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चारों सामाजिक क्रांतियों के खिलाफ चार प्रतिक्रांतियां 

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सिद्धार्थ रामू

भारत में चार सामाजिक क्रांतियां हुई हैं. पहली क्रांति बुद्ध के नेतृत्व में (प्राचीन काल); दूसरी क्रांति कबीर, रैदास, तुकाराम आदि संतों के नेतृत्व में (मध्यकाल): तीसरी क्रांति फुले, आयोथी थास, पेरियार, शाहू जी महराज, श्रीनारायण गुरू, आयंकली और डॉ. आंबेडकर आदि के नेतृत्व में (आधुनिक काल) में और चौथी क्रांति मंडल कमीशन की दो सिफारिशों को लागू करने (आजादी के बाद) के रूप में, जिसे आरएसएस के मुखपत्र पत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने शूद्र क्रांति की संज्ञा दी थी.

इन चारों सामाजिक क्रांतियों के खिलाफ चार प्रतिक्रांतियां हुई. बुद्ध की नेतृत्व में हुई सामाजिक क्रांति के खिलाफ आदि शंकराचार्य के नेतृत्व में; कबीर, रैदास और तुकाराम के नेतृत्व में हुई क्रांति के खिलाफ तुलसीदास और रामदास आदि के नेतृत्व में; फुले, पेरियार और आंबेडकर के नेतृत्व में हुई क्रांति के खिलाफ तिलक और गांधी आदि के नेतृत्व में; मंडल कमीशन की दो सिफारिशें लागू होने के बाद हुई सामाजिक क्रांति को आरएसएस और उसके मोहरे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रतिक्रांति में बदल दिया गया.

फुले, पेरियार और आंबेडकर के नेतृत्व में चल रही सामाजिक क्रांति के खिलाफ अपरकॉस्ट की प्रतिक्रांति के सबसे बड़े नेता गांधी थे. संयोग देखिए सभी सामाजिक क्रांतियों के नायक बहुजन-श्रमण और उत्पादक और मेहनतकश वर्ग थे, जबकि प्रतिक्रांतियों के नेता परजीवी-शोषक के अपरकॉस्ट हिंदू द्विज थे – 

प्रथम दो क्रांति और प्रतिक्रांति ऐतिहासिक घटना है, परन्तु अंतिम दो क्रांति और प्रतिक्रांति को बीते ज्यादा वक्त नहीं हुआ है और उसके प्रमाणिक दस्तावेज मौजूद हैं. ऐसे में तीसरी प्रतिक्रांति, जिसका वाहक गांधी थे, पर यहां हम कंवल भारती का यह आलेख – गांधी से असहमति – यहां प्रस्तुत कर रहे हैं. हलांकि उनके विचारों से सहमति-सहमति हो सकती है, परन्तु, जानना जरूरी है. प्रस्तुत है आलेख –

असल में गांधी और आंबेडकर दो विपरीत ध्रुवों के व्यक्ति थे, बल्कि दो अलग-अलग परम्पराओं और विचारधराओं के भी थे. गांधी की विचारधारा वैदिक परम्परा की है, जो वेदों से शुरू होकर शंकर, दयानन्द और विवेकानन्द से होती हुई गांधी पर खत्म नहीं होती, अपितु हिंदुत्व तक विकास करती है. किन्तु, आंबेडकर की विचारधारा अवैदिक परम्परा की है, जो आजीवकों से शुरू होकर कबीर से होती हुई समाजवादी लोकतन्त्र पर खत्म होती है. एक शास्त्र को मानती है, और दूसरी शास्त्र के विरुद्ध विज्ञान पर जोर देती है.

इन दो विपरीत विचारधाराओं का संघर्ष होना ही था. सो, इतिहास में गांधी-आंबेडकर-संघर्ष भी उसी तरह दर्ज है, जिस तरह गांधी और खिलाफत. खिलाफत से गांधी का कोई धार्मिक सम्बन्ध नहीं था किन्तु वह उनकी परम्परा से मेल खाता था. इस्लाम के पैगम्बर ने जो खलीफा-शासन कायम किया था, गांधी ने उसका समर्थन किया था, सिर्फ समर्थन ही नहीं, उसका नेतृत्व भी किया था.

गांधी रामराज्य चाहते थे, और खिलाफत मुसलमानों के लिए रामराज्य ही था. दोनों धर्म से जुड़े हैं. गांधी जिस वैदिक परम्परा में थे, रामराज्य उस का अंग है, और खिलाफत उसका पर्याय; और दोनों ही अलोकतान्त्रिक. मतलब चाहे जो निकाल लें किन्तु सच यही है कि जब-जब गांधी ने रामराज्य और खिलाफत का समर्थन किया, तब-तब वह लोकतान्त्रिक नहीं थे.

मेरा इरादा गांधी और आंबेडकर की तुलना करना नहीं है, मगर मैं अपने पाठकों को गांधी की पृष्ठभूमि बताना जरूरी समझता हूं, क्योंकि इससे किसी की भी वैचारिकी को समझने में आसानी होती है. गांधी एक कुलीन और संपन्न परिवार में जन्मे थे इसलिए उनकी किसी भी किस्म की न कोई सामाजिक समस्या थी और न आर्थिक. इसलिए उनके जीवन में समाज को बदलने का कोई आन्दोलन हम नहीं देखते हैं.

कहा जाता है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधी को गोरों द्वारा अपमानित होना पड़ा था, इसका कोई साक्ष्य गांधी-लेखन के सिवा कहीं नहीं मिलता. इस एक घटना के सिवा वह जीवन में कहीं भी सामाजिक अपमान के शिकार नहीं हुए इसलिए भारत में ऐसे लोगों पर उनकी नजर कभी नहीं पड़ी, जो रोज हिन्दुओं द्वारा सुबह से शाम तक अपमानित होते थे.

बाद में उन्होंने राजनीतिक स्वार्थ से हरिजन-सेवा के (वह दलितों को हरिजन ही कहते थे) बहुत से नाटक किए, हरिजन बस्ती में जाकर रहे, हरिजन अखबार निकाला, हरिजन सेवक संघ बनाया, आदि आदि; उसी तरह, जैसे आज आरएसएस और भाजपा के नेता दलितों के घर जाते हैं, खाना खाते हैं. पर, जब कोई सवर्ण और वह भी सनातनी द्विज, दलित के घर रहने या ठहरने का काम करता है, तो दलितों को उसकी असलियत पता चल जाती है.

सरोजनी नायडू ने लार्ड लुइस को लिखा था, ‘आप कभी नहीं जान पायेंगे कि उस बूढ़े व्यक्ति (गांधी) को गरीबी में रखने के लिए कांग्रेस पार्टी कितना धन खर्च करती है.’ नायडू ने दिल्ली की मेहतर-बस्ती में गांधी के रहने के बारे में बताया था, ‘जब वह भंगी बस्ती में रहने के लिए गए, तो बड़ी मात्रा में कांग्रेस के सवर्ण कार्यकर्ताओं को गन्दे कपड़े पहनाकर हरिजनों के रूप में उनके साथ रहने के लिए भेजा गया था.’

प्रोफेसर श्यामलाल ने लिखा है कि मेहतर बस्ती में गांधी के रहने के लिए हिन्दू सेठों ने टैंटों के आलीशान कमरे बनाकर दिए थे, जिसमें शयन-कक्ष, मुलाकातियों के लिए बैठक, सेवकों का कमरा तथा रसोई भी थी. गांधी वहां जितने दिन रहे, उनके लिए दोनों वक्त का भोजन बिरला हाउस से आता था. इस नौटंकी का एकमात्र उद्देश्य मेहतर समुदाय को आंबेडकर से अलग करने का प्रयास था, जिसमें वह इतने सफल हुए कि आज भी यह समुदाय आंबेडकर से नहीं जुड़ सका, और दलित वर्ग में सबसे निचला वर्ग बना हुआ है.

गांधी-आंबेडकर-विवाद

गांधी और आंबेडकर का पहला आमना-सामना 1930-31 में गोलमेज सम्मेलन, लन्दन में हुआ. यह वह समय था, जब ब्रिटिश सरकार ने भारत के लोगों को सत्ता सौंपने का फैसला कर लिया था. अंग्रेजों के इस फैसले से द्विज हिन्दू और मुसलमान बहुत खुश थे, क्योंकि वे सत्ता के दो केन्द्र थे. सत्ता उन्हीं के हाथों में आनी थी. किन्तु, गैर-हिन्दू, खासतौर से दलित जातियों के लोग, इस फैसले से दुःखी थे.

