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चार प्रकार की रोग-व्याधियां और मनुष्य

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 डॉ. प्रिया 

 _सभी प्रकार के रोगों का सम्बन्ध शरीर से होता है और व्याधियों का सम्बन्ध होता है मस्तिष्क से। ग्रह गोचर, नक्षत्र तथा भूत-प्रेत जन्य कष्ट सर्वप्रथम मस्तिष्क में उत्पन्न होता है और फिर प्रकट होता है मनोमय शरीर। मस्तिष्क का सीधा सम्बन्ध मन और मनोमय शरीर से है। मनोमय शरीर के बाद वह व्याधि सूक्ष्म शरीर में, तत्पश्चात वासना शरीर में तदनन्तर स्थूल शरीर में प्रकट होती है।_

          सभी प्रकार की व्याधियां अत्यन्त गहरी होती हैं। कोई-कोई तो पिछले जन्मों की भी होती हैं। उनका उपचार शीघ्र सम्भव नहीं होता। आयुर्वेद के अनुसार सभी प्रकार की रोग-व्याधियाँ मुख्यतया चार प्रकार की होती हैं–

   [1].पिछले किसी जन्म के कृत्यजन्य संस्कार से सम्बंधित

[2]. पिछले किसी जन्म के जघन्य अपराध जन्य संस्कार से सम्बंधित

[3]. वर्तमान जन्म के किसी भयंकर अपराध अथवा पापजन्य संस्कार से सम्बंधित

[4[. प्रकृति के विरुद्ध आचरण जन्य संस्कार से सम्बंधित

      _जो व्याधि आज अपने लक्षणों के साथ स्थूल शरीर में प्रकट हो रही है, वह बहुत समय पूर्व मनोमय शरीर में प्रकट हो चुकी होती है। जहां तक विभिन्न प्रकार के शारीरिक रोगों का सम्बन्ध है, उनमें भी ऐसा ही क्रम है। कोई भी रोग हो, सबसे पहले उसका अस्तित्व मनोमय शरीर में होता है, उसके बाद सूक्ष्म शरीर में, फिर वासना शरीर में और अन्त में प्रकट होता है स्थूल शरीर में।_

         सभी रोग स्थूल शरीर में प्रकट  होने के के लगभग 20-25 वर्ष पहले ही मनोमय और सूक्ष्म शरीर में प्रकट हो चुके होते हैं और उनको ठीक होने में भी काफी समय लगता है।

 कोई-कोई रोग तो ऐसे होते हैं जो कई बार उत्पन्न होते हैं। इसका मतलब यह है कि वे मनोमय या सूक्ष्म शरीर में ठीक नहीं हुए होते हैं। जो रोग मनोमय या सूक्ष्म शरीर में पूर्ण रूप से ठीक हो जाते हैं, वे फिर स्थूल शरीर में कभी भी प्रकट नहीं होते।

       _रोगों में कर्कट (केंसर), यक्ष्मा ( टीबी), दमा और कुष्ठ रोग–ये चार रोग राजरोग या महारोग हैं जो पिछले कई जन्मों से पीछा करते रहते हैं और मृत्युकारक भी होते हैं।_

        शरीर के साथ जन्म लेते हैं, जीवनभर कष्ट देते हैं और शरीर के साथ चले जाते हैं अगले जन्म में। जन्म और मृत्यु उनके लिए बाधक नहीं हैं। उपचार करने पर शिथिल अवश्य हो जाते हैं लेकिन पुनः पुनः सक्रिय हो उठते हैं।

*आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक और ऐलोपैथिक उपक्रम*

      रोग के लिए तीन प्रकार के निदान हैं। आयुर्वेद मन और प्राण के कम्पनों के द्वारा मनोमय और सूक्ष्म शरीर को पकड़ता है और उसके माध्यम से मनोमय शरीर और सूक्ष्म शरीर में विद्यमान रोग-व्याधियों का निदान करता है।

      होम्योपैथी अपनी लक्षण पद्धति के माध्यम से वासना शरीर व छाया शरीर से संपर्क स्थापित कर रोग-व्याधि का निदान करती है।

   एलोपैथी अपने संसाधनों द्वारा रोग-व्याधि का निदान स्थूल शरीर के माध्यम से करती है। उसके लिए अन्य शरीरों का कोई महत्व नहीं है। यही कारण है कि रोग-निवारण में समय अधिक लगता है, इसके अलावा रोग पूर्णतया ठीक होने का कोई आश्वासन भी नहीं है।

      _आयुर्वेद और होम्योपैथी  द्वारा रोग-निवारण में समय तो अधिक लगता है लेकिन उनमें स्वस्थ होने का पूर्ण विश्वास और आश्वासन रहता है। होम्योपैथी में यदि लक्षण पकड़ में आ गया तो रोग-शान्ति में फिर कोई बाधा नहीं।_

    [चेतना विकास मिशन]

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