में कही गई बात ही नहीं समझ आ रही है इन लोगों को।

सच तो यह है कि हमारी व्यवस्था ने सिर्फ़ और सिर्फ़ महिलाओं की बात की, लड़कियों को धंधे से बाहर निकालने के लिए बात की, लेकिन जो पैदा होकर आ रहा है, उसके बारे में कोई बात नहीं की। सबसे बड़ी बात यह है कि उनको लोग बच्चा समझते ही नहीं। आमतौर पर लोग मानते हैं कि इस इलाके में बच्चे नहीं होते। सेक्स वर्कर हैं तो क्या? अब चूंकि वे महिलाएं हैं तो वे बच्चा पैदा करती ही हैं ना? तो उनके बच्चे कैसे नहीं हो सकते हैं? तो आप कैसे डिफाइन करेंगे कि वे बच्चे उनके हैं कि नहीं। ऐसा तो कोई मेकैनिज्म है नहीं उनके पास, क्योंकि इस इलाके में आधार कार्ड, वोटर कार्ड आदि जैसे ज़रूरी काग़ज़ात कोई प्रॉपर ढंग से उनके लिए बनाता ही नहीं है। उनके बच्चे के नाम का जन्म प्रमाणपत्र कहां से बनेगा? यह बहुत बड़ी चुनौती है। समाज के सामने भी और हमारे सामने भी। 

ज़्यादातर लोग यही मानते हैं कि सेक्स वर्कर्स बच्चों को अगवा करते हैं, ख़रीदकर लाते हैं या छीनकर लाते हैं, या चुराकर लाते हैं। तो बच्चे वहीं जन्में हैं यह साबित करना सबसे मुश्किल है। मैं वहां की बेटी हूं। मैं जानती हूं कि मेरे सामने यह साबित करना कितना मुश्किल है। ह्यूमन ट्रैफिकिंग अलग मुद्दा है। यह एक गंभीर विषय है और इस पर काम होना चाहिए। और मैं सरकार तथा प्रशासन, दोनों से कहती हूं कि जब तक आप इस इलाके के लोगों के साथ मिलकर काम नहीं करेंगे तब तक ट्रैफिकिंग को नहीं रोक सकते। ट्रैफिकिंग को रोकने के लिए ये लोग क्या करते हैं कि सेक्स वर्कर्स को ही ट्रैफ़िकर घोषित कर देते हैं, जोकि ग़लत है। वह महिला तो पीड़िता है। वह तो आपके उस सताये हुए खेमे से निकलकर वहां गई है। वह ट्रैफिकर कैसे हो सकती है। ट्रैफिकर कौन है, जो बाहर रह रहा है? वह हर समाज में रहता है और बड़ी आसानी से लड़कियों का कारोबार कर रहा है। 

आज जब हम बात कर रहे हैं तब भी कितनी लड़कियों की ट्रैफिकिंग हो रही होगी और वह समाज के अच्छे हिस्से में हो रहा होगा। लेकिन उनकी पहुंच इतनी है कि सेक्स-वर्कर्स महिलाएं उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती हैं। इस समाज की महिलाएं खुद ट्रैफिकिंग से चिंतित हैं। वर्ना कोई बताए कि मेरी दादियां मुझे उस पेशे से बाहर रखने के लिए क्यों संघर्ष करतीं और मुझे इस पोजीशन में लेकर आतीं। लेकिन उन्होंने ऐसा क्यों किया? जवाब यह है कि कोई महिला नहीं चाहती कि उसकी आने वाली पीढ़ी इस पेशे में रहे। सेक्स वर्कर्स भी नहीं चाहतीं। लेकिन जो समाज में बैठे ट्रैफिकर हैं, वे ऐसा चाहते हैं, क्योंकि इससे उनके घर में पैसा आता है। उनके गिरेबान पर हाथ डालना सरकार और प्रशासन के वश की बात नहीं है। इसीलिए अगर प्रशासन और सरकार पकड़ना चाहें तो किसे पकड़ेंगे? सेक्स वर्कर्स को ही न? 