उन्होंने सभाएं करके, प्रस्ताव पास करके और तार भेजकर अंग्रेजों के इस फैसले का विरोध किया और उनसे अनुरोध किया कि वे देश छोड़कर न जाएं. इस विरोध के पीछे उनका यह डर था कि अंग्रेजों ने जो आजादी उन्हें दी है, उनके जाने के बाद, जब हिन्दुओं के हाथों में सत्ता आएगी, तो वे फिर से गुलाम बना दिए जायेंगे. कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ में इस परपूरा एक्स एक अध्याय लिखा है.

आंबेडकर ने मांग की कि दलित वर्ग सत्ता का तीसरा केन्द्र है इसलिए हिन्दू-मुसलमानों के साथ-साथ दलित वर्ग को भी सत्ता में भागीदारी मिलनी चाहिए. बस क्या था ? गांधी के समर्थन में कांग्रेस के लोगों ने देश के सभी प्रान्तों से दलितों की ओर से ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर को इस आशय के तार भिजवाने शुरू कर दिए कि वे गांधी के साथ हैं, आंबेडकर के साथ नहीं. रातोंरात दलितों के नाम से सवर्णों की संस्थाएं बन गईं, और उनकी ओर से अखबारों में आंबेडकर के खिलाफ जहरीले बयान और लेख छपवाए जाने लगे.

ऐसा ही एक लेख 1 नवम्बर 1931 के ‘दि बाम्बे क्रानिकल’ में पंजाब के ‘अछूत उद्धार मंडल’ के सचिव मोहन लाल ने लिखा कि आंबेडकर स्वराज-विरोधी भूमिका निभा रहे हैं। जयश्रीराम बोलकर जिस तरह आज हिंसा की जा रही है, उसी तरह की हिंसा उस दौर में गांधी की जय बोलकर दलितों के साथ की जा रही थी. 3 नवम्बर 1931 के ‘दि टाइम्स ऑफ इंडिया’ में खबर थी कि सार्वजनिक मार्ग से पालकी में अपनी धार्मिक पुस्तक ले जाते हुए अछूतों के एक दल पर खद्दरधारी लोगों ने महात्मा गांधी की जय बोलकर हमला कर दिया.

असल लड़ाई क्या थी ? असल लड़ाई नेतृत्व की थी. इसका मतलब यह नहीं था कि आंबेडकर गांधी का नेतृत्व छीनना चाहते थे, बल्कि यह था कि आंबेडकर गांधी को दलितों का नेतृत्व नहीं करने देना चाहते थे. गांधी हिन्दुओं के नेता थे, पर वह दलितों, मुसलमानों, सिखों, आदिवासियों आदि पूरे देश का नेता बनना चाहते थे. यही काम आज आरएसएस और भाजपा का हाईकमान कर रहा है.

हिन्दू नेता दलितों की मुक्ति का नेतृत्व नहीं करते, बल्कि दलितों को हिन्दू बनानें का नेतृत्व करते हैं, जो आज हम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भी देख रहे हैं. गांधी हिन्दुत्व की राजनीति कर रहे थे. जैसे ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने दलित वर्गों के लिए पृथक राजनीतिक अधिकारों का निर्णय लिया, गांधी से बरदाश्त नहीं हुआ और वह उसके विरुद्ध आमरण अनशन पर बैठ गए. आरोप लगाया कि इससे दलित वर्ग हिन्दू फोल्ड से बाहर हो जायेगा.

गांधी की सारी चिन्ता यही थी कि दलितों को, हिन्दुत्व से अलग नहीं होने देना है. आंबेडकर असहाय थे, वह अगर गांधी के पक्ष में समझौता नहीं करते, तो न केवल आंबेडकर-रूपी शम्बूक की गर्दन काटने के लिए कितने ही राम तलवारें लिए निकल आते, बल्कि दलितों का भी भारी नरसंहार होता इसलिए, हिन्दू फोल्ड में रहकर आरक्षण पर सहमति बनी, जो आज तक चला आ रहा है.

इसी का परिणाम है कि आज लोकसभा और विधानसभाओं के लिए सुरक्षित सीटें हैं, पर उन पर जीत सवर्णों के वोटों पर निर्भर करती है, क्योंकि दलित वर्ग अल्पसंख्यक है, और कोई भी दलित प्रत्याशी दलितों के वोट से नहीं जीत सकता. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि जीते हुए दलित विधायक और सांसद को सवर्णों को ही खुश रखना पड़ता है. अगर वह जरा भी दलित चेतना से काम करता है, तो दो बातें एक साथ होंगी, एक, अगले चुनाव में उसे पार्टी टिकट नहीं देगी, और दो, सवर्ण उसे अपना वोट नहीं देंगे.

आंबेडकर ने गांधी के साथ हुए इस राजनीतिक समझौते को दलितों को उदारता से मारने की योजना का नाम दिया था. दलितों को उदारता से मारने की यह योजना आरएसएस और भाजपा को इतनी पसन्द आई कि जो काम गांधी अधूरा छोड़ गए थे, उसे ये दोनों मिलकर पूरा कर रहे हैं, और वह काम है पिछड़ों को भी हिन्दुत्व से जोड़कर उदारता से मारने का काम.

राजनीति का तीसरा मंच : भीड़तन्त्र

गांधी की राजनीति को आंबेडकर किस रूप में देखते थे, यह देखना दिलचस्प होगा. गांधी ने राजनीति का जो माडल पेश किया, कम्युनिस्टों को छोड़कर, कोई दल ऐसा नहीं है, जिसने उसे आदर्श न माना हो. आंबेडकर ने 3 जनवरी 1945 को पूना में कहा था कि गांधी के राजनीति में प्रवेश से पूर्व राजनीतिक विचार के दो मुख्य स्कूल थे–पहला रानाडे और गोखले के विचारों का, और दूसरा बंगाल के क्रान्तिकारियों का.

महत्वपूर्ण बात इन दोनों स्कूलों की यह थी कि इनमें प्रवेश की योग्यता इतनी उच्च थी कि कोई भी मूर्ख और धूर्त उनमें प्रवेश नहीं कर सकता था. पहले स्कूल में केवल अध्ययनशील और राजनीति में प्रतिबद्ध लोग ही प्रवेश करने की आंकाक्षा रख सकते थे. राजनीति की क्रान्तिकारी स्कूल का स्तर तो और भी ऊंचा था. कोई भी वह व्यक्ति, जो देश के लिए अपने जीवन के साथ खेलने के लिए तैयार नहीं था, इस मंच का सदस्य नहीं हो सकता था.

लेकिन, आंबेडकर ने कहा, गांधी की राजनीति ने मूर्ख और धूर्त दोनों का प्रवेश खोल दिया. यह राजनीति का तीसरा मंच था, जिसमें आने के लिए पढ़ाई-लिखाई और योग्यता की कोई जरूरत नहीं थी. गांधी ने स्वयं लोगों से पढ़ाई-लिखाई छोड़कर आने की अपील की, और उनकी अपील पर दो-चार ने नहीं, बल्कि हजारों लोगों ने अपनी पढ़ाई और नौकरी तक छोड़ दी.

दलित तो उस काल में शिक्षा और नौकरियों में थे नहीं, इसलिए गांधी की अपील का पालन सवर्ण हिन्दुओं तक ही सीमित रहा, और यह चमत्कार कि शिक्षा और नौकरी के बिना और बिना मेहनत-मजदूरी किए, जीवन में तरक्की करना, सवर्ण के बिना कौन दिखा सकता है ?

अब भारत के राजनीतिक मंच गांधी स्कूल से ही चल रहे हैं, सिवाए वाम मंचों को छोड़कर, जहां पढ़ाई-लिखाई और अध्ययनशीलता अब भी जरूरी है. गांधी ने राजनीति को भीड़-तन्त्र में बदल दिया. भीड़ विवेक से नहीं चलती, क्योंकि भीड़ के पास विवेक होता ही नहीं है, वह हुक्म से चलती है, और आदेशों का पालन करती है. भीड़ से कुछ भी कराया जा सकता है, और कराया जा रहा है.

