~ डॉ. विकास मानव
श्रीकृष्ण कहते हैं : हे अर्जुन ! तू मुझको अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निस्संदेह समर्थ नहीं है; इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूॅं; इससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख सके.
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ।।
– (श्रीमद्भगवद्गीता ११/८)
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से दिव्यचक्षु प्रदान करने की बात कही है; क्योंकि अर्जुन अपने प्राकृत नेत्रों से उनके ईश्वरीय योगस्वरूप को देखने में समर्थ नहीं है। प्राकृत नेत्र वे हैं, जो प्रकृति द्वारा निर्मित स्थूल शरीर में मौजूद हैं। प्रकृति द्वारा प्रदत्त इन नेत्रों से प्राकृतिक दृश्यों को ही देखा जा सकता है, सूक्ष्म या अतिसूक्ष्म ईश्वरीय स्वरूप को नहीं।
प्राकृतिक स्वरूप या दृश्य वही सब हैं, जो हम अपने स्थूल नेत्रों द्वारा देखते हैं, लेकिन उसी स्थूल रूप में मौजूद सूक्ष्म या अतिसूक्ष्म रूप को हम इन स्थूल नेत्रों द्वारा नहीं देख सकते। उसके लिए दिव्य नेत्र चाहिए और वे दिव्य नेत्र हैं मन के नेत्र।
जिस प्रकार प्रत्येक जीवित प्राणी के स्थूलशरीर के अंदर सूक्ष्म प्रकाशित उसकी जीवात्मा मौजूद है, लेकिन हम उसे देख नहीं सकते, केवल उसे स्थूलशरीर के माध्यम से गतिविधि या क्रियाकलाप करते हुए देखते हैं, उसी तरह अर्जुन भी भगवान श्रीकृष्ण की विभूतियों का श्रवण करने के बाद उनके ईश्वरीय योगशक्ति स्वरूप को देख पाने में समर्थ नहीं था; जबकि भगवान श्रीकृष्ण उसी के समक्ष थे।
इसका तात्पर्य यह है कि हमारे समक्ष यदि भगवान भी उपस्थित हों, लेकिन हमारी यदि मन की शक्ति, सूक्ष्मशक्ति विकसित न हो तो हम भी उन्हें देख नहीं सकते, समझ नहीं सकते। यदि हमें उनके सूक्ष्म व अतिसूक्ष्म रूपों का दर्शन करना है तो हमें भी अपनी सूक्ष्मशक्तियों को जाग्रत करना होगा।
सामान्य तौर पर व्यक्ति उन्हीं चीजों पर भरोसा करता है, जो वह अपने स्थूल नेत्रों से देखता है और उसी को प्रमाण मान लेता है, सूक्ष्म चीजों व उनकी शक्तियों को नकार देता है, लेकिन हम अपने चारों ओर से सूक्ष्म शक्तियों से आच्छादित हैं, जैसे- ध्वनि, वायु, मन के विचार व मन के भाव आदि ये सभी सूक्ष्म हैं।
यदि हमें जीवन के सूक्ष्मतत्त्वों को जानना है, उन्हें समझना है तो हमें अपनी सूक्ष्मशक्तियों अर्थात मन की शक्तियों को जाग्रत करना होगा।
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने तपस्या-साधना के माध्यम से अपने मन की सूक्ष्मशक्तियों को जाग्रत किया था और दिव्य मंत्रों का दर्शन व श्रवण किया था।
हमारे जीवन का स्थूलरूप बहुत कम मात्रा में प्रकट है और उसका सूक्ष्मरूप बहुत अधिक मात्रा में है। हमारे जीवन का जो भी अप्रकट भाग है वह सूक्ष्मरूप है और प्रकट भाग स्थूलरूप है। जिस प्रकार समुद्र में डूबे हुए हिमखंड का बहुत थोड़ा सा भाग ऊपर दिखाई देता है, लेकिन जल के भीतर उसका बहुत विशाल रूप होता है, जो दीखता नहीं है, ठीक उसी प्रकार हमारे जीवन का भी सूक्ष्मरूप जन्म-जन्मांतरों का वह बीता हुआ कल है, जो हमारे साथ हर-पल जुड़ा हुआ है और हमारे स्थूल जीवन को प्रभावित करता है।
चूँकि हम सब यह नहीं जानते कि पिछले जन्मों में हम क्या थे? हमारे कृत्य कैसे थे ? हमने क्या-क्या किया ? इसलिए वर्तमान परिस्थितियों को व भगवान को दोष देते रहते हैं कि हमारे साथ भगवान ने इतना भेदभाव क्यों किया है? दूसरों का जीवन इतना अच्छा है और हमारा जीवन इतना कष्टकर क्यों है ?
वास्तव में हम अपने जीवन के अतीत के सूक्ष्म पक्षों से अनभिज्ञ हैं, इसलिए हम अपने जीवन के स्थूल पक्ष को देखकर यदि भगवान को दोष दें, तो भी उससे कुछ होने वाला नहीं है। उचित यही है कि हम भी अपने जीवन के सूक्ष्मपक्ष को जानने के लिए अपने मन की शक्तियों को विकसित करें। ध्यान, साधना व प्रार्थना को भी जीवन का एक अभिन्न अंग बनाएँ और अपने मन का परिष्कार करके उसे विकसित करें।
जब हमारा मन स्थिर व एकाग्र होता है तो उसकी शक्तियाँ जाग्रत होती हैं, लेकिन चूँकि मन का स्वभाव अत्यंत चंचल है, इसलिए वह एक जगह स्थिर नहीं हो पाता। यह समस्या अर्जुन की भी थी और उसने भगवान श्रीकृष्ण से मन को साधने का उपाय पूछा और भगवान ने उसे यही कहा कि अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ही मन को वश में किया जा सकता है।
बार-बार अभ्यास और अनासक्त भाव ही वह उपाय है जिससे मन को एकाग्र किया जा सकता है; क्योंकि यदि मन में आसक्ति होगी तो जिन-जिन वस्तुओं पर उसकी आसक्ति होगी, उन्हीं में वह बार-बार जाने का प्रयास करेगा और स्थिर नहीं हो पाएगा।
मन को स्थिर व एकाग्र करने के लिए ही हमारी भारतीय संस्कृति में भगवान की पूजा-उपासना की बात कही है। नियमित रूप से संध्यावंदन, जप, ध्यान, प्राणायाम आदि क्रियाएँ इसीलिए करने के लिए आवश्यक कही गई हैं, ताकि हम अपने अतिव्यस्त जीवन में भी अपने मन को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले चलें। अपने मन को भगवान में लगा सकें; क्योंकि इसी में उसके कल्याण की, जीवन की सार्थकता छिपी है।
इतिहास में ऐसे अनेक लोगों का जीवंत उदाहरण है, जिन्होंने अपने जीवन की सूक्ष्मशक्तियों को जाग्रत किया और सार्थक जीवन जिया. रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्रीअरविंद, महर्षि रमण, मीरा, संत रैदास, तुलसीदास, अब्दुल रहीम खानखाना आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिन्होंने अपने स्थूलशरीर के साथ-साथ सूक्ष्मशरीर की शक्तियों को जाग्रत किया और कल्याणकारी जीवन जिया।
अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने दिव्यचक्षु प्रदान किए; क्योंकि उसका जीवन भगवान के प्रति समर्पित था। वह हर-पल भगवान का स्मरण करता, उन पर गहरी श्रद्धा और विश्वास रखता और अपने जीवन की सबसे कठिनतम परिस्थिति में जब उसे अपने ही स्वजनों से युद्ध करना था तब भी वह मार्गदर्शन के लिए भगवान श्रीकृष्ण से ही प्रार्थना करता है।
उसके अंदर विनम्रता का भाव था। वह निश्छल भाव के साथ भगवान के प्रति शरणागत हुआ था, इसलिए उसके शुद्ध समर्पण भाव को देखकर भगवान ने उस पर अपनी कृपा की और उसे दिव्यचक्षु (सूक्ष्मदृष्टि) प्रदान किए।
यदि हम भी अपने जीवन का परिष्कार करते हैं, शुभकर्म करते हैं, शुद्ध भाव के साथ भगवान से प्रार्थना करते हैं और उनकी उपासना करने के साथ उनके प्रति समर्पण व शरणागति का भाव रखते हैं तो निश्चित रूप से नित्य-निरंतर हमारे द्वारा किया जाने वाला यह अभ्यास अपनी शुभ परिणति के रूप में अपनी सूक्ष्मशक्तियों को जाग्रत करता है और हम अपने जीवन के सूक्ष्मरूप का भी परिचय प्राप्त करते हैं, जिससे हमारा जीवन सफल हो सकता है।
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