पहले तो यौनकर्म ब्रोथल बेस था, जो कि एक परंपरा का हिस्सा था। पर अभी रेलवे स्टेशनों पर, बस अड्ड़ों पर, होटल, पार्लर आदि अनेक जगहों पर यह काम होने लगा है। लॉकडाउन के बाद से चीजें बहुत जटिल हो गई हैं। लोगों ने जटिल कर दिया है इसको। अब आप यह नहीं कह सकते हैं कि कौन सेक्स वर्कर है कौन नहीं है। कहां चल रहा है और कहां नहीं चल रहा है। अभी यह मोबाइल जैसा हो गया है। सवाल यह है कि यह स्थिति किसने बनाई? यह उन्हीं लोगों का बनाया है जो कहते हैं कि हम नहीं चाहते कि समाज में ऐसा हो। समाज में जो बहुत सारे लोग हैं, जो यह चाहते हैं कि कुछ बेहतर करें, उनको इसमें मदद करनी चाहिए। लेकिन मदद करने का मतलब यह नहीं कि उनको रोकना है। मदद करने का मतलब यह कि एक जो स्पेस उनका खत्म हो रहा है उस स्पेस को नहीं खत्म होने देना चाहिए। नहीं तो यह बहुत बड़ी बात हो जाएगी कि आप नहीं समझ पाओगे कि कहां आप खड़े हैं और कहां नहीं। पहले स्पेस था, अब नहीं है। स्पेस ही नहीं देंगे तो फिर कैसे आप तय करेंगे कि कौन कहां है। फिर कैसे उन चीजों को लेकर जाया जा सकता है। ये यहां पर क्यों आये? क्योंकि उनका स्पेस छीना गया है। कोई भी काम करने के लिए यदि एक जगह नहीं होगा तो क्या होगा। वे वेंडर ही बनेंगे ना? घूम-घूमकर बेचेंगे। आप देखे होंगे कि नगरपालिका ने नगर के बाहर वेंडर लगाने वालों को उजाड़ दिया। तो उन्होंने मूव करना शुरू कर दिया। सेक्स वर्कर्स की पूरी पद्धति और परंपरा की बात करेंगे तो पहले उनके लिए एक स्पेस दिया गया था। चाहे वह मौर्य काल हो या मुग़ल काल। या कोई औऱ दौर। एक जगह इनके लिए दिया गया था जिससे लोगों को पता चलता था कि यहां पर ये लोग हैं। अभी सब ‘रिहैबिलिटेशन ’ बोलकर जगह छीन रहे हैं। 

मैनें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी कहा कि वह दूसरी दुनिया कौन-सी है, आप बता दीजिए। मैं सबको लेकर चली जाऊं। लेकिन आपके पास वह दूसरी दुनिया नहीं है उन्हें देने के लिए। लेकिन फिर भी आप क्या कह रहे हैं कि हम बदलाव कर रहे हैं। अब आपको वे चलते-फिरते नज़र आ रहे हैं। आपके घर तक नज़र आ रहे हैं। तो अब आपकी बेचैनी है कि यह तो ग़लत हो गया। तो ग़लत उन्होंने नहीं किया। आपने उनको कुछ नहीं दिया सिवाय छीनने के। उनके पास जो भी है, वह छीना गया है और अभी भी छीनने की ही बात होती है। आपने देने की कहां कोशिश की है? आप बता दीजिए। आपको अभी तक कहीं ऐसी पहल दिखी कि प्रशासन या सरकार खुद से जाकर उस इलाके में उनके कल्याणार्थ काम किए हों? लोगों को राज़ी किया हो? जो भी दिया इस शर्त पर दिया कि पहले धंधा छोड़ दो। पहले आप बिना शर्त के दो तभी आपको खुद पता चल जाएगा कि कितने लोग धंधे से बाहर निकल रहे हैं।

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