धर्मान्तरण

धर्मान्तरण का मुद्दा गांधी से बहुत खास तौर से जुड़ा है. इसे समझने के लिए सामान्य सा प्रश्न है कि धर्मान्तरण से सबसे ज्यादा खतरा किसे है ? क्या मुसलमानों को ? क्या ईसाईयों को ? क्या सिखों को ? क्या बौद्धों को ? नहीें. इनमें से किसी को भी धर्मान्तरण से खतरा नहीं है. खतरा किसे है ? उत्तर है हिन्दुओं को. हिन्दुओं के शोषण और अत्याचारों से पीड़ित अछूत जातियां जब सम्मान के लिए धड़ाधड़ ईसाई और मुसलमान बनने लगीं, तो यह धर्मान्तरण सबसे ज्यादा गांधी को अखरा. उसे रोकने के लिए गांधी ने शुद्धि आन्दोलन चलाया. हिन्दुओं की शुद्धि का नहीं, बल्कि दलितों की शुद्धि का.

दुनिया का पहला देश है भारत, जिसमें एक राजनीतिक पार्टी के नेता ने पापियों के लिए नहीं, बल्कि उन लोगों की शुद्धि का आन्दोलन चलाया, जिन्होंने कोई पाप नहीं किया था. जब 1935 में आंबेडकर ने हिन्दूधर्म छोड़ने की घोषणा की, तो गांधी तिलमिला गए. गांधी ने बहुत ही बचकाना तर्क दिया कि ‘धर्म कपड़ों की तरह बदलने की चीज नहीं. यह व्यक्ति के शरीर की अपेक्षा उसकी आत्मा का अंगभूत भाग है.’

आंबेडकर ने जवाब दिया, ‘अगर कपड़ा सड़ांध मारने लगे, तो क्या उसे बदला नहीं जायगा ?’ कपड़ा तो फिर भी धोया जा सकता है, पर धर्म को तो नहीं धोया जा सकता. धर्म अगर अभिशाप बन जाए, तो उसे बदलना ही मुक्ति का हल है. आंबेडकर ने धर्मान्तरण की घोषणा दलितों पर हिन्दुओं के अत्याचारों से मुक्ति की खोज में की थी. लेकिन गांधी ने अत्याचारों को नहीं, धर्मान्तरण को मुद्दा बनाया, और पूरे देश में आंबेडकर उसी तरह गांधी-मीडिया के निशाने पर आ गए, जैसे आज प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक के बहाने पंजाब के दलित मुख्यमंत्री गोदी मीडिया के निशाने पर हैं.

सिर्फ गांधी ही नहीं, गांधी के साथ-साथ हिन्दूधर्म के ठेकेदार भी गॉंधी के साथ लामबन्द हो गए, जैसे आज सारे साधु-सन्त मोदी के गांधी लामबन्द हो जाते हैं. कांग्रेस के उच्च स्तर के नेता और शंकराचार्य कुर्तकोटी गांधी के साथ मिलकर आंबेडकर के लिए धर्मान्तरण की योजनाएं बनाने लगे कि आंबेडकर को क्या अपनाना चाहिए और क्या नहीं ? क्या ऐसी आतंकी स्थिति में वर्णव्यवस्था के विरोध में कोई मुहिम चल सकती है ? आखिर गांधी को धर्मान्तरण से क्या परेशानी थी ? क्यों उन्होंने धर्मान्तरण का विरोध किया और क्यों दलितों की शुद्धि का आन्दोलन चलाया ?

इसके दो सबसे बड़े कारण हैं. पहला यह कि आंबेडकर के धर्मान्तरण की घोषणा से हिन्दूधर्म की वर्णव्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो गया था. अगर शूद्र धर्मान्तरण कर लेंगे, तो तीन टांगों की वर्णव्यवस्था का क्या मतलब रह जायगा ? दूसरा, राजनीति में संख्या-बल मायने रखता है. गांधी हिन्दुओं की संख्या दलित वर्गों को जोड़कर बताते थे. अगर दलित वर्गों को माइनस कर दिया जाए, तो संख्या में हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाते, और इसी के साथ गांधी की बहुसंख्यक हिन्दू राजनीति का नाटक खत्म हो जाता.

इन्हीं दो कारणों से आरएसएस और भाजपा भी धर्मान्तरण का विरोध करते हैं. वे दलित और पिछड़ी जातियों को हिन्दुत्व से जोड़े रखकर ही हिन्दू बहुसंख्यक की राजनीति कर सकते हैं, उनके बिना वे अल्पसंख्यक हैं. यह वह गांधी मंत्र है, जिसने आरएसएस के हिन्दुत्व को भी संजीवनी दी है.

पूंजीवाद के प्रबल समर्थक

भारत में मार्क्सवाद को सफलता नहीं मिली, पर गांधीवाद को पूर्ण सफलता मिली. भारत के सवर्ण मानस पर गांधी का जितना प्रभाव पड़ा, उतना किसी का नहीं पड़ा. यह इसी से समझा जा सकता है कि समाजवाद में विश्वास करने वाले जयप्रकाश नारायण, नरेंन्द्र देव, सहजानन्द और लोहिया जैसे बड़े व्यक्ति भी दिल के एक कोने में गांधीवाद को बसाए रहते थ. मार्क्सवाद की विफलता और गांधीवाद की सफलता, दोनों का कारण एक है और वह है जाति में विश्वास.

जाति में विश्वास वर्ग-संघर्ष को रोकता है. इन दोनों खेमों के सवर्ण हिन्दुओं ने जाति की अपनी सनातन व्यवस्था को नहीं छोड़ा. साम्प्रदायिकता के विरुद्ध प्रतिरोध दोनों का प्रिय विषय रहा, पर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध वे कभी मुखर नहीं रहे. दलितों के लिए आरक्षण की नीति में दोनों को ही जातिवाद नजर आता है.

गांधी ने अपनी ‘वर्णव्यवस्था’ किताब में स्पष्ट लिखा है- ‘वर्णव्यवस्था का उद्देश्य प्रतिस्पर्धा और बराबरी करने की प्रवृत्ति और वर्ग-संघर्ष से रोकना है. मैं वर्णव्यवस्था में विश्वास करता हूं, क्योंकि इससे लोगों के कर्तव्यों और व्यवसायों का निर्धारण होता है. इसमें कोई हानि नहीं कि एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण की कला और व्यवसाय का ज्ञान प्राप्त कर उसमें पारंगत हो जाए, परन्तु धनोपार्जन के लिए उसे अपने ही वर्ण का व्यवसाय अपनाना ठीक होगा.’ इस पर आंबेडकर ने चुटकी ली थी कि दूसरों को उपदेश देने से पहले गांधी को भी अपना पैतृक व्यवसाय नहीं छोड़ना चाहिए था.

यदि गांधी के सामने अंग्रेजों से देश की स्वतन्त्रता हासिल करने का सवाल न होता, तो किसी भी स्थिति में वह वर्णव्यवस्था के विरुद्ध दलित वर्गों के अधिकारों को स्वीकार नहीं करते.

जैसाकि बताया जा चुका है, गांधी वैदिक परम्परा के अनुयायी थे, और अन्त तक वह इसी परम्परा के गीत गाते रहे थे. यही कारण था कि सारा सवर्ण समाज और हिन्दुओं का पूंजीपतिवर्ग उन पर लट्टू था. हिन्दी साहित्य में भी एक बड़ी संख्या गांधीवादी साहित्यकारों की है. उन्हें गांधी क्यों अच्छे लगते थे, यह भवानीप्रसाद मिश्र की इस कविता से समझिए –

अलग किए जाएं अछूत हिन्दू समाज से
और न होने पाए, ऐसा यह व्रत लेकर
गांधीजी उपवास शुरू कर रहे आज से

जो गांधी हिन्दूधर्म को बचा रहे थे, वह क्यों न उनके काम के होंगे ? किसी कवि ने यह भी लिखा कि गांधी जिधर चलते थे, कोटि-कोटि जन उधर चल पड़ते थे. जन क्या, सेठ भी गांधी के पीछे-पीछे थैली लेकर चलते थे, पता नहीं, कहां उनके लिए भव्य भवन और आश्रम बनाना पड जाए ! जितने भी गांधीवादी हुए, कांग्रेस सरकार ने सभी को सम्मानित और पुरस्कृत किया, सांसद बनाकर, संस्थानों, विश्वविद्यालयों, और प्रतिष्ठानों में बड़े-बड़े पदों पर बैठाकर. और यह गांधी की वैदिक परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी था, जैसे आज भाजपा के लिए आरएसएस के हिन्दुत्ववादियों को राज्यसभा में और संस्थाओं में बड़े-बड़े पदों पर बैठाकर सम्मानित और पुरस्कृत करना जरूरी हो गया है.

गांधी के ट्रस्टीशिप के विचार में क्या पूंजीवाद का समर्थन नहीं है ? जो विचार पूंजीपतियों को गरीबों का संरक्षक मानता है, क्या वह विचार श्रमिक वर्ग का समर्थक हो सकता है ? आंबेडकर ने ट्रस्टीशिप की आलोचना करते हुए लिखा है, ‘गांधी ने एक बार कहा था कि वह सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी का हनन नहीं करना चाहते. इसका मतलब है कि मालिकों, मजदूरों, धनी और गरीब, जमींदारों और किसानों के मध्य उठते आर्थिक झगड़ों को सुलझाने के लिए गांधी जी का सरल नुस्खा है कि सम्पत्तिवान अपने को सम्पत्ति का ट्रस्टी घोषित कर दें.’

इस दृष्टि से गांधी का ट्रस्टीशिप न केवल वर्गभेद का कायल है, बल्कि वर्ग-निर्माण पर भी जोर देता है. इस तरह गांधी समाज के सामाजिक और आर्थिक दोनों ढांचों को समाज-व्यवस्था का पवित्र और स्थायी अंग मानकर सुरक्षित रख रहे थे. आंबेडकर ने कहा कि गांधी का ट्रस्टीशिप गरीबों का मजाक उड़ाता है. गांधी जीवन की वास्तविक कठिनाइयों को नहीं जानते थे, क्योंकि, जैसाकि कहा गया, वह धनी परिवार में मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए थे. वह गरीब और दास वर्ग को यह कहकर धोखा दे रहे थे कि जो पूंजीपति, सेठ, साहूकार गरीबों को खून के आंसू रुलाते आए हैं, वे नैतिकता और सदाचार के उपदेश मात्र से परोपकारी और त्यागी बन जायेंगे.

गांधी के परम आराध्य रघुपति राघव राजा राम थे और उनका परम पूज्य ग्रन्थ भगवद्गीता थी. रघुपति राघव राजा राम ने ब्राह्मणों की रक्षा के लिए जन्म लिया था और अपने राज्य में वर्णव्यवस्था का कठोरता से पालन कराया था, इसलिए वर्णव्यवस्था का उल्लंघन करने पर उन्होंने शूद्र शम्बूक का वध कर दिया था. भगवद्गीता भी वर्णव्यवस्था के पालन पर जोर देती है. गांधी की इन दो धार्मिक आस्थाओं ने ही उन्हें विरोधाभासी बनाया.

आंबेडकर ने प्रश्न किया, ‘गांधीवाद में क्या नहीं है ? गांधी की ऐसी कौन सी बातें हैं, जो सनातन हिन्दूधर्म में नहीं पाई जातीं ? हिन्दूधर्म में जातियां हैं, गांधीवाद में हैं. हिन्दूधर्म में गौपूजा है, गांधीवाद में भी है. हिन्दूधर्म कर्मफल को मानता है, गांधीवाद भी मानता है. हिन्दूधर्म वेद-शास्त्रों में विश्वास करता है, गांधीवाद भी करता है. हिन्दूधर्म अवतारवाद, मूर्तिपूजा और परलोक को मानता है, गांधी भी मानते थे.

क्या यह कहना अनुचित होगा कि गांधीवाद हिन्दूधर्म का आधुनिक संस्करण है ? क्या यही कारण नहीं है कि बड़ी संख्या में सवर्ण समाज के लोग गांधीवादी बने ? राधाकृष्णन ने तो यहां तक कह दिया था कि ‘गांधी इस देश के देवता हैं.’ इस पर आंबेडकर ने कहा था कि दलित वर्ग के लोग इस कथन का क्या अर्थ समझें ? क्या यह देवता दलितों का भी त्राण करने आया था ? कदापि नहीं.

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