अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

गौतम बुद्ध और उनका शिष्य आनंद

Share

-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर

गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के आदि प्रवर्तक कहलाते हैं। गौतम बुद्ध को सिद्धार्थ, भगवान बुद्ध, महात्मा बुद्ध और शाक्यमुनि जैसे कई नामों से जाना जाता है। इनका जन्म ईसा से 563 साल पहले जब कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में हुआ। उनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। उनके पिता का नाम शुद्धोदन था। जन्म के सात दिन बाद ही मां का देहांत हो गया। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया। यद्यपि उनके पिता राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र का ध्यान सांसारिक कार्यों में मोड़ने की बहुत कोशिस की और उनकी शादी कर दी। लेकिन वे मोह माया के पाश में कहाँ बंधने वाले थे। सत्य और ज्ञान खोज में वे गृह त्याग कर दिए। वर्षों की कठोरतम तपस्या के बाद वैशाख पूर्णिमा की रात पीपल वृक्ष के नीचे निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के बाद ही सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुये। प्रथम उपदेश सारनाथ में हुआ। उन्होंने अपने जीवन के सर्वाधिक उपदेश श्रावस्ती में दिये। उन्होंने मगध को अपना प्रचार केन्द्र बनाया। महात्मा बुद्ध अपने जीवन के अंतिम पङ़ाव में कुशीनारा पहुँचे। इसे बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण के नाम से भी जाता है।
    कहा जाता है कि गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद का यश चमत्कृत रूप से बढ़ा। आनन्द भगवान गौतम बुद्ध के चचेर भाई थे। ये बुद्ध से बहुत प्रभावित थे। गौतम बुद्ध ने इन्हें सर्व प्रथम अपरिग्रह अपनाने को कहा। आनंद बहुत संपन्न थे, उन्होंने अपरिग्रह अपनाने में अपनी असमर्थता जताई, तब बुद्ध ने कहा- घबड़ाओ नहीं, तुम्हें छोड़ना कुछ भी नहीं है। तुम्हें तो अपने गाय आदि पशुओं, अनाज आदि धान्य, सोना-चांदी, नौकर-चाकर, खेत आदि ‘इतना रखना है’, वस इसका नियम लेना है। इसमें आपके पास अभी जो है उससे अधिक की भी सीमा रख सकते हो, किन्तु बस परिसीमन करना है कि इतने से अधिक नहीं रखूंगा। आनंद को बुद्ध की यह बात अच्छी लगी और अपनी संपत्ति आदि की बढ़ा-चढ़ाकर सीमा बना ली, इससे अधिक नहीं रखूंगा।
    समय बीतने लगा। धीरे-धीरे अनाज आदि बढ़ने लगा, गोधन आदि खूब बढ़ गया। बढ़ाकर बताई गई सीमा से भी अधिक होने लगा तो अपने नियम के अनुसार बढ़ी हुई सम्पत्ति को दान करने लगे। अब सम्पत्ति, गाय, अनाज, स्वर्ण-रजत आदि और अधिक बढ़ने लगा, उसी मात्रा में आनंद दान भी अधिक करने लगे। धीरे-धीरे दान करने में उसकी कीर्ति आस-पास के प्रान्तों में भी चमत्कृत रूप से बढ़ गई। बाद में उन्होंने माहात्मा बुद्ध से दीक्षा ले ली और लम्बे समय तक उनके प्रधान शिष्य रहे।
    आनंद सदा भगवान् बुद्ध की निजी सेवाओं में तल्लीन रहे। वे अपनी तीव्र स्मृति, बहुश्रुतता तथा देशनाकुशलता के लिए सारे भिक्षुसंघ में अग्रगण्य थे। बुद्ध के जीवनकाल में उन्हें एकांतवास कर समाधिभावना के अभ्यास में लगने का अवसर प्राप्त न हो सका। महापरिनिर्वाण के बाद उन्होंने ध्यानाभ्यास कर स्वात्म लाभ लिया।

-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें