अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

गीता दृष्टि : दाम्पत्य में दुराचार का हस्र 

Share

              ~> पूजा ‘पूजा’

     जिस पुरुष के पास स्त्री सेविका है, वह श्रीमान् है। जिस स्त्री के पास  पुरुष सेवक है, वह श्रीमती है। जो श्रीमान् है, यह सुखी है जो श्रीमती है, वह सुखी है. जो सुखी नहीं है, वह श्रीमान/श्रीमती नहीं है : विवाहित  युगल रूप में होते हुए भी।

कौन श्रीमान् है ? जिसके पास सेवा करने वाली सुख देने वाली हर प्रकार से तुष्ट करने वाली स्त्री है, वह श्रीमान है। 

   कौन श्रीमती है ? जिसके पास सेवा करने वाला, सुख देने वाला हर प्रकार से तुष्टि देने वाला पति है, वह श्रीमती है। जिस पुरुष के पास स्त्री नहीं है, वह श्रीमान् नहीं है। जिस स्त्री के पास पुरुष नहीं है, वह श्रीमती नहीं है। 

     यहाँ श्रीमान/श्रीमती का अर्थ है- सुखी जो सुखी नहीं है, वह पुरुष श्रीमान् नहीं है तथा वह स्त्री श्रीमती नहीं है भले ही ये विवाहित या दाम्पत्य युक्त हों।

     क्या अविवाहित, अकेले पुरुष-स्त्री श्रीमान्-श्रीमती नहीं है?  जो व्यक्ति अपने आपमें अपनी स्थिति से सन्तुष्ट है वह पुरुष निश्चय ही ऐसा श्रीमान है।

 शंकराचार्य कहते हैं :

  “श्रीमांश्च को ? यस्य समस्त तुष्टः।”

 ‘श्री’ का अर्थ है- धन, सम्पत्ति.  जिसके पास धन सम्पत्ति है, यह श्रीमान- श्रीमती है। “धनात् धर्मः ततः।” धन से धर्म होता है। 

धर्म से सुख मिलता है। धनवान् पुरुष श्रीमान् है। धनवती स्त्री श्रीमती है। सुखम् धन से पुरुष, स्त्री प्राप्त करता है। धन से ही पुरुष वस्त्राभूषणों से स्त्री की सेवा करता है। धन से ही स्त्री. पुरुष को पाती है। 

    जो धनी नहीं है, वह चाहे स्त्री हो वा पुरुष, उसका विवाह नहीं होता, उसके घर नहीं होता, उसके नौकर-चाकर नहीं होते। अतः वह सुखी नहीं होता। ऐसे पुरुष-स्त्री श्रीहीन किंवा दरिद्र होते हैं। 

      नपुंसक जातक श्रीविहीन होता है, तुच्छ होता है, असम्मान्य होता है। उपस्थ का होना और उसका सक्रिय वा जागृत रहना महत्वपूर्ण है। इसमें पुरुष और स्त्री दोनों की शोभा है। उपस्थ की शिथिलता/निष्क्रियता के साथ हो पुरुष स्त्री का सौन्दर्य जाता रहता है- दोनों श्रीहीनता को प्राप्त होते हैं। 

  जिसकी भार्या का कोई गुप्त प्रेमी/भोक्ता हो वह उससे द्वेष करे। वहिष्कार करें.

  जब कोई किसी गृहस्थ का सुख छीनता है-उसकी भार्या को बहला फुसला कर उसका भोग करता है-उसकी जाया को लोभ लालच देकर अपना भोग्य बनाता है-उसकी पत्नी को भयभीत करते हुए उसका शील लूटता है-उसकी दारा के साथ बलात्कार करता है-उसकी अर्धांगिनी का अपहरण कर उसके साथ व्यभिचार करता है-उसका मान भङ् करता है-उसकी योनि की पवित्रता को नष्ट करता है तो वह गृहस्थ इसे सहन नहीं करता। 

    पत्नी का जार (यार) पति का शत्रु होता ही है। अपने शत्रु को ध्वस्त करना नीति है। प्रकृति एवं सामर्थ्य के अनुसार इस नीति को अपनाना धर्म है। इसलिये शत्रु को समूल उखाड़ फेंकने के लिये उपनिषद् ने इस आभिचारिक प्रयोग का निदेशन किया है।

   पति को चाहिये कि वह यह प्रयोग  करे या पत्नी को त्याग दे, उसे उसके जार को ही दे दे। किन्तु, यदि सचमुच उसकी पत्नी को ठगा जा रहा और उसे धोखे में रखा जा रहा हो तो शत्रु पर यह प्रयोग एक अप्रत्यक्ष प्रहार है और नितान्त निरापद है। 

     जिस की पत्नी का कोई उपपति हो और वह उसके उपपति से द्वेष करता हो तो उसे उस जार के सर्वनाश के लिये अभिचार कर्म का समारंभ करना चाहिये। पति अगर परस्त्रीगामी है तो पत्नि को भी यही सारे कदम उठाना चाहिए.

   पुरुष को अन्य व्यक्ति की भार्या से समागम करने की बात तो दूर हास-परिहास भी नहीं करना चाहिये। क्योंकि वह विसुकृत- पुण्यकर्मशून्य हो इस लोक से चल बसता है। अतः परस्त्रीगमन के ऐसे भीषण परिणाम को जानकर अन्य की पत्नी की ओर आँख उठाकर देखें तक नहीं। इसी में उसका भला है। 

 स्त्रीदूषण कभी अच्छा फल नहीं देता. स्त्री में परपुरुष के वीर्य की आहुति पड़ने से जो सन्तान उत्पन्न होती है, उससे कुल धर्म नष्ट हो जाता है। 

“कुलक्ष्ये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।

 धर्मे नष्टे कुलं कृलनमधर्मोऽभिभवत्युत॥”

    ~गीता (१।४०)

कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म के नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है।

“अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।

 स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥” 

          (गीता १ । ४१)

 पाप के अधिक हो जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं। स्त्रियों के दूषित होने से वर्णसंकर उत्पन्न होता है.

“दोषैरेतैः  कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः। उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥” 

    (गीता १।४३)

इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं।

“उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन। 

नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥”

          ( गीता १।४४ )

जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है.

       यदि पुरुष दूषित होता है या वेश्यागामी होता है तो इससे उसके कुल में वर्णसंकरता नहीं आती। किन्तु यदि स्त्री दूषित होती है तो इससे कुल में वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है। इससे धर्म का क्षय होता है। इसलिये भली प्रकार से स्त्रियों को दूषित होने से बचाने के लिये हर संभव उपाय करना चाहिये। 

आज अपनी इच्छा से स्त्रियाँ दूषित हो रही हैं। वर्णसंकर उत्पन्न हो रहे हैं। कुलधर्म नष्ट हो रहे हैं। धर्म से आस्था उठ रही है। लोग दुःखी हो रहे हैं। सर्वत्र अशांति है,  यद्यपि भौतिक समृद्धि है।

Recent posts

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें