~ राजेंद्र शुक्ला (मुंबई)
कम आयु के बच्चे ज्ञान, स्तर अनुभव और विकास क्रम के कारण बड़ों की तुलना में पिछड़ी स्थिति के होते हैं। उन्हें उपयुक्त-अनुपयुक्त का ज्ञान कम होता है। इसलिए यह कार्य भी लालन-पालन की व्यवस्था जुटाते हुए अभिभावकों को ही करना पड़ता है, कि वे जहांँ आवश्यक सुविधा सामग्री प्राप्त करें, वहांँ हानिकारक प्रसंग से बचे भी रहें।
यह सतर्कता बहुत हद तक आहार के संबंध में बरती जाती है। उन्हें पोषक और हलका आहार उपलब्ध कराया जाता है अन्यथा मनमर्जी पर छोड़ देने से व्यक्ति कुछ भी खाने, खरीदने लगेंगे और उस उत्साह में नई मुसीबतें खड़ी करेंगे।
जब बालक रेंगने, चलने लगते हैं, तो कुछ भी पकड़ने, खाने लगते हैं। न रोका जाय तो वे आग भी पकड़ लेते हैं और चींटी, झींगुर, कील, कांँटा भी निगल सकते हैं। इसलिए अभिभावकों को उन्हें रेंगने, चलने की छूट देनी पड़ती है, वहांँ यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि कुछ अनुपयुक्त तो नहीं किया जा रहा है।
यह रोकथाम ही सब कुछ नहीं होती वरन् उनकी हलचलों को सीमाबद्ध करने के लिए खिलौने का पिटारा भी लाकर रखना होता है ताकि उनमें उलझे रहें, प्रसन्न भी रहे और कुछ नया सीखने का प्रयत्न भी करें। बच्चा जब स्कूल जाने लगे और एक दो कक्षा पास कर लें, तभी से उसमें एक नई भूख ज्ञान-पिपासा की उगती है। उपलब्ध साधनों और परिस्थितियों से जो जाना जा सकता है, उससे अधिक जानने की उनकी सहज उत्कण्ठा रहती है।
इसे पूरा करने के लिए पुस्तकों के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। अब मुद्रण युग में बालकों की सामान्य आवश्यकताओं में ही भोजन, वस्त्र, खेल, मनोरंजन की तरह एक नया अध्याय स्कूली पुस्तकों से आगे चलकर अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तक उपलब्ध कराने का जुड़ गया है।
आमतौर से बच्चे कुछ ऐसा पढ़ना चाहते हैं, जो ज्ञानवर्धक भी हो और मनोरंजन भी करें। अभिभावकों को अपने बालकों की इस आवश्यकता को अनुभव करना चाहिए और उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। बच्चों में जिज्ञासा की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है, जिसके कारण ही अपने आसपास खुले पड़े वातावरण से वह विभिन्न जानकारियांँ एकत्रित करता है।
ऐसे अवसर पर उनके मस्तिष्क में विकास तथा सामान्य ज्ञान में वृद्धि के लिए सत्साहित्य का स्वाध्याय सबसे उत्तम माना जाता है। वर्तमान युग के व्यस्त सामाजिक जीवन में अभिभावक व्यक्तिगत ढंँग से बालकों को शिक्षण देने के लिए समय नहीं निकाल पाते। ऐसी स्थिति में स्वाध्याय ही एक ऐसा माध्यम है, जो उन्हें देश-विदेश की घटनाओं तथा ज्ञान-विज्ञान की जानकारी से अवगत कराता है।
इस प्रकार जहांँ उसे ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन प्रसंगों से अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाने की प्रेरणा मिलती है, वही संसार के प्रसिद्ध विचारकों के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विचारों को जानने का अवसर मिलता है।
बच्चों के स्वाध्याय के लिए साहित्य का चयन भी करना आवश्यक है। विकृत भोजन की तरह ही विकृत साहित्य भी उद्देश्य पूरा नहीं कर पाता। उसके पढ़ने से उस जैसे दूषित विचार तथा विकृत भावनाएंँ व घटनाएंँ बच्चों के मस्तिष्क में घुमड़ती रहती है, जो उसके मानसिक विकास को कुण्ठित और दिशाहीन ही नहीं विकृत भी बना देती है। इस दिशा में अभिभावकों को बड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। उन्हें घर में ऐसी पत्र-पत्रिकाएंँ नहीं लानी चाहिए, जिनके विचार बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर अपना दुष्ट प्रभाव डालते हों। उन्हें हर हालत में बचना चाहिए।
जहांँ अच्छी पत्र-पत्रिकाएँ एवं पुस्तकों का अध्ययन बच्चों में श्रद्धा, आत्मीयता, सेवा, सदभावना, प्रेम, उदारता, करुणा जैसे भाव जागृत करने तथा नैतिकता, सदाचार, सहिष्णुता को विकसित करने में सक्षम होता है, वही गंदा, अश्लील व उत्तेजक साहित्य बच्चों में हिंसा, क्रोध, घृणा, तोड़-फोड़, हत्या जैसे अपराधजन्य कुसंस्कारों के बीज उत्पन्न करता है।
अनुकूल परिस्थितियांँ तथा अवसर पाते हैं यह बीज उगते और अपराधों की फसल के रूप में दिखाई पड़ते हैं। वर्तमान समाज में बढ़ते घृणित अपराधों को बहुत कुछ इस बाजारु अश्लील साहित्य की देन कहा जाय, तो कुछ अत्युक्ति नहीं होगी। उत्कृष्ट विचारों तथा जीवन को दिशा प्रदान करने वाला साहित्य ही बच्चों की मानसिक विकास की आवश्यकता पूरी कर सकता है।