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लोकतंत्र पर शिकंजे का शिकार हुए जी एन साईबाबा

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लगभग 10 वर्षों तक अन्याय एवं क्रूरता के शिकार हुए कवि, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा दिल्ली विश्वविद्यालय के अंतर्गत पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा का शनिवार की रात हैदराबाद के एनआईएमएस अस्पताल में निधन हो गया। इसी अस्पताल में उनकी 5 दिनों पहले गॉल ब्लैडर की सर्जरी हुई थी। वे ठीक हो रहे थे लेकिन दो दिन पहले उन्हें फिर से तकलीफ़ होने पर उन्हें वापस भर्ती किया गया था। शनिवार को इलाज के दौरान उनका रक्तचाप गिर गया तथा उन्हें दिल का दौरा पड़ा जो उनके लिये जानलेवा साबित हुआ। उल्लेखनीय है कि तकरीबन 10 सालों तक राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में कैद भुगतने वाले साईबाबा को इसी वर्ष मार्च में बॉम्बे हाईकोर्ट ने  आरोपों से बरी किया था। उनके मामले को इस रूप में याद किया जायेगा कि देश में किस हद तक किसी निर्दोष को प्रताड़ित किया जा सकता है- खासकर यदि वह पीड़ितों के पक्ष में बोलने-लिखने वाला हो।  

उनकी मौत ने यह भी साबित किया है कि भारत में कानूनों का न केवल राज्य द्वारा बेजा इस्तेमाल होता है बल्कि न्यायिक प्रक्रिया सज़ा से भी बदतर है। जेल में उनके साथ हुई यातना इतने भर से बयां की जा सकती है कि बचपन से ही व्हीलचेयर पर रहने वाले साईबाबा को नागपुर की अंडा सेल में इस प्रकार से रखा गया कि उन्हें दिन में दो बार नित्यक्रिया एवं स्नान के लिये भी दो लोगों की मदद लेनी पड़ती थी। इस जेल की क्षमता तो 2 सौ कैदियों की थी परन्तु उसमें 13 सौ लोग थे जहां करवट बदलने के लिये भी आपस में झगड़े होते थे। डॉक्टरों द्वारा 90 प्रतिशत विकलांग घोषित किये जा चुके साईबाबा पर आरोप लगाया गया था कि उनके माओवादियों से सम्बन्ध हैं और वे राज्य के खिलाफ षडयंत्र में भागीदार रहे हैं।दरअसल, 2013 में हेम मिश्रा, महेश तिर्की, पी नरोटे, प्रशांत राही आदि को माओवादी षड़यंत्र के अंतर्गत गढ़चिरोली पुलिस ने गिरफ्तार किया था। साईबाबा को भी इसमें शामिल होने के आरोप में पकड़ा गया था। उनके पास से नक्सली साहित्य की बरामदगी को आधार बनाकर उन्हें गिरफ़्तार किया गया था।

इसके बाद की कहानी भारतीय न्यायपालिका की दुर्दशा की कहानी है जो इस बात पर मुहर लगाने के लिये काफ़ी है कि कैसे एक बार कानूनी मकड़जाल में फंस गये किसी निरीह के जीवन को सरकार कितनी आसानी से बर्बाद कर सकती है। पुलिस ने आरोप लगाया कि साईबाबा ने ही आरोपियों की माओवादियों से मुलाकात कराई थी। पुलिस लगभग उनका अपहरण करके ले गयी थी जब वे मुख्य परीक्षक के तौर पर परीक्षा केन्द्र की ओर जाने के लिये अपने घर से निकल ही रहे थे। उनके ड्राइवर को उतारकर चलता कर दिया गया और कार समेत सिविल ड्रेस में पुलिस वाले उन्हें ले गये थे। इसके बाद विश्वविद्यालय ने उन्हें निलम्बित कर दिया था।

पक्षाघात से पीड़ित साईबाबा को गढ़चिरौली कोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (यूएपीए) के तहत दोषी पाया। बिगड़ती सेहत के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत तो दी लेकिन बाद में बॉम्बे हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप कर जमानत रद्द करते हुए उन्हें आत्मसमर्पण के लिये कहा। हालांकि मामले में सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने उन्हें 2017 में रिहा तो कर दिया लेकिन मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के बीच की अनेक न्यायिक पेंचीदगियों के बीच गुजरते हुए उन्हें वर्षों तक जेल में समय बिताना पड़ा। पहले से विकलांग साईबाबा को जेल की सुविधाहीन परिस्थितियों में जिंदगी गुजारने के कारण कई तरह की बीमारियां हो गयीं। इनमें से मुख्यतः उनकी किडनी पर विपरीत प्रभाव पड़ा।  उन्हें जेल प्रशासन द्वारा दवाएं नहीं दी जाती थीं। अपनी मौत की वे कई बार आशंका जतला चुके थे।

जमानत के दौरान उन्होंने एक साक्षात्कार में बतलाया था कि खुद जेल अधिकारियों को उम्मीद नहीं थी कि वे लम्बे समय तक जिंदा रह पायेंगे। देश में एक ओर जहां हत्या तथा बलात्कार के जुर्म में उम्र कैद भुगत रहा राम रहीम जैसा अपराधी कुछ ही वर्षों में करीब एक दर्जन बार पैरोल पर जेल से रिहा कर दिया जाता है वहीं लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं प्रोफेसर जैसे सम्मानित पेशे से जुड़े साईबाबा को उनका मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने का मौका तक नहीं दिया गया। उनकी नौकरी चली जाने का भी उन्हें बेहद गम था और वे कहते थे कि वे शिक्षक के रूप में काम करना तथा शिक्षक के रूप में ही मरना चाहते थे।

केवल वैचारिक मान्यता के आधार पर किसी को देश के ख़िलाफ़ षड़यंत्र में शामिल होना बतलाकर यदि किसी को इस प्रकार से लम्बे समय तक जेल में रखा जाये तो इससे अधिक दुर्भाग्यजनक कुछ हो नहीं सकता। किसी विचारधारा का समर्थन या विरोध करना किसी की गिरफ़्तारी का कारण नहीं हो सकता- इस बात की तस्दीक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाएं तथा देश का सुप्रीम कोर्ट भी करता तो है परन्तु वह लेखकों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि को सलाखों के बाहर नहीं निकाल पाता। सरकार से भिन्न विचार रखना लोकतांत्रिक प्रणाली का हिस्सा है तथा आधुनिक समय का सर्वमान्य नियम भी। भारत विपरीत दिशा में चल रहा है। यह स्थिति राज्य के नागरिकों पर कड़े शिकंजे का प्रतीक है जो अंततः देश तथा लोकतंत्र के विरूद्ध है।

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